|
इन दिनों बढ़ती महंगाई से मध्यम वर्ग जैसे-तैसे गुजारा कर रहा है तो निम्न आर्थिक वर्ग आधा पेट खाकर रात काट रहा है। रोटी, सब्जी, दाल, चावल किसका दाम पूछिएगा? 20 रु. किलो की दाल 60 रु. और 10 रु. का 2 किलो आलू आज 22 रु. किलो है। आम आदमी सोचने को मजबूर है कि क्या खाए, क्या न खाए। जबसे केन्द्र में संप्रग का राज आया है विशेषकर तबसे दाम आसमान छूने लगे हैं। बढ़ती महंगाई के लिए इस सरकार की नीतियां कितनी दोषी हैं? महंगाई की जड़ कहां है और इसका निदान क्या है? इन्हीं मुद्दों पर अरुण कुमार सिंह ने देश के दो वरिष्ठ अर्थशास्त्रियों से चर्चा की, यहां प्रस्तुत हैं उनके विचारों के प्रमुख अंश। सं.
नई अर्थनीति आए तो महंगाई जाए
-डा. भरत झुनझुनवाला
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री
महंगाई वास्तव में आसमान छू रही है। इस कमरतोड़ महंगाई का एक प्रमुख कारण है अन्तरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमत बढ़ना। जब तेल के दामों में बढ़ोत्तरी हो रही थी उस समय कृषि उत्पादों के दाम घट रहे थे, इसलिए तेल के बढ़े दामों का प्रभाव उतना नहीं दिखता था। पर अब स्थिति बदल चुकी है। कृषि उत्पादों की कीमतें बढ़ रही हैं और तेल के दामों में मामूली कमी आई है। आलू, गेहूं और दालों के मूल्यों में वृद्धि हुई है। मेरे विचार से मौसम के कारण आलू का भाव बढ़ा है। इन दिनों आलू की बुआई का समय है। मांग और आपूर्ति के बीच खाई होने के कारण आलू की कीमत बढ़ रही है, जो आज 22-23 रुपए प्रति किलो तक जा पहुंची है। मुझे लगता है कि नई फसल आते ही आलू की कीमत ठीक हो जाएगी। दालों एवं गेहूं के भाव अवश्य चिन्ता पैदा करने वाले हैं। सच बात यह है कि पूर्व में इन चीजों की कीमतें विश्व बाजार में कम होती थीं और भारत में अपेक्षाकृत ज्यादा। इसलिए यहां के किसान गेहूं और दलहन की फसलें खूब लगाते थे। किन्तु अब हालात बदल गए हैं। कुछ समय पहले तक भारत दालों का निर्यात करता था और अब निर्यात पर पूरी तरह रोक है। गेहूं का भी अन्तरराष्ट्रीय भाव भारत की अपेक्षा ऊंचा है। इसलिए आयातित गेहूं थोड़ा महंगा पड़ता है। अगर अन्तरराष्ट्रीय बाजार में गेहूं की कीमत कम होती तो वे निजी आयातक, जिन्हें सरकार ने कर रहित आयात की अनुमति दी है, गेहूं आयात करते और कीमतें कम हो जातीं। कहने का अर्थ है कि यह मांग और आपूर्ति का खेल है।
मैं मानता हूं कि इस समय बढ़ती महंगाई के पीछे कृषि उत्पादों के बढ़ते दाम कारण हैं। खाद्यान्नों के दाम बढ़ने का मतलब है किसानों को लाभ होना। हम तो हमेशा कहते भी हैं कि सरकार को किसानों पर ध्यान देना चाहिए। तो फिर उनके उत्पादों की मूल्य-वृद्धि पर हायतौबा क्यों? इस मूल्य-वृद्धि को एक-दूसरे नजरिए से देखना होगा। अगर आप पिछले 30 साल के आंकड़ों को देखें तो पता चलेगा कि कृषि उत्पादों के मूल्यों में उतनी वृद्धि नहीं हुई है जितनी कि होनी चाहिए। जबकि अन्य उत्पादों की कीमतों में काफी वृद्धि हुई है। 1985 में मारुति कार मात्र 55,000 रुपए में मिलती थी, अब वही 2,25,000 रुपए से अधिक में बिकती है। 1985 में गेहूं ज्यादा से ज्यादा 4-5 रुपए प्रति किलो मिलता था। अब वही गेहूं 10-12 रुपए प्रति किलो बिक रहा है। इसलिए अन्य उत्पादों की तुलना में कृषि उत्पादों के मूल्यों में और वृद्धि होनी चाहिए। हां, इससे आम उपभोक्ता, विशेषकर दिहाड़ी मजदूरों को कठिनाई अवश्य होगी। पर इससे बचने के अनेक उपाय हैं।
जल्दी ही नई आर्थिक नीति को लागू कर श्रम की मांग बढ़ाई जाए। जैसे, अब फसलों की कटाई मशीन से होने लगी है, इससे खेतिहर मजदूर काम से वंचित हो रहे हैं। सरकार श्रम की मांग भी बढ़ाए और कृषि उत्पादों के मूल्यों में वृद्धि भी करे, तभी दिहाड़ी मजदूरों एवं किसानों दोनों को बचाया जा सकता है।
गरीब की चिन्ता किसी को नहीं
-देवेन्द्र शर्मा
अर्थशास्त्री
आज की परिस्थितियों को देखते हुए लगता है कि महंगाई और बढ़ेगी, क्योंकि सरकार की नीतियां ही ऐसी हैं। अब आलू के बारे में सरकार की मूल्य-नीति देखिए। आलू की बुआई अभी ठीक से शुरू भी नहीं हुई है और सरकार ने आलू की नई फसल के लिए 530 रुपए प्रति कुन्तल मूल्य तय कर दिया है। इसका प्रभाव बाजार पर पड़ेगा। इसी तरह एक पौधा है मेन्था। इसका इस्तेमाल दवाइयों में होता है। अभी पूरे भारत में करीब 100 करोड़ रुपए का मेन्था पैदा होता है, जबकि इसका बाजार लगभग 1000 करोड़ रुपए का है। ये 900 करोड़ रुपए कहां से आए?
ऐसे ही काले चने की बात करें तो सरकार ने लगभग 15 रुपए प्रति किलो चने की कीमत तय की है। पर बाजार में चना लगभग 50 रुपए प्रति किलो बिक रहा है। साफ है कि बाजार भाव बिचौलिए तय करते हैं। इस हालत में महंगाई बढ़ेगी ही। अगर बाजार भाव से किसान लाभान्वित हों तो कोई बुरी बात नहीं, पर इससे तो जमाखोर और बिचौलिए मालामाल हो रहे हैं और बेचारे किसान आत्महत्या कर रहे हैं, रोज कमाने-खाने वाला मजदूर आधी रोटी खाकर सो जाता है। इनकी चिन्ता न तो सरकार को है और न ही सम्पन्न वर्ग को।
यह सम्पन्न वर्ग दोहरी चाल चलता है, एक ओर तो कहता है कि कारों और मकानों की कीमत बाजार तय करें, दूसरी ओर जब साग-सब्जी का भाव बाजार तय करता है तो चिल्लाता है कि महंगाई बढ़ रही है। इस वर्ग से मैं पूछना चाहता हूं कि जब मकान की कीमत बढ़ती है तब क्यों नहीं कहते कि महंगाई बढ़ रही है? ऐसे ही लोगों के कारण किसी महानगर में आम आदमी घर खरीदने के बारे में तो सोच भी नहीं सकता। इसलिए मेरा मानना है कि आटा-दाल और सब्जियों के भाव और बढ़ेंगे तो किसानों को फायदा होगा। पर किसान और बाजार के बीच बिचौलिए नहीं होने चाहिए, अन्यथा आम आदमी पिसता रहेगा और जमाखोर मालामाल होते रहेंगे।
31
टिप्पणियाँ