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-त्रिगुणी कौशिक
एक नदी
निकलती है
मिथ कथाओं से और
धरती के जीवन में बहती जाती है
उसके उत्स में
नारी की करुण गाथा है
वह नदी मेरे अंतस में भी बहती है
मैं उसे महसूसता हूं
वह दु:खी हो या उच्छृखंल
पर मुझे पवित्र निर्मल और
संवेदनशील बनाती है
जंगल पहाड़ों के बीच बहती
सबकी प्यास बुझाती है
उसके तटबंधों में असंख्य बच्चे खेलते हैं
स्त्रियां नहाती हैं
आदमी धोता है अपनी मलीनता
वह नदी
पृथ्वी की तमाम नदियों की तरह
स्वच्छ निर्मल व प्राणदायिनी है
उसके किनारे सभ्यताएं पनपती हैं
लोक संस्कृति आकार लेती है
लोकगीतों लोकनृत्यों में उसकी लय है
वह पूजित है नदी जितना दु:ख लिए
जब कोई उदास स्त्री मिलती है
वहां होता है एक उदास घाट
सुआ गीतों में स्त्रियां गाती हैं उसका दु:ख
मेरे अन्दर वह नदी ठहर सी गई है
मैं उसे पृथ्वी के हर कोने में
बहने देना चाहता हूं
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