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जब भी सास बहू की चर्चा होती है तो लगता है इन सम्बंधों में सिर्फ 36 का आंकड़ा है। सास द्वारा बहू को सताने, उसे दहेज के लिए जला डालने के प्रसंग एक टीस पैदा करते हैं। लेकिन सास-बहू सम्बंधों का एक यही पहलू नहीं है। हमारे बीच में ही ऐसी सासें भी हैं, जिन्होंने अपनी बहू को मां से भी बढ़कर स्नेह दिया, उसे आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। और फिर पराये घर से आयी बेटी ने भी उनके लाड़-दुलार को आंचल में समेट सास को अपनी मां से बढ़कर मान दिया। क्या आपकी सास ऐसी ही ममतामयी हैं? क्या आपकी बहू सचमुच आपकी आंख का तारा है? पारिवारिक जीवन मूल्यों के ऐसे अनूठे उदाहरण प्रस्तुत करने वाले प्रसंग हमें 250 शब्दों में लिख भेजिए। अपना नाम और पता स्पष्ट शब्दों में लिखें। साथ में चित्र भी भेजें। प्रकाशनार्थ चुने गए श्रेष्ठ प्रसंग के लिए 200 रुपए का पुरस्कार दिया जाएगा।
मैं हूं न, तुम्हारी मां!
स्व. श्रीमती जानकीबाई केलकर
मेरी सासू मां आज इस संसार में नहीं हैं, लेकिन उनकी स्मृतियां बरबस मेरी आंखों को गीला कर जाती हैं। 14 नवम्बर, 1998 को उनका निधन हुआ था, परन्तु अब भी ऐसा लगता है कि वे पग-पग पर हमारा, हमारे परिवार का मार्गदर्शन करती हैं।
एक बड़ा संयुक्त परिवार है हमारा। 7 बेटों और बहुओं के इस बड़े संयुक्त परिवार में अनुशासन, सबके साथ समन्वय और परस्पर प्रेम बनाए रखने में उनकी भूमिका अद्भुत थी। सम्पूर्ण परिवार को उन्होंने न केवल एकता के सूत्र में पिरोकर रखा, वरन् हम बहुओं, अपने नाती-पोतों में भी परस्पर एकजुट होकर रहने के संस्कार का बीजारोपण भी किया। कभी-कभी उनका व्यवहार हम बहुओं को बहुत कठोर लगता था। वे अनुशासनप्रिय और तेजस्वी थीं। कहीं भी बाहर जाने से पहले उन्हें सूचित करना, उनकी आज्ञा लेना परिवार के प्रत्येक सदस्य का कर्तव्य था। वे संवेदनशील थीं। उनका प्रेम और अपनत्व सभी के लिए समान था। एक बार की बात है। हरिद्वार में मेरी मां बीमार थीं। मेरे बड़े भाई, जो बी.एच.ई.एल. हरिद्वार में कार्यरत थे, ने फोन से मेरे पास यह सूचना भिजवाई। उस समय घर पर मेरी दोनों ननदें एवं रिश्तेदार आए हुए थे। मुझे सासू मां से मायके जाने की आज्ञा मांगने में संकोच हो रहा था लेकिन जब उन्हें मेरी मां की बीमारी का पता चला तो उन्होंने तत्काल मुझे हरिद्वार जाने का निर्देश दिया। मैं लगभग 15-20 दिनों तक मां की सेवा में जुटी रही परन्तु वह बच न सकीं। उनका निधन हो गया। वापस जब मैं ससुराल आई तो सासू मां से लिपटकर फूट-फूटकर रो पड़ी। उन्होंने मुझे ढाढस बंधाया और कहा, “बेटी! जो होना था सो हो गया। होनी को कौन टाल सकता है? लेकिन मैं हूं न, तुम्हारी मां! कभी मत सोचना कि तुम्हारी मां अब इस दुनिया में नहीं हैं।” और सचमुच अपने जीते जी उन्होंने मुझे जो प्यार दिया, वह सगी मां से कहीं भी कमतर नहीं था।
जयश्री केलकर
द्वारा श्रीनिवास केलकर
269, महाराष्ट्र मार्ग, बेनी गंज, छतरपुर (म.प्र.) 471001
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