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विचार-गंगा

by
Mar 9, 2006, 12:00 am IST
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दिंनाक: 09 Mar 2006 00:00:00

विकास नहीं, विनाश की ओर दौड़ता भारतदेवेन्द्र स्वरूपदीपावली का त्योहार सामने खड़ा है, पर उसका उल्लास गायब है। एक औपचारिकता मात्र निभाने की कोशिश हो रही है। गृहणियों के चेहरे उदास हैं। धनतेरस पर मनचाही वस्तुएं खरीदने की स्थिति में वे नहीं हैं। महंगाई आसमान छू रही है। विजयादशमी के पर्व पर हमारे यहां पूजन के समय रोजमर्रा की जरूरतों के बाजार भाव लिखे जाते हैं। इस प्रकार एक ही कापी में पिछले 25 वर्षों के बाजार भाव लिपिबद्ध हैं। इस बार पूजन के समय जब पिछले सात-आठ वर्षों के भावों की तुलना की तो हम सब चौंक गये। हमने पाया कि राजग के छह वर्ष के लम्बे शासन में अधिकतम भाव वृद्धि 15 प्रतिशत हुई थी जबकि कांग्रेसनीत कम्युनिस्ट समर्थित संप्रग के ढाई वर्ष के शासनकाल में यह वृद्धि दो से तीन गुना हो गयी है। आये दिन समाचार पत्रों में पढ़ने को मिलता है कि गरीबी से तंग आकर किसी मां ने भूख से बिलबिलाते अपने बच्चों के साथ आत्महत्या कर ली। किसानों की आत्महत्या की संख्या तो अब हजारों में पहुंच चुकी है।किन्तु प्रचार के मोर्चे पर हमें बताया जा रहा है कि देश आर्थिक विकास की छलांगें लगा रहा है और विश्व में एक आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभर रहा है। हम पढ़ते हैं कि इस समय देश में 83,000 अरबपति हो गये हैं, करोड़पतियों और लखपतियों की संख्या तो लाखों में पहुंच गयी है। विश्व के धनपतियों की सूची में भारतीय मूल के उद्योगपति काफी ऊपर हैं। भारतीय कम्पनियां अब विश्व में अपने पैर फैला रही हैं, विदेशी कम्पनियों को खरीद कर वे स्वयं बहुराष्ट्रीय कम्पनियां बन गयी हैं। अब भारत को विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का डर नहीं रहा है, बल्कि विश्व को भारतीय बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का भय सताने लगा है। हमें बताया जा रहा है कि इंग्लैंड, अमरीका जैसे विकसित देशों की नौकरियां खिंच कर भारत आ रही हैं। अमरीकी बच्चे अब भारतीय शिक्षकों से इन्टरनेट पर टूशन ले रहे हैं। विदेशी रोगी भारत में इलाज के लिए दौड़े चले आ रहे हैं। भारतीय डाक्टर, इंजीनियर, सूचना-प्रौद्योगिक पूरे विश्व में सर्वोत्तम सिद्ध हो रहे हैं। सब पर छाये हुए हैं। भारतीय उद्योगपतियों में स्पर्धा लगी है कि कौन किससे आगे बढ़ता है। कभी प्रेमजी अजीम आगे होते हैं तो कभी मुकेश अम्बानी। प्रत्येक कम्पनी भारी मुनाफे की सार्वजनिक घोषणा कर रही है।करोड़ों हाथ बेरोजगार क्यों?शहरीकरण की रफ्तार तेज हो रही है। देश में मध्यम वर्ग का विस्तार द्रुत गति से हो रहा है। शहरों में पश्चिमी नमूने के बड़े-बड़े माल, मल्टीप्लेक्सेस, पंच सितारा होटलों और गगनचुम्बी अट्टालिकाओं की संख्या तेजी से बढ़ रही है। टेलीविजन चैनलों और दैनिक पत्रों को देखकर लगता है कि रोटी, कपड़ा और मकान की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के संघर्ष से मुक्ति पाकर अब देश फैशन परेडों, बड़ी कारों, नाइट क्लबों, शराब पार्टियों, मोबाइल, लैपटाप, सौन्दर्य प्रतियोगिताओं की दुनिया में पहुंच गया है। गांव-गांव तक मोबाइल पहुंचने के आंकड़े परोसे जा रहे हैं। यह सब देख पढ़कर लगता है कि भारत में स्वर्ग उतर आया है, वह गरीबी रेखा को कब का पार कर चुका है। अब तो केवल जिन्दगी की रंगीनियां लूटने का समय आ गया है। इस लूट में कौन किससे आगे है यही देखते रहिए।पर, यदि हम परीलोक में नहीं हैं, यही हमारे देश का यथार्थ है तो फिर ये आत्महत्याएं क्यों? कमरतोड़ महंगाई क्यों? करोड़ों हाथ बेरोजगार क्यों? पेट भरने के लिए विदेशों से गेहूं का आयात क्यों करना पड़ रहा है? भारत में गरीबी रेखा के नीचे परिवारों की संख्या क्यों बढ़ती जा रही है? राष्ट्रसंघ मानवाधिकार परिषद द्वारा जेनेवा में 22 सितम्बर को प्रकाशित रपट के अनुसार 1990 में भारत के 30 प्रतिशत बच्चे अपनी आयु के वजन से कम थे, जो अब यह प्रतिशत बढ़कर 46 हो गया है। 80 प्रतिशत स्त्रियां और बच्चे कुपोषण का शिकार हैं।ऐसा प्रतीत होता है कि दिल्ली में बैठे जो मस्तिष्क भारत के आर्थिक विकास की योजनाएं बना रहे हैं वे भारत के यथार्थ से परिचित नहीं हैं और केवल विकास के पश्चिमी मानकों को ही अन्तिम सत्य मान बैठे हैं। उनकी दृष्टि में सेनसेक्स की उछाल और औसत राष्ट्रीय उत्पाद (जी.एन.पी.) के आंकड़े ही राष्ट्र की आर्थिक प्रगति के मापदंड हैं। उद्योगों का विस्तार, उनसे पूंजी का उत्पादन, कुछ धनपतियों के पास उस पूंजी का एकत्रीकरण, सूचना प्रौद्योगिकी का अंधाधुंध विस्तार, विदेशी पूंजी का आगमन और पश्चिमी माडल का शहरीकरण ही उनकी दृष्टि में आर्थिक विकास के लक्षण हैं। वे गांधी, लोहिया और दीनदयाल उपाध्याय ने आर्थिक विकास का जो निष्कर्ष प्रस्तुत किया था, उसे या तो जानते नहीं या भूल चुके हैं। विकास की वास्तविक कसौटी है समाज के अन्तिम छोर पर खड़ा निर्वस्त्र, अनिकेत भूखा प्राणी। उस तक विकास का फल पहुंचा कि नहीं? उसे दो जून का पेट भर भोजन मिला कि नहीं? क्या वह अभी भी फुटपाथ पर रात काटने को मजबूर है? क्या उसे तन ढकने भर का कपड़ा भी मुअस्सर नहीं है? और इसीलिए प्रत्येक नागरिक की “रोटी कपड़ा और मकान” की न्यूनतम आवश्यकताएं जो विकास प्रक्रिया पूरी न कर सके उसे विकास नहीं, विनाश ही कहा जा सकता है।भारतीय परंपरा ने समाज के आर्थिक जीवन के चार आधार बताये हैं- कृषि, शिल्प, वाणिज्य और पशुपालन। इन चारों का ही समान रूप से विकास किसी राष्ट्र को स्वावलंबी एवं सुदृढ़ बनाने के लिए अनिवार्य है। इसी में से नारा निकला, “हर हाथ को काम, हर खेत को पानी” किन्तु भारत का वर्तमान शासक वर्ग आर्थिक विकास के इन सूत्रों को भूल चुका है। वह पश्चिमी सोच के विकास के रास्ते पर आंख मूंद कर दौड़ पड़ा है। वह श्रम की प्रतिष्ठा के बजाय मशीनीकरण को ही मानव विकास का लक्षण मान बैठा है। वह उस दिन के सपने देख रहा है जब मनुष्य बिना हाथ हिलाये केवल खा पी कर नाच रहा होगा और रोबोट उसका सब काम कर रहे होंगे।जन असन्तोषविलास में डूबी इस मशीनी सभ्यता का प्रकृति के संतुलन और पर्यावरण पर जो उल्टा असर हो रहा है, उसके गर्भ में आत्मनाश के जो बीच छिपे हैं, अभी इन दूरगामी और मूलगामी प्रश्नों को किनारे रख दें तो भी भारत के आर्थिक विकास की कोई भी दिशा उसके यथार्थ की ओर से आंखें मूंद कर सफल नहीं हो सकती है। आखिर क्यों ढाई साल तक शासन करने के बाद भारत के प्रधानमंत्री को अब यह कहना पड़ रहा है कि हमने ग्रामीण क्षेत्रों की उपेक्षा की है, हमारी कृषि नीति गलत रही है। यह स्वीकारोक्ति सच्चे मन से निकली है या यह भी जन असंतोष को ठंडा करने की चाल मात्र है? यदि यह हार्दिक अनुभूति है तो आर्थिक नीति में आमूलचूल परिवर्तन करना होगा। कृषि और ग्रामीण विकास को प्राथमिकता देनी होगी। औद्योगिक विकास का विकेन्द्रीकरण एवं ग्रामीकरण करना होगा। नीतियों को ग्राम प्रधान बनाना होगा। किसानों की आत्महत्या के समाचारों से उत्पन्न जनरोष को ठंडा करने के लिए प्रधानमंत्री खजाने से किसानों को खैरात बांटना उसका उपाय नहीं है। उसके लिए एक स्वस्थ दूरगामी कृषि नीति अपनानी होगी।भारत की अर्थव्यवस्था आज भी विकेन्द्रित है। गांवों में छोटे-छोटे किसान अन्न का उत्पादन करते हैं, उनके खेतों के सहारे बड़ी संख्या में खेतीहर मजदूर पलते हैं, छोटे-छोटे दुकानदार, रेहड़ी वाले, खोमचे वाले, मुहल्लों-मुहल्लों में जाकर नाममात्र का नफा कमा कर माल बेचते हैं। पर वहीं देश का शासक दल मुहल्लों में खोमचे-रेहड़ी वाले के प्रवेश पर रोक लगा रहा है। खुदरा व्यापरियों को उजाड़ने में लग गया है। रिक्शा चलाने को कानूनी अपराध ठहरा रहा है। शहर को स्वच्छ व सुन्दर बनाने के नाम पर रिहायशी बस्तियों में छोटी-छोटी दुकानें चलाकर पेट भर रहे व्यापारियों को उखाड़ा जा रहा है। कई बार लगता है कि न्यायपालिका में बैठे हमारे न्यायमूर्तिगण भी हमारे सामाजिक यथार्थ से अनभिज्ञ हैं। दिल्ली में जो कुछ हो रहा है वह इसी अनभिज्ञता की झलक है। वे भूल जाते हैं कि कुछ हाथों में पूंजी का एकत्रीकरण खतरनाक होता है। उसमें से एकाधिकार और शोषण की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है। एक ओर खुदरा व्यापारियों को, खोमचे -रेहड़ी वालों को उखाड़ा जा रहा है दूसरी ओर अम्बानी और टाटा आदि बड़े पूंजीपतियों को खुदरा बाजार में प्रवेश की सुविधाएं दी जा रही हैं। माल संस्कृति को बढ़ावा दिया जा रहा है। गुड़गांव और दिल्ली की माल संस्कृति का जिन्हें थोड़ा भी अनुभव है वे जानते हैं कि यह संस्कृति भारत के लिए पूरी तरह अनुपयुक्त है। इन टीपटाप वाले भारी भरकम मालों में उत्पाद की कीमत डोढ़ी-दुगुनी हो जाती है। जबकि छोटा दुकानदार या मुहल्ले में रेहड़ी लगाने वाला उससे बहुत कम नफे पर माल बेचता है। यह सीढ़ीनुमा आर्थिक जीवन ही भारत की विशेषता और ताकत है। इसे तोड़ना आत्मघात को निमंत्रण देना है।विशेष आर्थिक क्षेत्रहमारे शासकों की सोच को समझने के लिए उनकी दो योजनाओं का उल्लेख काफी है। एक योजना है जिसे विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) नाम दिया गया है। वाणिज्य मंत्रालय की पहल पर 2005 में एक कानून पास करके देशभर में 181 विशेष आर्थिक क्षेत्रों को औपचारिक मान्यता दी जा चुकी है और अन्य 128 को सिद्धान्त: मान्यता मिल गयी है। विशेष आर्थिक क्षेत्र का मतलब होता है किसी बड़े उद्योगपति को हजारों एकड़ खाली भूमि देकर उस पर आधुनिक शैली के माल आदि खड़ा करने की सुविधा देना। उदाहरणार्थ, हरियाणा की कांग्रेस सरकार ने मुकेश अंबानी की रिलाएंस कम्पनी को विशेष आर्थिक क्षेत्र के नाम पर 25000 एकड़ भूमि का आश्वासन दे दिया। हरियाणा में तो एक एकड़ भूमि भी बंजर नहीं कही जा सकती। अत: कृषि योग्य भूमि ही उन्हें देना होगा। इसका हरियाणा के कांग्रेस जन भी विरोध कर रहे हैं। इन विशेष आर्थिक क्षेत्रों के लिए 1,25000 हेक्टेयर (जो एकड़ से बड़ा होता है) भूमि किसानों से छीन कर देनी होगी। भारत सरकार का अपना वित्त मंत्रालय व ग्रामीण विकास मंत्रालय इस योजना का विरोध कर रहे हैं। पर प्रधानमंत्री ने पत्रकारों को कहा कि विशेष आर्थिक क्षेत्रों की योजना अब टिक गयी है, उसे समाप्त नहीं किया जा सकता। हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हूडा ने अपने आलोचकों को निरुत्तर करने के लिए कहा कि इस योजना को सोनिया जी की सहमति मिल चुकी है। चारों ओर के प्रबल विरोध से घबराकर अब कहा जा रहा है कि विशेष आर्थिक क्षेत्रों के लिए कृषि-भूमि नहीं दी जायेगी। किन्तु प्रश्न उठता है कि इतनी बड़ी मात्रा में कृषि के लिए अयोग्य या बंजर भूमि देश में है कहां? और यदि है तो उसे कृषि योग्य क्यों नहीं बनाया जा सकता? क्या अन्नोत्पादन को बढ़ाने की आवश्यकता नहीं है? उद्योगों का विकास और पूंजी का उत्पादन बहुत आवश्यक है, किन्तु उनका विकेन्द्रीकरण और अधिक से अधिक हाथों में वितरण भी उतना ही आवश्यक है।इनका भरण-पोषणऐसी ही एक दूसरी योजना है बाल श्रम का निवारण। विदेशी धन पर पल रहे कुछ तथाकथित समाज सुधारकों ने शोर मचा दिया कि बच्चों को विद्यालय भेजने के बजाय उनसे मजूरी कराना उनका शोषण है, उनके प्रति अन्याय है। उन्होंने शोर मचाकर बाल श्रम निवारक कानून भी पास करा दिया। एक सज्जन ने तो समाज सुधार की इस महान उपलब्धि के लिए अपना नाम नोबल पुरस्कार के लिए उछलवा दिया। किन्तु अब समस्या है कि ऐसे 50 लाख से अधिक बच्चों के भरण पोषण की व्यवस्था कहां से होगी, उनकी आय पर पलने वाले उनके परिवारों का पेट कहां से भरेगा। यह सच है कि अक्षरज्ञान से ज्ञान प्राप्ति का रास्ता खुलता है किन्तु निरा अक्षरज्ञान ही पेट नहीं भर सकता। आज जब शिक्षित बेरोजगारों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है, श्रम की प्रतिष्ठा घटती जा रही है तब गांधी जी की इस शिक्षा नीति पर गंभीरता से विचार करना आवश्यक है कि शिक्षा को भी श्रम प्रधान होना चाहिए और शिक्षार्जन के साथ ही धनार्जन भी होना चाहिए। यह तो समझ में आ सकता था कि ये तथाकथित समाज सुधारक बाल श्रमिकों को अक्षरज्ञान देने का विशेष प्रयास करते, उनके शोषण को रोकने का वातावरण पैदा करते। ऐसे बच्चों के प्रति समाज के मन में संवेदना व करुणा का भाव जगाते किन्तु सरकारी कानून बनवाकर वे अपनी पीठ तो ठोक सकते हैं, किन्तु इन बच्चों और परिवारों को भुखमरी के मुंह में धकेलने का महापाप भी कर रहे हैं। वे पश्चिम के श्रम विमुख मशीनी समाज का अन्धानुकरण करके क्या भारत में भी मोटापे की बीमारी को फैलाना चाहते हैं?पर्यावरण, पारिस्थितिकी एवं भारतीय यथार्थ को सामने रखकर आर्थिक विकास की दिशा के बारे में नये सिरे से विचार करना ही आज की आवश्यकता है द (19 अक्तूबर, 2006)वन्दे मातरम्वन्दे मातरम् …और इसके विरोधी – असीम कुमार मित्रहां! हम गाते हैं वन्दे मातरम् – दिल्ली ब्यूरोवन्दे मातरम् गाने से मेरा इस्लाम खतरे में नहीं पड़ता -शबनम शेख, अधिवक्ता, सर्वोच्च न्यायालयभारत मां मेरी मां है, वन्दे मातरम् पर मुझे गर्व है -शहनाज अफजाल, अध्यापिका एवं सामाजिक कार्यकर्तासपा नेता शाहिद सिद्दीकी ने कहा- पैगम्बर मोहम्मद ने कहा है कि मां के कदमों में जन्नत है, इसलिए मैं क्यों न कहूंमौलाना फिजूल विवाद न खड़ा करें -फरीद भाई, कोटागाओ वन्दे मातरम् जीओ वन्दे मातरम् कोटि-कोटि कंठ गगन गुंजाएवन्दे वन्दे मातरम्।विचार-गंगाइस सप्ताह आपका भविष्यमंथन ब्रिटिश कूटनीति की विजय है आरक्षण सिद्धांत-8 गांधी जी गोलमेज सम्मेलन मेंन जाते तो… – देवेन्द्र स्वरूपचर्चा सत्र अमरीका- इस्रायल को पछाड़ने के लिए शिया-सुन्नी गठजोड़गवाक्ष गवाक्ष शिव ओम अम्बरगहरे पानी पैठ आतंकवादियों के संचार “टावर”ऐसी भाषा-कैसी भाषा वल्र्ड सिटी का जू भी होगा टॉप क्लास”सास-बहू और परिवार से जुड़े धारावाहिक कितने पारिवारिक?” मंगलम, शुभ मंगलमस्त्री महिला पाठकों को आमंत्रणनदी -त्रिगुणी कौशिकविश्व हिन्दू परिषद् के अध्यक्ष श्री अशोक सिंहल का छात्रों-युवाओं का आह्वान 7 सितम्बर को गुंजाएं वन्दे मातरम् और अलगाववाद के समर्थक सेकुलरवादी राजनेताओं की भत्र्सना करेंसन्तों का आह्वान गाओ वन्दे मातरम् प्रधानमंत्री हिन्दू सन्तों की अवहेलना न करेंजन गण मन को राष्ट्रगान बनाने पर नेहरू की सफाई (25 अगस्त, 1948 को संविधान सभा में दिए गए भाषण का अंश)बंगाल के राष्ट्रवादी मौलाना रेजाउल करीम ने 1944 में कहा था- जिन्ना-पंथियों के दबाव में कांग्रेस (बंकिम चन्द्र और मुसलमान समाज के आठवें अध्याय से उद्धृत, 18 मई, 1944, 91-बी, सिमला स्ट्रीट, कोलकाता से प्रकाशित)महात्मा गांधी वन्दे मातरम् का दावा सार्थक करें (कोलकाता के देशबन्धु पार्क में 22 अगस्त, 1947 को एक भाषण में)श्रद्धाञ्जलि सूरजभान समरसता 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अनेक विषयों पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। वे विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने पहले थे। इन विचारों से हम अपनी समस्याओं का समाधान ढूंढ सकते हैं और सुपथ पर चलने की प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं। इसी उद्देश्य से उनकी विचार-गंगा का यह अनुपम प्रवाह श्री गुरुजी जन्म शताब्दी के विशेष सन्दर्भ में नियमित स्तम्भ के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। -संकांग्रेस में कम्युनिस्टभारत में भी कम्युनिस्ट कुछ कम नहीं हैं। कुछ क्षेत्रों में प्रबल बनने की उनकी कोशिश है। सामान्य लोगों के मन का रोटी-कपड़े का स्वाभाविक असंतोष जगा कर, शासन के विरुद्ध विद्रोह की भावना पैदा करने में वे कब से लगे हुए हैं। भारत के ये कम्युनिस्ट सोचते हैं कि यदि उन्हें परकीय, यानी चीनी सहायता मिल जाए, तो वे विद्रोह का झंडा खड़ा कर सारे हिन्दुस्थान को काबू में कर लें। इसी षडंत्र के एक भाग के नाते भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में कम्युनिस्ट घुसाए भी गए हैं। कांग्रेस में भी ऐसे कम्युनिस्ट घुसे हैं। (साभार: श्री गुरुजी समग्र : खंड 10, पृष्ठ 169)3

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