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वर्ष 10, अंक 40 , सं. 2014 वि., 22 अप्रैल, 1957 , मूल्य 20 नए पैसेसम्पादक : तिलक सिंह परमारप्रकाशक -श्री राधेश्याम कपूर, राष्ट्रधर्म प्रकाशन लि.,गौतमबुद्ध मार्ग, लखनऊ (उ.प्र.)राजस्थान के आंचल सेमहावीर-जयंती समारोह में “भगवान बुद्ध”पुस्तक को जब्त करने की मांगजयपुर में महावीर जयंती के उपलक्ष्य में आयोजित एक विशाल सभा में पारित एक विशेष प्रस्ताव द्वारा राजस्थान सरकार में मांग की गई कि “भगवान बुद्ध” नामक पुस्तक की वे सभी प्रतियां जब्त घोषित कर दी जाएं जिनमें महावीर स्वामी को मांसाहारी बताया गया है और उनके प्रति अन्य अपमानजनक उद्गार व्यक्त किए गए हैं। महावीर जयंती समारोह समिति के तत्वावधान में आयोजित उक्त समारोह की अध्यक्षता राजस्थान के नव-नियुक्त वित्तमंत्री श्री हरिभाऊ उपाध्याय ने की।पुस्तक का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हुए श्री भैरों सिंह ने कहा,”” सरकार द्वारा दिए गए इस आश्वासन का कोई अर्थ और मूल्य नहीं है कि पुस्तक में जो आपत्तिजनक वक्तव्य हैं, उनके विपरित मतों को परिशिष्ट रूप में छाप दिया जाएगा। यह अत्यंत खेद का विषय है कि एक ओर तो एक साधारण मुसलमान के आपत्ति उठाने पर देश के प्रधानमंत्री ने “धार्मिक नेता” नामक पुस्तक के बारे में सार्वजनिक रूप से माफी मांगी और दूसरी ओर “भगवान बुद्ध” नामक पुस्तक में से निंदनीय उदाहरण हटाने के लिए भी सरकार तैयार नहीं है।”” 1857 का संग्राम:उत्कट देशभक्ति से प्रेरितडा. सम्पूर्णानंदमुख्यमंत्री, उत्तर प्रदेश1857 से सम्बंधित कागज-पत्रों के आधार पर कुछ प्रख्यात इतिहासकारों ने घोषित किया है कि उस काल की घटनाओं को स्वतंत्र्य-संग्राम की संज्ञा प्रदान करना अनुपयुक्त है। प्रत्येक ज्ञात प्रमाण के आधार पर यह सिद्ध है कि उस वर्ष में जो कुछ हुआ, वह एक सिपाही विद्रोह था।न तो मेरी इच्छा है और न इतनी योग्यता ही कि मैं उक्त विषय के संबंध में उक्त विद्वानों के अनुशोधों का प्रमाणिकता के संबंधों में विचार करूं। कोई ऐतिहासिक अध्ययन उस समय तक नहीं हो सकता जब तक कि संबंधित घटनाओं के पीछे काम करने वाली मनोवैज्ञानिक भूमिका तथा भावना का विचार नहीं किया जाता।सैनिक विद्रोह वेतन बढ़वाने के लिए अथवा सरकार बदलने के लिए राज्य की सशस्त्र सेनाओं द्वारा-सम्पूर्ण रूप में अथवा आंशिक रूप में किया जाने वाला प्रयास होता है। किन्तु जब किसी विदेशी सत्ता के संस्थापन अथवा उच्छेदन के लिए प्रयास किया जाता है तो उसे कठिनाई से ही सैन्य-विद्रोह कहा जा सकता है।केवल इस आधार पर कुछ सिद्ध नहीं होता कि संघर्ष केवल सैनिकों तक सीमित था। यह बात निश्चित है कि इस प्रकार के जन विद्रोहों में भी, जिन्हें विशेषज्ञों द्वारा क्रांति अथवा स्वातंत्र्य-संग्राम की संज्ञा प्रदान की गई है, वास्तविक युद्ध जनता में कुछ भाग तक सीमित रहा है।18
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