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ब्रिटिश कूटनीति की विजय है आरक्षण सिद्धांतहिन्दू समाज अपनी दुर्दशा के लिए स्वयं जिम्मेदारदेवेन्द्र स्वरूपकुछ दिन पूर्व एक संगोष्ठी में मेरे एक विद्वान मित्र ने कहा कि भारत की नवीन जनगणना के अनुसार इस देश के 86 प्रतिशत निवासी हिन्दू हैं। लोकतंत्र में देश की दिशा और भाग्य का निर्णय 86 प्रतिशत करेंगे न कि 14 प्रतिशत। भारतीय संविधान द्वारा अंगीकृत परिभाषा के अनुसार यदि सिख, बौद्ध और जैन भी हिन्दू शब्द के अन्तर्गत आते हों तो जनगणना द्वारा प्रस्तुत आंकड़े सही प्रतीत होते हैं। किन्तु इस प्रश्न का क्या उत्तर है कि आज भारत की दिशा और भाग्य का निर्णय 86 प्रतिशत के हाथों से निकलकर 14 प्रतिशत के पास चला गया है। उस 86 प्रतिशत का प्रभाव भारत की राजनीति और सार्वजनिक जीवन में क्यों नहीं दिखाई देता? जिस प्राचीन ऐतिहासिक प्रवाह का उत्तराधिकारी होने के कारण उसे “हिन्दू” नाम मिला, उस प्रवाह को “साम्प्रदायिक” और जिन विदेशी मूल की उपासना पद्धतियों ने इस देश को “माता” मानने से इनकार कर दिया, जिसने विदेशी ब्रिटिश शासकों के सहयोग से मातृभूमि के विभाजन की दारुण स्थिति पैदा की उस समाज को रिझाने को “सेकुलरिज्म” कहा जा रहा है, उसे रिझाने के लिए सभी राजनीतिक दलों में होड़ लगी है, ऐसा क्यों? उसे रिझाने के लोभ में इतिहास दृष्टि भी बदल गयी। भारत विभाजन के लिए “वन्देमातरम्” से घृणा करने वाले मुस्लिम समाज को नहीं, मातृभूमि की पूजा करने वाले “हिन्दू समाज” को अपराधी ठहराया जा रहा है। अंग्रेज शासकों को “पहले विभाजन बाद में भारत छोड़ो” कहने वाला जिन्ना अब “नायक” बन गया है और भारत भूमि की गोद में मोक्ष की कामना लेकर दक्षिण अफ्रीका से स्वदेश वापस लौटने का संकल्प लेने व स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए विशालतम जनान्दोलन का सृजन करने वाले महात्मा गांधी को “खलनायक” के रूप में चित्रित किया जा रहा है। जिस उपासना पंथ का 1300 वर्ष लम्बा इतिहास एशिया, उत्तरी अफ्रीका और पूर्वी यूरोप में भयानक नरमेध, श्रद्धा केन्द्रों के विध्वंस और बलात् मतान्तरण के रक्तरंजित पन्नों से भरा हुआ है, जिसका जिहाद वर्तमान पूरे विश्व के लिए भय और चिन्ता का कारण बना हुआ है उसे विश्व बन्धुत्व, शांति, उदारता और सहिष्णुता का अवतार बताया जा रहा है और जिस परम्परा ने “विविधता में एकता” के दर्शन किये, विश्व को सहिष्णुता और उदारता का पाठ पढ़ाया उसे संकीर्ण, आक्रामक और असहिष्णु सिद्ध किया जा रहा है। खंडित भारत में भी उसका जीवन और श्रद्धा केन्द्र सुरक्षित नहीं है, उस पर लगातार आक्रमण हो रहे हैं। वह समाज स्वयं को आतंकवाद से घिरा हुआ पा रहा है। किन्तु राष्ट्र का बौद्धिक और राजनीतिक नेतृत्व उसे ही कोस रहा है। आक्रांताओं की वकालत कर रहा है। डोडा में निर्दोष हिन्दुओं की हत्या पर एक आंसू नहीं, पर वडोदरा में पुलिस पर आक्रमण करने वाले दंगाइयों में दो की मृत्यु पर आसमान गिर पड़ा है। वडोदरा में 20 हिन्दू मंदिरों के ध्वंस का कोई जिक्र नहीं पर बीच सड़क खड़ी एक दरगाह के लिए कितने आंसू! मलेशिया से पाकिस्तान तक हिन्दू मंदिरों के ध्वंस पर भारत में कोई हंगामा नहीं है। कश्मीर में आये दिन सुरक्षा बलों पर आतंकवादी हमले हो रहे हैं, इसके विरुद्ध कोई आवाज नहीं, उल्टे आक्रमणकारियों को मेज पर आने की चिरौरी की जा रही है, पर वे दुत्कार रहे हैं। आज ही के टाइम्स आफ इंडिया (19 जून) ने स्वीकार किया है कि प्रत्येक कश्मीरी मुसलमान कश्मीर को भारत से अलग मानता है, वह भारतीयों से “आप” और “हम” के लहजे में बात करता है। जिन सुरक्षा बलों के सहारे “कश्मीर घाटी” अभी भारत का अंग दिखाई देती है, उन्हें “अपराधी” के कटघरे में खड़ा कर दिया गया है।बेशर्म शासकअपने ही देशवासियों द्वारा लांछित ये वीर “भारत पुत्र” अत्यन्त कठिन भू-भाग में भारी तनाव में जी रहे हैं। उस तनाव से मुक्ति पाने के लिए आत्महत्यायें कर रहे हैं और इस देश के बेशर्म शासक शान्तिपूर्ण समझौता वार्ता का राग ही अलाप रहे हैं। कहीं उल्फा, कहीं नागा, कहीं खालिस्तानी आतंकवाद सिर उठा रहा है। पाकिस्तान और बंगलादेश इन सभी किस्म के पृथकतावादियों को हथियार, ट्रेनिंग और शह दे रहे हैं। अन्तरराष्ट्रीय जगत् में हर जगह पाकिस्तान हमारे विरुद्ध खड़ा है। चाहे राष्ट्र संघ के महासचिव का पद हो या सुरक्षा परिषद् की सदस्यता का। चाहे अमरीका से आणविक सहयोग का प्रश्न, वह हर जगह भारत के रास्ते में अड़ा है। 11 सितम्बर के जिहादी हमले से लहूलुहान अमरीका यह जान कर भी कि पाकिस्तान जिहाद का सबसे बड़ा गढ़ है, ओसामा और मुहम्मद उमर की शरणस्थली है, ईरान, लीबिया आदि देशों को अणु बम रहस्य बेचने का अपराधी कादिर पाकिस्तान में सुरक्षित है, अमरीका के बार-बार के अनुरोध पर भी मुशर्रफ ने उसे सौंपने से इनकार कर दिया। अमरीका को दिखाकर पाकिस्तान चीन से सैनिक सहायता, प्रक्षेपास्त्र, आणविक हथियार खुलेआम ले रहा है। वह अपने प्रक्षेपास्त्रों का नामकरण गजनवी, गोरी और अब्दाली रखकर विश्व में घोषणा कर रहा है कि आठवीं शताब्दी से भारत की धरती पर प्रारंभ हुए इस्लामी आक्रमण का अध्याय अभी बंद नहीं हुआ है, जारी है। पर, भारतीय नेतृत्व को कोई लज्जा नहीं आती कि उसके सब प्रयत्नों के बावजूद अमरीका का झुकाव अभी भी भारत की अपेक्षा पाकिस्तान की ओर है। (टाइम्स आफ इंडिया 19 जून)भारत जैसे विशाल देश की यह दुर्गति क्यों? उसको माता की तरह पूजने वाली उसकी 86 प्रतिशत हिन्दू जनसंख्या स्वयं को इतनी असहाय, अपमानजनक स्थिति में क्यों पा रही है? इन सबके लिए जिम्मेदार कौन? क्या इसका दोषी हम अन्यों को ठहरायें या उसके कारण हम अपने भीतर खोजें? 1947 में जब हिन्दू-मुस्लिम आधार पर मातृभूमि के विभाजन के साथ स्वतंत्रता आयी तब खंडित भारत ने उसे केवल 150 साल पुरानी ब्रिटिश दासता से नहीं तो 1200 साल से चले आ रहे मुस्लिम आक्रमण व गुलामी से भी मुक्ति के रूप में देखा था। उसे स्वप्न दिखाया गया था कि हिन्दू-मुस्लिम फूट के बीज अंग्रेजों ने बोये थे। उनके भारत से चले जाने पर हम खंडित भारत में मुस्लिम समाज को भारत की राष्ट्रीय मुख्यधारा के साथ एकात्म करते हुए एक सच्चा पंथनिरपेक्ष राष्ट्र जीवन खड़ा करके दिखायेंगे। इसी स्वप्न को लेकर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 24 जनवरी, 1948 को पाकिस्तान आंदोलन के अग्रणी अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के मुस्लिम छात्रों को भारत की महान प्राचीन संस्कृति के प्रति अपनत्व और गर्व का भाव अपनाने का उपदेश दिया था।भारतीय कोई नहींपर, 59 वर्ष बाद आज भारत कहां खड़ा है? भारत का राजनीतिक नेतृत्व व्यक्तिगत सत्ताकांक्षा का बंदी बनकर जातिवाद, क्षेत्रवाद और भाषावाद के भेदों को उभाड़ रहा है। अनेक छोटे-छोटे दलों में बिखर गया है। उसकी पूरी राजनीति केवल आरक्षणवाद तक सीमित रह गई है। आरक्षण के हथियार से वह समाज को टुकड़ों में बांट कर एक जाति को दूसरी जाति के विरुद्ध खड़ा कर रहा है। वह चला था जाति-विहीन समाज के निर्माण का सपना लेकर, किन्तु वह आरक्षण नीति के द्वारा जन्मना जाति व्यवस्था को चिरस्थायी बना रहा है। अब केवल जाति बची है, भारतीय कोई नहीं रहा। स्वयं को समाजवादी और प्रगतिवादी कहने वाले बुद्धिजीवी भी कह रहे हैं किसी जाति और क्षेत्र का प्रतिनिधित्व उस जाति और क्षेत्र में जन्मा व्यक्ति ही कर सकता है। इनसे ऊपर उठकर पूरे भारत की, प्रत्येक भारतीय की हित चिन्ता का विचार असंभव बताया जा रहा है।हमारा इतिहास बोध इतना धूमिल हो गया है कि हम यह स्मरण ही नहीं करना चाहते कि भारतीय राजनीति में आरक्षण का बीजारोपण 1932 के गांधी अम्बेडकर पूना पैक्ट में विद्यमान है और यह पैक्ट गांधी की राष्ट्र नीति के विरुद्ध ब्रिटिश कूटनीति की विजय थी। 1857 के प्रथम स्वातंत्र्य समर की असफलता के बाद भारतीय राजनीति की पहल पूरी तरह अंग्रेजों के पास चली गयी थी। वे ही हमारी राजनीति का एजेंडा तय कर रहे थे और पराभूत भारत केवल उसकी प्रतिक्रिया कर रहा था। 1885 में कांग्रेस की स्थापना करके अंग्रेजों ने अंग्रेजी शिक्षित भारतीयों को पूरी तरह अपनी पाश्चात्य राजनीतिक कार्य प्रणाली का अंग बना लिया। प्रस्ताव पास करना, मांग पत्र पेश करना, वायसराय के पास जाकर गिड़गिड़ाना। दयानन्द, बंकिम, तिलक, विवेकानंद और अरविंद आदि ने सांस्कृतिक पुनर्जागरण और राष्ट्रीय स्वाभिमान का जो शंखनाद किया, उसे कुंठित करने के लिए अंग्रेजों ने बंग-भंग का दांव फेंका। उसकी प्रतिक्रिया ने स्वदेशी आंदोलन को जन्म दिया पर अंग्रेजों ने उसकी काट करने के लिए मुस्लिम लीग की स्थापना कर दी और 1909 के एक्ट में मुसलमानों को पृथक निर्वाचन का अधिकार दे दिया, जिसे कांग्रेस ने 1916 के लखनऊ पैक्ट के रूप में शिरोधार्य कर लिया।राष्ट्र-भक्ति का संगमइस पृष्ठभूमि में गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे। उन्होंने पहचाना कि भारत में राष्ट्रीयता की आधारभूमि उस सांस्कृतिक प्रवाह में विद्यमान है, जिसका उत्तराधिकारी वह समाज है, जो हिन्दू नाम से पहचाना जाता है। उनका विश्वास था कि हिन्दू चेतना में आध्यात्मिक दृष्टि और भारत भक्ति का सहज संगम है। मातृभूमि की स्वतंत्रता उसकी स्वाभाविक आकांक्षा है, उसके लिए वह कोई भी मूल्य चुकाने को तैयार है किन्तु यह स्वदेश भक्ति अभी सांस्कृतिक धरातल तक सीमित है। राजनीतिक धरातल में उसकी अभिव्यक्ति क्षेत्रीय सीमाओं से आगे बढ़कर अखिल भारतीय स्वरूप प्राप्त नहीं कर पायी है। इस बिखरी हुई राष्ट्रीय चेतना को अखिल भारतीय आधार पर संगठित करने का कार्य उसकी आध्यात्मिक प्राण शक्ति को जगा कर ही किया जा सकता है। अत: गांधी अपने व्यक्तित्व में भारत की आध्यात्मिक संस्कृति व राष्ट्र भक्ति का संगम लेकर भारत आये और केवल पांच वर्ष में ही वे पूरे भारत के हिन्दू मन मस्तिष्क पर छा गए। हिन्दू मन ने उन्हें “महात्मा” रूप में देखा और वह उनके पीछे खड़ा हो गया। गांधी ने पहली बार ऐसी राजनीतिक कार्यशैली, शब्दावली और संघर्ष शैली को जन्म दिया, जो अंग्रेजों की समझ से बाहर थी, उनकी अन्तरात्मा की आवाज अंग्रेजों के लिए दुर्बोध थी। वे गांधी के अगले कदम की पूर्व कल्पना करने में असमर्थ थे। इसलिए 1857 के बाद पहली बार भारतीय राजनीति में पहल अंग्रेजों से छिनकर गांधी के पास चली गई। अब एजेंडा गांधी तय कर रहे थे, अंग्रेज केवल उसकी काट ढूंढते रह जाते थे। गांधी पहली बार अखिल भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रतीक बनकर भारतीय राजनीति में उभरे। उन्होंने पश्चिम की सभ्यता को पूरी तरह नकार दिया। भाषा, शिक्षा, खान-पान, वेशभूषा, अर्थ रचना, शासन व्यवस्था, उपासना पद्धति आदि-आदि राष्ट्र जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में।1920 और 1930 के देशव्यापी सत्याग्रहों के द्वारा गांधी ने पूरे भारत के हिन्दू समाज के अन्तस में प्रवाहित राष्ट्र भक्ति की धारा को जनान्दोलन के ज्वार में परिणत कर दिया। भारतीय इतिहास में पहली बार इतने विशाल राष्ट्रीय जनान्दोलनों का दृश्य उत्पन्न हुआ, पहली बार एक अखिल भारतीय राजनीतिक नेतृत्व खड़ा हुआ जो भारत के प्रत्येक कोने, प्रत्येक वर्ग, प्रत्येक भाषा और प्रत्येक जाति का प्रतिनिधित्व करता था। गांधी ने अंग्रेजी शिक्षित पाश्चात्य जीवन शैली में ढले शहरी देशभक्तों को गांवों से जोड़ दिया, शहरों को गांवों में खींच लिया। गांवों को ही भारत के विकास का माडल बना दिया। गांधी के इस चमत्कार को देखकर ब्रिटिश शासक कुछ समय के लिए हतप्रभ रह गये थे। वे समझ नहीं पा रहे थे कि गांधी की काट कैसे करें, उनके जनान्दोलन के रथ की गति को कुंठित कैसे करें।उन्होंने गांधी के व्यक्तित्व, उनकी अपील और उनसे अनुप्राणित जनान्दोलन का गहरा अध्ययन व सूक्ष्म विश्लेषण किया। यद्यपि गांधी ने अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो नीति को विफल करने के उद्देश्य से एक ओर ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध सिख असंतोष और खिलाफत के कारण मुस्लिम असंतोष का लाभ उठाने की दृष्टि से एक ओर गुरुद्वारा मुक्ति आंदोलन और दूसरी ओर मुसलमानों के खिलाफत आन्दोलन के समर्थन की रणनीति अपनायी। किन्तु अंग्रेजों की मुस्लिम पृथकतावाद की समझ बहुत गहरी थी और उन्हें विश्वास था कि मुस्लिम मानस में गहरी जड़ जमाए हिन्दू विरोध को कभी भी भड़काया जा सकता है। उन्होंने देखा कि गांधी की पकड़ केवल हिन्दू समाज तक सीमित है। दो चार व्यक्तियों को छोड़कर पूरा मुस्लिम समाज गांधी के आंदोलन के बाहर खड़ा है। अत: उन्होंने कांग्रेस को हिन्दू पार्टी घोषित करके एक ओर तो हिन्दू कांग्रेस को मुसलमानों की पृथकतावादी मांगों की पूर्ति के जाल में उलझा दिया। दूसरी ओर हिन्दू मानस में विद्यमान इतिहास प्रदत्त जाति और जनपद चेतना को अखिल भारतीय राष्ट्रवाद के विरुद्ध उभाड़ने का कुचक्र प्रारंभ कर दिया। 1932 का पूना-पैक्ट इसी कुचक्र का एक मोहरा था। कैसे? यह अगली बार। (19 जून, 2006)45
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