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हिंसा और अहिंसा के द्वन्द्व पर चोटहाल ही में “दिशा” संस्था की ओर से नई दिल्ली के श्रीराम सेंटर में प्रख्यात नाटकार-निर्देशक दया प्रकाश सिन्हा के नवीनतम नाटक “रक्त-अभिषेक” की प्रभावी प्रस्तुति हुई। कथानक का कसा हुआ ताना-बाना, छोटे-छोटे चुटीले और व्यंग्य से परिपूर्ण संवाद, कथानक को सजीव रूप में दृश्यमान करती नाट-प्रस्तुति, कलाकारों की वेश भूषा और आकर्षक मंच-सज्जा ने इस नाटक को और अधिक दर्शनीय बना दिया।नाटक मौर्यकालीन इतिहास के कुछ काले पन्नों को उलटता-पलटता हुआ, मगध साम्राज्य के उत्कर्ष से पतन के कारणों को रेखांकित करता हुआ, हिंसा-अहिंसा के द्वन्द्व से गुजरता हुआ अन्तत: विद्रोह और सशस्त्र क्रांति की अपरिहार्यता पर समाप्त होता है। हालांकि नाटक के मंचन में सेनापति पुष्यमित्र का रोल निभा रहे कलाकार (राजीव शर्मा) थोड़े ढीले दिखाई दिए पर अन्य मुख्य पात्रों में राजा वृहद्रथ (जे.पी.सिंह), अन्टोनिया (हरिवन्दर कौर), टाइटस (रोहित त्रिपाठी) और बटुक (प्रवीण कुमार भारती) सभी का अभिनय जानदार और पात्रों के अनुकूल था। नाटक में जब-जब “अहिंसा” को लेकर चर्चा होती है और सेना की आवश्यकता पर ही प्रश्नचिन्ह लगते हैं तो कहीं अदृश्य रूप में गांधी दिखाई देते हैं, कहीं नेहरू। रह-रह कर हमारे कानों में अहिंसा को लेकर गढ़ी गई उथली नीतियों के परिणाम स्वरूप उपजे “चीनी आक्रमण” की चीखें भी गूंजने लगती हैं। -नरेश शांडिल्य21
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