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बंगाल के राष्ट्रवादी मौलाना रेजाउल करीम ने 1944 में कहा था-

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Mar 9, 2006, 12:00 am IST
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दिंनाक: 09 Mar 2006 00:00:00

जिन्ना-पंथियों के दबाव में कांग्रेस”कांग्रेस यदि जिन्ना-पंथियों को संतुष्ट करने के लिए “वन्देमातरम्” को पूर्णत: हटा भी देती है, तो भी उनमें से एक भी मुसलमान कांग्रेस में शामिल नहीं होगा। कारण, उनका असली उद्देश्य “वन्दे मातरम्” को हटाना नहीं है, यह तो अंग्रेज-प्रेरित देश-विभाजन के षड्यंत्र को सफल बनाने का बहाना मात्र है।”भारतीय भाषाओं में “वन्दना” शब्द विभिन्न रूपों में प्रयुक्त होता है। इस्लाम मजहब इसके प्रयोग के लिए किसी को काफिर नहीं कह सकता। बंगला भाषा के अनेक मुसलमान कवि और लेखकों ने इंसान के बारे में “वंदना” शब्द का प्रयोग किया है, उनकी रचनाएं इसका प्रमाण हैं। इसलिए वे इस्लाम-विरोधी नहीं हो गए। अरबी और फारसी साहित्य के अनेक मुसलमान लेखकों ने बुतपरस्ती के भाव वाली अनेक कविताएं लिखी हैं। इकबाल, हाफज, रूमी, उमर खैयाम ने इससे परहेज नहीं रखा है। “उम्मूलकोरा” (ग्राम्य जननी), “उम्मुलमोमेनीन (विश्वासियों की जननी)” और “उम्मूल केताब” “ग्रंथ जननी” आदि शब्द उल्लेखनीय हैं।”वन्दे मातरम्” भी वैसा ही शब्द है। “वन्दे मातरम्” का उर्दू में या एकेश्वरवाद की दृष्टि में अर्थ होगा “ऐ मादर, तुझे सलाम करता हूं।” किसी भी इस्लामी आदर्श के तहत इसमें आपत्ति करने लायक तो कुछ भी नहीं है। इसमें साष्टांग प्राणिपात (सिजदा) करने को नहीं कहा गया। इस गान में देशमाता को हिन्दू-देवियों से ऊंचा बताया गया है। प्रकारान्तर से इसमें बुतपरस्ती के प्रति वक्रोक्ति है। उल्लेखनीय यह है कि “वन्देमातरम्” के विरुद्ध फतवा इस्लाम धर्म के मर्मज्ञ और कुरान-विशेषज्ञ आलम फाजिलों ने नहीं दिया। फतवा दिया है, कोट-पैण्ट पहनने वाले साहबी ढंग से रहने वाले बैरिस्टरों और राजनीतिज्ञों ने, जिनकों अपने जीवन में कभी मस्जिद के प्रांगण को चरण रज देने की फुर्सत नहीं मिली। खिलाफत युग में मौलाना अकरम, खां, मौलाना मुहम्मद अली, मौलाना सौकत अली, जाफर अली, हरसत मोहानी आदि सब “वन्दे मातरम्” के भक्त थे। तब उन्हें कुरान हदीस में इसके विरुद्ध कुछ नहीं मिला। यदि मिलता तो वे जरूर इसका विरोध करते। फारस के अमरकवि हाफिज ने अपने “अमर ग्रंथ” में आरंभ की एक पंक्ति पापात्मा एंजिद की कविता से ग्रहण की, तो लोग काफी नाराज हो गए। उनका प्रत्युत्तर था- “मोती उठाते समय स्थान का विचार नहीं करना चाहिए।” बात मार्मिक थी और यह “वन्दे मातरम्” पर लागू होती है। मौलाना अकरम खां ने इस बात का विरोध किया है कि देश को “मां” कहकर, संबोधन क्यों किया। लेकिन उनकी मुख्य कृति “मुस्फा” में पृष्ठ 1575 पर जहां अरब देश का भौगोलिक वर्णन है वहां उन्होंने लिखा है-“धारियाछे वक्षे मा गो, कार, पदलेखा,हे अरब मानेवर आदि मातृभूमि।”कवि ने अरब को “मां” कहकर संबोधित किया है। कवि और उद्धरणकर्ता दोनों ही मुसलमान हैं। अरब को मानव की आदि मातृभूमि स्वीकार करने वाले जब भारत में बस गए, तब भारत को “मां” संबोधन करने में इस्लाम क्यों आड़े आता है?(बंकिम चन्द्र और मुसलमान समाज के आठवें अध्याय से उद्धृत, 18 मई, 1944, 91-बी, सिमला स्ट्रीट, कोलकाता से प्रकाशित)18

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