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-विशेष प्रतिनिधि
आखिरकार केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सी.बी.आई.) ने पूर्व केन्द्रीय मंत्री एवं भाजपा सांसद श्रीमती मेनका गांधी पर दो मामले दर्ज कर ही लिए। पांच साल में तीन बार छान-बीन के बाद सी.बी.आई. को इतना तो करना ही था। गत 17 अगस्त को दिल्ली उच्च न्यायालय में सी.बी.आई. ने बताया कि वह श्रीमती मेनका गांधी के खिलाफ आपराधिक षडंत्र (120बी) और धोखाधड़ी (धारा 420) के तहत मामला दर्ज कर रही है। इसके बाद वह जांच करेगी और फिर आरोप पत्र दाखिल करेगी। तो फिर पांच साल से सी.बी.आई. कर क्या रही थी, मामला दायर करने के लिए किसी सबूत की तलाश? सी.बी.आई. द्वारा दर्ज किए गए मामले में कहा गया है कि केन्द्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री रहते हुए श्रीमती मेनका गांधी ने अपने पद एवं अधिकार का दुरुपयोग किया। अपने मंत्रालय के एक विभाग (मौलाना आजाद फाउण्डेशन) के माध्यम से उन्होंने अपने संसदीय क्षेत्र (पीलीभीत) में दो स्वयंसेवी संस्थाओं को नियमों की अनदेखी कर लगभग 30 लाख रुपए का अनुदान दिलवाया।
दरअसल श्रीमती मेनका गांधी द्वारा सन् 2001 में सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय छोड़ने के लगभग एक वर्ष बाद दिल्ली उच्च न्यायालय में पहली बार एक जनहित याचिका दायर की गई थी। इसमें भारत सरकार को पक्ष बनाते हुए कहा गया था कि मौलाना आजाद फाउण्डेशन द्वारा स्वयंसेवी संस्थाओं को दिए गए अनुदान में नियमों की अनदेखी की गई है तथा कुछ खास संस्थाओं को लाभ पहुंचाया गया है। यह याचिका श्रीमती मेनका गांधी के निकट रिश्तेदार श्री बी.एम. सिंह ने दाखिल की थी, जिनसे श्रीमती गांधी का लम्बे समय से पारिवारिक एवं भूमि विवाद चला आ रहा है। इसी के चलते बी.एम. सिंह पंजाब से चलकर पीलीभीत पहुंचे, राजनीतिक रूप से श्रीमती मेनका गांधी का विरोध किया पर हर बार मुंह की खाई। जो भी श्रीमती मेनका गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ा उसका समर्थन किया उन पर व्यक्तिगत आरोप लगाए। फिर श्रीमती गांधी द्वारा समर्थित प्रत्याशी के विरुद्ध खुद भी विधायक का चुनाव लड़े, हारे। उसके बाद पिछले लोकसभा चुनाव में सीधे-सीधे श्रीमती मेनका गांधी के खिलाफ कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़े, पर जमानत भी जब्त हो गई। राजनीतिक रूप से मात खाते रहने के बाद बी.एम. सिंह ने जनहित याचिकाओं का सहारा लिया।
दूसरी तरफ केन्द्र में सत्ता परिवर्तन के बाद कांग्रेस के नेतृत्व में बनी सरकार का श्रीमती मेनका गांधी पर कोई भी मामला बनाने का इस कदर दबाव था कि सी.बी.आई. को एक ही मामले की तीसरी बार जांच करनी पड़ी। इसके लिए सी.बी.आई. को कंधा मिला बी.एम.सिंह का। पहली बार बी.एम. सिंह द्वारा दाखिल जनहित याचिका पर न्यायालय के निर्देश के बाद सी.बी.आई. ने जांच की और 28 अक्तूबर, 2003 को न्यायालय में अपनी रपट दाखिल की थी। इसमें उसने कहा कि मौलाना आजाद फाउण्डेशन की पूरी जांच-पड़ताल के बाद उसे किसी भी तरह के प्रमाण नहीं मिले जिससे साबित हो सके कि इसके द्वारा धन का दुरुपयोग किया गया है। राजग सरकार बदलने और कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार आने के बाद फिर मामला दाखिल किया गया। लेकिन 6 अक्तूबर, 2005 को दिल्ली उच्च न्यायालय में सी.बी.आई. ने फिर कहा कि उसने पूरी जांच दोबारा की और उसे कोई प्रमाण नहीं मिला। इसके बाद मौलाना आजाद फाउण्डेशन ने दिल्ली उच्च न्यायालय में एक याचिका दाखिल की और कहा कि उसने सी.बी.आई. से अपने विभाग की जांच करने का आग्रह किया है जिसे इस बार सी.बी.आई. ने ठुकरा दिया। शायद यह पहला मामला होगा जिसमें किसी विभाग ने अपनी ही जांच करने के लिए आग्रह किया हो। न्यायालय ने एक ही मामले की तीसरी बार जांच के निर्देश दे दिए। इसके बाद सी.बी.आई. ने अपने एक निरीक्षक श्री आर.के. शर्मा को पीलीभीत भेज दिया, जो वहां 6 महीने तक डेरा डाले बैठे रहे और खोजबीन करते रहे कि कोई सबूत हाथ लगे। उन्होंने निर्धारित जांच क्षेत्र से बाहर जाते हुए श्रीमती मेनका गांधी द्वारा अपने संसदीय कोष से शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में किए गए धन के आवंटन की भी जांच कर डाली, पर कोई सबूत हाथ नहीं लगा। बताया जाता है कि इसके बाद 7 अगस्त को सी.बी.आई. के निदेशक और अन्य दो वरिष्ठ अधिकारियों की प्रधानमंत्री ने बैठक ली। उसमें उन्हें बताया गया कि संप्रग की अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी चाहती हैं कि राजग के नेताओं पर मामला बनाया जाए और इसकी शुरुआत श्रीमती मेनका गांधी से की जाए। श्रीमती मेनका गांधी कहती हैं कि उस बैठक में शामिल सी.बी.आई. के एक अधिकारी ने उन्हें 8 अगस्त को ही आगाह कर दिया था कि उनके ऊपर किसी भी तरह का मामला बनाने का जबरदस्त दबाव है। इसके बाद ही 17 अगस्त को मामला दायर कर दिया गया।
सी.बी.आई. ने आरोप लगाया कि तत्कालीन सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री श्रीमती मेनका गांधी के दबाव में मौलाना आजाद फाउण्डेशन ने उनके संसदीय क्षेत्र पीलीभीत में जिस अल्पसंख्यक मृदुल बालिका इंटर कालेज शिक्षा समिति को अनुदान दिया, उसके पास तो जमीन भी नहीं है। जबकि सच्चाई यह है कि वहां 11 कमरों में एक स्कूल चल रहा है। ऐसे ही जिस गांधी रूरल वेलफेयर ट्रस्ट को श्रीमती मेनका गांधी की बहन अम्बिका शुक्ला का बताया जा रहा है और आरोप लगाया गया है कि पंजीकरण से तीन वर्ष से भी कम समय में इस संस्था को नियमों की अनदेखी कर अनुदान दे दिया गया, वह वास्तव में प्रसिद्ध चिकित्सक डा. विजय शर्मा द्वारा स्थापित एक सामाजिक संस्था है। इससे श्रीमती अम्बिका शुक्ला कुछ समय के लिए जुड़ी रही थीं।
हालांकि मौलाना आजाद फाउण्डेशन मंत्रालय के अंतर्गत ही एक स्वतंत्र संस्था है। जिस समय इस संस्था द्वारा अनुदान के आवंटन में अनियमितता का आरोप लगाया गया है उस समय वर्तमान राष्ट्रपति डा.ए.पी.जे. अब्दुल कलाम सहित डा. मुमताज अहमद खान (संस्थापक, अल अमीन एजुकेशन मूवमेंट, कर्नाटक), जफर सैफुल्ला (कांग्रेस शासन में कैबिनेट सचिव रहे), सिराज मेंहदी, डा. एम.आर. हक, वरिष्ठ पत्रकार सईद नकवी, शेरे कश्मीर विश्वविद्यालय के पदेन कुलपति, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया विश्वविद्यालय के कुलपति बोर्ड के सदस्य थे। इस बोर्ड को ही यह अधिकार था कि वह किसी भी संस्था द्वारा आवेदन किए जाने के बाद स्थानीय प्रशासन की रपट एवं स्वयं जांच करके अनुदान स्वीकृत करे। केन्द्रीय मंत्री स्वयं कोई भी निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र नहीं थीं।
मामला कुछ भी हो, एक ही मामले की पांच साल में तीन-तीन बार जांच करने के बाद सी.बी.आई. को कुछ तो आरोप निर्धारित करने थे। और जब सरकार की सर्वेसर्वा श्रीमती सोनिया गांधी का निर्देश हो तो मामला बनाना सी.बी.आई. की मजबूरी भी थी।
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