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…और इसके विरोधी-असीम कुमार मित्रराष्ट्रगीत वन्दे मातरम् को लेकर फिर से माहौल गर्म हो उठा है। केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने अपने ताजा बयानों से राष्ट्रवादियों को (इनमें अनेक मुसलमान भी शामिल हैं) विक्षुब्ध कर दिया है। उन्होंने पहले तो यह कहा कि 7 सितम्बर, 2006 को देश के सभी शिक्षा प्रतिष्ठानों में राष्ट्रगीत वन्दे मातरम् की शताब्दी के उपलक्ष्य में इसे गाया जाय। मुसलमानों के एक वर्ग ने, विशेषकर दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम अहमद बुखारी ने इस पर अपना विरोध प्रकट करते हुए कहा कि हम यह गीत नहीं गा सकते, क्योंकि यह शरीयत के विरुद्ध है। कई स्कूलों ने भी इस गीत का विरोध किया। इससे घबराकर अर्जुन सिंह ने अपना बयान बदलते हुए कहा कि राष्ट्रगीत गाने की कोई बाध्यता नहीं है, जिसकी इच्छा न हो वह न गाए।इस बयान के विरुद्ध देशभर में विरोध की लहर दौड़ गयी। भाजपा उपाध्यक्ष मुख्तार अब्बास नकवी ने कहा, “जो वन्दे मातरम् गीत नहीं गाना चाहते वह इस देश से बाहर चले जाएं।” शिवसेना ने कहा, “वन्दे मातरम् के विरोधी देशद्रोही हैं।” विश्व हिन्दू परिषद् ने कहा कि वन्दे मातरम् न गाने वालों पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया जाय। कुल मिलाकर वन्दे मातरम् गीत पर पक्ष, विपक्ष दोनों में ही उग्र भावनाएं दिखी हैं। ऐसा क्यों? यह जानने के लिए इतिहास पर नजर डालनी जरूरी है।सबसे पहले प्रश्न उठता है कि वन्दे मातरम् की शताब्दी अब क्यों मनाई जा रही है? वह तो बहुत पहले ही गुजर चुकी है। 1884 में बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा लिखे गए आनन्दमठ उपन्यास में वन्दे मातरम् गीत प्रकाशित हुआ था। परंतु इसके पहले ही एक स्वतंत्र गीत के रूप में बकिम चंद्र द्वारा ही संपादित “बंगदर्शन” पत्रिका में यह छपा था। इस गीत को राष्ट्रीय आन्दोलन के साथ पहले से ही जोड़ा जा चुका था। यानी “आनन्दमठ” प्रकाशित होते ही राष्ट्रीय स्वतंत्रता के क्रांतिवीरों ने इसे अपने शौर्य गीत के नाते स्वीकार कर लिया था तथा वन्दे मातरम् उनका नारा बन गया था। सन् 1896 में कोलकाता में हुए कांग्रेस अधिवेशन में लोकमान्य तिलक आये थे और उस अधिवेशन का शुभारम्भ इसी गीत से हुआ था। स्वयं रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने इस गीत को संगीतबद्ध करके अपने द्वारा बनाए गए सुर में गाया था। वन्दे मातरम् गीत का वह पहला गायन था। इसके बाद इस गीत का सबसे ज्यादा प्रचार हुआ सन् 1905 में, जब बंगभंग विरोधी आन्दोलन छिड़ा था। इसलिए वन्दे मातरम् गीत की शताब्दी तो सन् 1996 में ही हो गयी थी। और अगर इस गीत की प्रकाशन तारीख को मानें तो इस दृष्टि से शताब्दी सन् 1984 में बंगाल में मनायी जा चुकी है। फिर भी मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने संसद में यह घोषित किया कि सर्वदलीय बैठक में यह शताब्दी मनाने का निश्चय किया गया है।ऐसे में एक और संभावना के बारे में विचार करना आवश्यक हो गया है। 8 नवंबर, 1905 को पूर्वी बंगाल के मुख्य सचिव ने इस गीत पर प्रतिबंध लगा दिया था। सरकारी आदेश में कहा गया था कि सरकारी कर्मचारी अगर वन्दे मातरम् का नारा लगाएंगे तो उनकी नौकरी चली जाएगी। यहां तक कि किसी ऐसे जुलूस में शामिल होने पर भी सरकारी नौकरी खोनी पड़ेगी जिसमें यह नारा लगाया गया हो। छात्रों ने अगर ऐसा साहस किया तो स्कूल अथवा कालेज से उसे बहिष्कृत किया जाएगा। इसके अलावा जेल की सजा भी भुगतनी पड़ेगी। लेकिन आन्दोलनकारियों ने इस प्रतिबन्ध को न मानते हुए अपना आन्दोलन जारी रखा।सन् 1906 में पूर्वी बंगाल के बारीसाल जिला कांग्रेस के अधिवेशन के उपलक्ष्य में एक शोभायात्रा निकाली गयी जिसका नेतृत्व अब्दुल रसूल नाम के एक स्थानीय कांग्रेसी नेता ने किया था। उस शोभायात्रा में बिपिन चन्द्र पाल, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, मोतीलाल घोष आदि ने भाग लिया था। वन्दे मातरम् बोलने पर प्रतिबंध के बावजूद सभा में सभी ने अपने सीने पर वन्दे मातरम् का बिल्ला लगाया था। इस शोभायात्रा को रोकने के उद्देश्य से अंग्रेजों ने 300 गोरखा सैनिक तैनात किए थे। वहां एक घर की दीवार पर वन्दे मातरम् लिखा था। सेना ने उस घर को ध्वस्त कर दिया। एक 10 वर्ष के बच्चे के हाथ-पैर बांधकर बेरहमी से पीटा गया। जब सेना ने शोभायात्रा पर लाठीचार्ज शुरू किया तो अब्दुल रसूल ने नारा लगाया वन्दे मातरम्- बाकी सभी ने उस नारे को दोहराया। अत्याचार जितना बढ़ता गया, वन्दे मातरम् की आवाज उतनी ही बुलंद होती गयी। स्वदेशी आन्दोलन के तत्कालीन वरिष्ठ नेता मनोरंजन गुहा ठाकुर के किशोर पुत्र चित्तरंजन को सेना ने पीटते-पीटते एक तालाब में गिरा दिया। तालाब में गिरने के बावजूद अंग्रेज सैनिक चित्तरंजन को पीटते ही रहे। आखिरी दम तक चित्तरंजन वन्दे मातरम् बोलता रहा। यह समाचार धीरे-धीरे सारे देश में फैला और वन्दे मातरम् नारे को एक राष्ट्रीय पहचान मिली। अगर इस दृष्टि से आज वन्दे मातरम् गीत की शताब्दी मनायी जा रही हो तो ठीक है। परंतु इसे स्पष्ट किया जाना चाहिए और उसका प्रचार भी होना चाहिए।सन् 1896 में कोलकाता में ही नहीं वरन् सन् 1905 में जब वाराणसी में कांग्रेस अधिवेशन हुआ था, तब भी रवीन्द्रनाथ ठाकुर की भांजी सरला देवी ने वन्दे मातरम् गीत गाया था। सन् 1906 में राष्ट्रवादी आन्दोलन को संपूर्ण देश में फैला देने के उद्देश्य से वन्दे मातरम् के नाम से बिपिन चन्द्र पाल ने एक अंग्रेजी दैनिक समाचार पत्र शुरू किया। उस पत्रिका में अरविन्द घोष ने लिखा कि वन्दे मातरम् एक महामंत्र है। इस मंत्र के उद्गाता बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय को अरविन्द ने ही “ऋषि” नाम से विभूषित किया।सन् 1905 में कोलकाता में एक समिति बनी, जिसका नाम था “वन्दे मातरम् सम्प्रदाय”। प्रत्येक रविवार को इस सम्प्रदाय के सदस्य वन्दे मातरम् गीत गाते हुए मार्गों की परिक्रमा करते थे। कवि द्विजेन्द्रलाल राय, (जिन्होंने “धनधान्य पूष्पे भरा आमादेर एई वसुन्धरा…” गीत लिखा था) रवीन्द्रनाथ ठाकुर आदि नियमित रुप से इस परिक्रमा में भाग लेते थे।पंजाब केसरी लाला लाजपत राय ने भी वन्दे मातरम् नाम से एक उर्दू पत्रिका का प्रकाशन शुरु किया था। भगिनी निवेदिता के भक्त कवि सुब्राह्मण्यम भारती ने भी वन्दे मातरम् मंत्र से प्रेरित होकर तमिल भाषा में देशभक्ति पूर्ण कविताएं लिखना शुरु किया था। कुछ समय बाद पुणे से भी “वन्दे मातरम्” पत्रिका का प्रकाशन होने लगा। सन् 1908 में लोकमान्य तिलक को गिरफ्तार करके पुलिस ने जब उन्हें अदालत में हाजिर किया तो वहां उपस्थित हजारों लोगों ने वन्दे मातरम् के गगनभेदी नारे लगाए। सन् 1905 के पहले ही कन्नड़ भाषा में “आनन्दमठ” का अनुवाद हो चुका था इसलिए वन्दे मातरम् यहां 1905 के पहले ही पहुंच गया था। 28 अक्तूबर, 1907 को नागपुर के नील सिटी हाई स्कूल में “स्कूल इंस्पेक्टर” के निरीक्षण के दौरान विद्यार्थी केशव बलिराम हेडगेवार के नेतृत्व में छात्रों ने वन्दे मातरम् के नारे लगाए। बौखलाकर “स्कूल इन्सपेक्टर” स्कूल छोड़कर चला गया। परिणाम यह हुआ कि सभी छात्रों को दंड भुगतना पड़ा। केशव को स्कूल से निकाल दिया गया। इसी बालक केशव ने आगे चलकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नामक महान संगठन स्थापित किया।विदेशों में भी वन्दे मातरम् की गूंज सुनाई देने लगी। 10 मई, 1908 को लन्दन में वीर सावरकर व लाला हरदयाल ने भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857) की स्वर्ण जयंती मनायी। इस जयंती का शुभारंभ भी वन्दे मातरम् गीत से ही हुआ था। इस उपलक्ष्य में छापे गए आमंत्रण पत्र के ऊपर वन्दे मातरम् लिखा था। सन् 1857 के बाद लन्दन में रहने वाले अधिकांश भारतीय छात्र वन्दे मातरम् संकेतक लगाकर रास्तों में निकलते थे। भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लेने वाली मादाम भीखा जी कामा ने जो पहला तिरंगा झंडा बनाया था, उसके बीच में भी वन्दे मातरम् लिखा था। अर्थात् वन्दे मातरम् का प्रभाव देश-विदेश में फैल चुका था।इस संदर्भ में एक प्रसंग महत्वपूर्ण है। वन्दे मातरम् गीत जब पहली बार प्रकाशित हुआ था तो बंकिम चन्द्र के कुछ मित्रों ने उन्हें कुछ असन्तोष के साथ बताया कि संस्कृत भाषा में लिखे गए गीत के अन्दर बंगला भाषा की कुछ पंक्तियों को क्यों घुसा दिया? यह आपने अच्छा नहीं किया। बंकिम ने दृढ़ता के साथ जवाब दिया था, “इस गीत का मर्म तुम अभी समझ नहीं पाओगे। अगर तुम 25 वर्ष और जीवित रहोगे तो समझ सकोगे की इस गीत का असली अर्थ क्या है?” और सचमुच 25-30 वर्ष के अन्दर ही लोगों को यह पता चल गया था कि कितना प्रभावशाली है यह गीत। वास्तव में बंगभंग विरोधी आन्दोलन, जो केवल बंगाल में सीमित न रहकर संपूर्ण भारत में फैल गया था, उसके पीछे वन्दे मातरम् राष्ट्रगीत की बहुत बड़ी भूमिका थी।किन्तु दु:खद पहलू यह है कि कांग्रेस ने खिलाफत आंदोलन के समय से ही इस गीत के साथ कुत्सित राजनीति शुरु कर दी। मुस्लिम लीग के जन्म के बाद ही मुसलमानों के एक बड़े हिस्से के तेवर बदल चुके थे। लीगी मुसलमान वन्दे मातरम् गीत का विरोध करने लगे। उनका कहना था कि वन्दे मातरम् गीत के अन्दर हिन्दू देवी-देवताओं के नाम हैं, जिनका उच्चारण करना शरीयत के खिलाफ है। सन् 1923 में आंध्र प्रदेश के काकीनाडा में कांग्रेस का अधिवेशन था। पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर द्वारा वन्दे मातरम् के गायन के साथ अधिवेशन का शुभारंभ होने वाला था। पलुस्कर जी वन्दे मातरम् गाने के लिए ज्यों ही मंच पर आये, अधिवेशन के अध्यक्ष सैयद मुहम्मद अली ने वन्दे मातरम् गायन का प्रतिवाद किया। किन्तु पलुस्कर जी गायन के लिए अड़े रहे। परिणामत: मुहम्मद अली चलते बने। वन्दे मातरम् गीत के प्रति इस असम्मान की कल्पना भी किसी ने नहीं की थी। सन् 1896 में कोलकाता में हुए अधिवेशन में पहली बार वन्दे मातरम् गीत रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा गाया गया था तब उस अधिवेशन की अध्यक्षता कर रहे थे मोहम्मद शमिमुल्लाह। उन्होंने न केवल वन्दे मातरम् के प्रति आदर प्रकट किया बल्कि मुसलमानों को भी उन्होंने साथ में रखा था। उस दिन उनको यह नहीं लगा था कि वे कोई शरीयत विरोधी कार्य कर रहे हैं। परंतु 27 वर्ष बाद अंग्रेजों द्वारा उकसाए जाने के कारण कुछ लोगों ने वन्दे मातरम् का अपमान किया। इतना ही करके वे नहीं रुके। “आनन्दमठ” की सैकड़ों प्रतियां खुलेआम जलायी गईं। आगे यह सिलसिला बढ़ता गया। हमेशा की तरह कांग्रेस दब गयी। मुसलमानों को खुश रखने के लिए कांग्रेस ने प्रस्ताव रखा कि उस गीत के अन्दर जहां”त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी,कमला कमलदलविहारिणीवाणी विद्यादायिनी नमामि त्वां…आदि कहा गया है, उसे मूल गीत से निकाल दिया जाएगा और खंडित वन्दे मातरम् गीत गाया जायेगा। यह न केवल वन्दे मातरम् गीत का अपमान था, वरन् सरासर भारतमाता का अपमान था। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस उस समय कार्शियांग में थे। उन्होंने कांग्रेस के इस प्रस्ताव से दु:खी होकर रवीन्द्रनाथ ठाकुर तथा रामानन्द चट्टोपाध्याय (माडर्न रिव्यू पत्रिका के विख्यात संपादक) को इस विषय में कुछ करने के लिए पत्र द्वारा अनुरोध किया। सुभाष बाबू ने पंडित जवाहर लाल नेहरू को भी पत्र लिखकर यह अनुरोध किया कि वन्दे मातरम् गीत को खण्डित न किया जाय। परंतु उनके सभी प्रयास व्यर्थ चले गये।28 अक्तूबर, 1937 को कोलकाता में कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि कांग्रेस के किसी कार्यक्रम या अधिवेशन में अगर वन्दे मातरम् गीत गाया जाएगा तो इस गीत के केवल प्रथम दो चरण ही गाए जाएंगे। जिस कोलकाता में वन्दे मातरम् गीत को राष्ट्रीय गीत का मान मिला था वहीं पर कांग्रेस ने उसका गला भी घोंट दिया।बंगाल के साहित्यकारों तथा बुद्धिजीवियों ने कांग्रेस कार्यकारिणी के इस प्रस्ताव का तीव्र विरोध किया। उन्होंने महात्मा गांधी को भी पत्र लिखा। परंतु सब व्यर्थ गया, परिस्थिति ज्यों की त्यों ही बनी रही। किन्तु जिस आशा के साथ कांग्रेस ने राष्ट्रीय गीत वन्दे मातरम् का गला घोंटा था, क्या वह आशा पूरी हो पाई? क्या कांग्रेस मुसलमानों का मन जीत पाई? और तो और मोहम्मद अली जिन्ना ने अपने 11 सूत्री मांग पत्र में पहली मांग रखी कि वन्दे मातरम् राष्ट्रीय गीत को पूरी तरह वर्जित करना पड़ेगा।सन् 1947 में देश स्वतंत्र हुआ। प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने वन्दे मातरम् के मुद्दे पर चुप्पी साध ली और “जन गण मन..” को राष्ट्र गान घोषित कर दिया गया। 1947 में संयुक्त राष्ट्र संघ की न्यूयार्क में आयोजित एक सभा में भारत के राष्ट्रगान के रूप में बिना किसी आम सहमति या संवैधानिक व्यवस्था के “जन गण मन…” गीत गाया गया। भारतीय संविधान में पहले तो राष्ट्रीय गीत के बारे में कुछ भी उल्लेख नहीं किया गया था किन्तु सन् 1949 के नवम्बर महीने में संविधान पूर्ण होने के दो महीने बाद 14 जनवरी, 1950 को संविधान सभा की बैठक में राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने यह घोषित किया कि राष्ट्र गान के रूप में “जन गण मन…” तथा “वन्दे मातरम्” का बराबर सम्मान रहेगा। लेकिन क्या ऐसा हो पाया? इस तरह से मुस्लिम तुष्टीकरण नीति के सामने वन्दे मातरम् को बलि का बकरा बनाया गया।”आनन्दमठ” जलाकर कट्टरपंथी मुसलमान जब जश्न मना रहे थे, उस समय बंगाल के राष्ट्रवादी मुस्लिम नेता तथा कवि रेजाउल करीम ने लिखा था, “आनन्दमठ” के विरुद्ध जो आन्दोलन शुरू किया गया है, वह कोई मुसलमानों का दु:ख दूर करने के लिए नहीं है, वरन् इसका मूल उद्देश्य मुसलमानों को स्वतंत्रता संग्राम से अलग करना है। यह सब (वन्दे मातरम् का विरोध) उसी दुरभिसन्धि का ही नतीजा है।”9
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