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संकल्प मंत्र की सनातन धारा
शिव ओम अम्बर
अभिव्यक्ति-मुद्रा
हरे दरख्तों के तले लोग जलाकर आग,सर्दी भर गाते रहे रसिया कजरी फाग।
-देवेन्द्र शर्मा इन्द्र
बेटे का वैभव रहा आसमान को नाप,तिल-तिल जीवन काटते वद्धाश्रम में बाप।
-जय चक्रवर्ती
असहज अकरुण अतिशयी आत्यन्तिकता-ग्रस्त,अधुनातन नर हो गया अति यान्त्रिक अति व्यस्त।
-चन्द्रसेन विराट
रखे शत्रु के लिए भी मैंने भाव पवित्र,फिर तेरी क्या बात है तू तो मेरा मित्र।
-डा. अनंतराम मिश्र अंनत
उसका मुख इक जोत है घूंघट है संसार,घूंघट में वो छुप गया मुख पर आंचल डार।
-बुल्ले शाह
पिछले दिनों फर्रुखाबाद में सम्पन्न हुए विश्व हिन्दू परिषद् के एक कार्यक्रम में श्री प्रवीण तोगड़िया को देखने-सुनने का अवसर उपलब्ध हुआ। लगभग एक घण्टे के उनके सम्बोधन के उत्तराद्र्ध में प्रसुप्त समाज को जागरण के लिए हिलाने-डुलाने की ही नहीं झकझोरने की भी कोशिश की गई थी। उनके इस रूप को टी.वी. पर अनेक बार देखा जा चुका है अत: उसके सन्दर्भ में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। मैं रेखांकित करना चाहता हूं उनके सम्बोधन के पूर्वाद्र्ध को। उस समय वह एक धीर-गम्भीर संस्कृति अध्येता और एक प्रभविष्णु समाज प्रचेता के रूप में हमारे सामने थे तथा आत्मविस्मृत समाज को उसकी अस्मिता का, उसके अभिधान का और उसके आधे-अधूरे पड़े अभियान का बोध करा रहे थे। उन्होंने अपनी चर्चा हर अनुष्ठान में पढ़े जाने वाले संकल्प मंत्र की व्याख्या पर केन्द्रित की और बताया कि हर बार संकल्प मंत्र के उच्चारण के साथ हम अपने इतिहास से, अपने उद्भव के परिज्ञान से और अपनी सनातन परम्परा की अव्याहत धारा से जुड़ जाते हैं। हमारा संकल्प मंत्र हमारे इतिहास, वर्तमान और भविष्य का त्रिवेणी संगम है।
उनके अनुसार हिन्दू समाज अपनी पहचान भूल गया है और अपनी पहचान भूल जाये तो आखेटक सिंह भी स्वयं आखेट बन जाता है! पहचान के इस संभ्रम को दूर करने में हमारे संकल्प-मंत्र एक महती भूमिका निभा सकते हैं। आवश्यकता है कि उनकी अर्थ ध्वनियों पर ध्यान दिया जाए। संकल्प-मंत्र में वैवस्वत मन्वन्तर, जम्बूद्वीप, भरतखण्ड और आर्यावत्र्त के उल्लेख के उपरान्त कुल गोत्र तथा वर्तमान सम्वत्सर आदि का उल्लेख होता है। इस प्रकार हम अनायास अपने “स्व” के स्मरण से संयुक्त हो जाते हैं, आत्मबोध को प्राप्त होकर आत्मगौरव को उपलब्ध होते हैं। प्रवीण तोगड़िया जी ने अपने उद्बोधन में इनमें से हर सन्दर्भ की व्याख्या की। उन्होंने बताया कि 71 महायुगों का एक मन्वन्तर और 14 मन्वन्तरों का एक कल्प होता है। हम सातवें मन्वन्तर में जी रहे हैं और समय की सनातन धारा से सहज संयुक्त हैं। कार्यक्रम में उपस्थित श्रोता राष्ट्र के अक्षांश और देशान्तर के प्रति सचेत होकर महामंगला पुण्यभूमि भारतभूमि के लिए, इसके एक शब्दीय अभिधान हिन्दुत्व के लिए स्वयं को समर्पित करने के संकल्प-मंत्र की यज्ञ दीक्षा ले रहे थे। मेरी चेतना में उस समय राष्ट्रकवि मैथिलीकरण गुप्त की पंक्तियां झिलमिला रही थीं।
हम कौन थे क्या हो गए हैं
और क्या होंगे अभी।
आओ विचारें बैठकर के ये
समस्याएं सभी।
तथा आश्वस्त कर रही थी राष्ट्रकवि दिनकर की भविष्यवाणी-
एक हाथ में कमल एक में धर्मदीप्त विज्ञान
लेकर उठने वाला है दुनिया में हिन्दुस्थान।
काक कहहिं कलकंठ कठोरा
सार्वकालिक महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी के अनेकानेक पंक्तियां विभिन्न घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में अचानक स्मृति में जाग उठती हैं और अपनी प्रासंगिकता को रेखांकित कर देती हैं। “मानस” में उन्होंने कहा है-
हंसहि बक दादुर चातकही,
हंसहि मलिन खल विमल बतकही।
खल परिहास होई हित मोरा,
काक कहहिं कलकंठ कठोरा।
बगुले हंसों की तथा मेढक पपीहों की हंसी उड़ाते हैं, मलिन बुद्धि से युक्त दुष्ट प्रकृति के लोगों के लिए निर्मल बातें उपहास का विषय बनती हैं। (किन्तु) दुष्टों के परिहास से मेरा कल्याण ही होगा, कोयल के स्वर को कौए कठोर कहते ही हैं।
पिछले दिनों जब केन्द्रीय मंत्री अर्जुन सिंह ने सरस्वती शिशु मन्दिरों के ऊपर अनावश्यक प्रहार किया और राष्ट्रवादी चेतना को जगाने वाले उनके शैक्षिक प्रयासों पर प्रश्नचिह्न लगाया, गोस्वामी जी की ऊपर उद्धृत पंक्तियां जैसे अपनी व्याख्या के लिए पुन: उपयुक्त उदाहरण पा गईं। जो लोग सरस्वती शिशु मन्दिरों से थोड़ा भी परिचित हैं उन्हें अर्जुन सिंह जी की विकृत मानसिकता ही उपहास के योग्य नजर आएगी। तुष्टीकरण की घातक प्रवृत्ति हमारे राजनेताओं को क्षुद्रता की किस सीमा तक ले जा सकती है- यह घटना इसे प्रमाणित करती है।
इक भिखारी से तभी मेरी मुलाकात हुई
उस दिन टी.वी. चैनलों पर केन्द्रीय मंत्री महोदय मणिशंकर अय्यर के एक विदेशी राजपरिवार के स्वागत में दिए गए भाषण को सुनकर हर स्वामिभानी नागरिक को ग्लानि का अनुभव हुआ होगा। मंत्री महोदय विदेशी मेहमानों से मदद की गुहार करते हुए कह रहे थे कि मुझे विश्वास है जब मैं भिक्षापात्र लेकर आपके दरवाजे पर पहुंचूंगा, आप उसमें कुछ न कुछ डाल ही देंगे। उन्होंने भारतवर्ष की परम्परा का उल्लेख करते हुए “भवति, भिक्षां देहि” पंक्ति को असम्यक् ढंग से उद्धृत किया। यह पंक्ति वस्तुत: एक विद्यार्थी के द्वारा ब्राह्मचर्याश्रम में प्रवेश करते समय परिवारीजनों से भिक्षा मांगते समय प्राय: प्रयुक्त होती रही है। इसे भारतीय संस्कृति की प्रतीक पंक्ति के रूप में उद्धृत करना एक अल्पज्ञानी की धृष्टता थी! दुष्यन्त कुमार ने कभी कहा था-
खास सड़कें बन्द हैं सारी मरम्मत के लिए,
ये हमारे दौर की सबसे बड़ी पहचान है।
कल नुमाइस में मिला था चीथड़े पहने हुए,
मैंने पूछा नाम वो बोला कि हिन्दुस्तान है।
और नीरज जी आज भी कह रहे हैं-
मैंने पूछा जो मेरे देश की हालत क्या है,
इक भिखारी से तभी मेरी मुलाकात हुई।
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