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अमरनाथ यात्रा का संदेश यही
एक देश, एक संस्कृति, एक जन-मन
जगमोहन, पूर्व केन्द्रीय मंत्री
तीर्थयात्रा भारतीय संस्कृति और परम्परा का एक महत्वपूर्ण अंग है। तीर्थयात्रा का अनुभव दैवीय और आत्मा तक गहरे उतरता है। यह यात्रा है ईश्वर से साक्षात मिलने की, उससे सीधा संवाद करके आध्यात्मिकता की ऊंचाइयों तक पहुंचने की। प्राचीन काल में तीर्थयात्री एक सुखद माहौल, निर्मल और ऊर्जा का संचार करने वाली हवा, घने हरे-भरे जंगल और स्वच्छ निर्मल जलधारा के सुहावने दृश्यों का आनंद लेते हुए आगे बढ़ते थे। इन सबका यात्रियों के मन पर ऐसा जादुई प्रभाव होता था जिससे जीवन के प्रति एक नई उमंग पैदा होती थी।
पुराने समय से चली आ रही तीर्थयात्रायों में हिमालय के ऊंचे शिखरों में भगवान शिव की पवित्र अमरनाथ गुफा यात्रा सबसे पुण्य और रोमांचक अनुभवों वाली यात्रा मानी जाती है। मनुष्य के मन की परतों में रची-बसी दैवीय चेतना को जगाती है यह यात्रा।
अमरनाथ गुफा में भगवान शिव के दर्शन करने के बाद स्वामी विवेकानंद को जो अनुभव हुआ, उसका वर्णन करते हुए भगिनी निवेदिता ने लिखा, “स्वामी जी को इससे पहले कभी ऐसी आध्यात्मिक अनुभूति नहीं हुई। प्रभु की उपस्थिति के कारण वे सांसारिक बातों से इतने दूर हो गए थे कि कई दिन तक वे इसके अलावा कुछ बोले ही नहीं। सर्वत्र शिव ही शिव थे; शिव, जो अनश्वर हैं, दुनिया से विलग ध्यान मग्न महान ऋषि।” बाद में स्वामी जी ने इस अनुभव के बारे में खुद कहा था, “मुझे कभी ऐसी दिव्य, सुंदर और प्रेरक अनुभूति पहले नहीं हुई थी।”
ठीक यही अनुभव होता है अमरनाथ यात्रा पर जाने वाले यात्रियों को। दुनिया के सबसे रोमांचक और आकर्षक मार्ग, जो खुद में एक पारलौकिक व दैवीय अनुभव होता है, से पैदल अथवा घोड़े पर बैठकर यात्री दिव्य, चमकती आभा लिए हुए बर्फ के शिवलिंग का दर्शन करते हैं। उसका ऐसा अद्भुत, अदृश्य प्रभाव होता है जो वर्णन से परे और सबको अपने में समाहित करने वाला होते हुए भी उस शक्ति का परिचय देता है जो पहले भी थी, आज भी है और आगे भी रहेगी।
ऐसे दिव्य अनुभव से गुजर कर एक अमरनाथ यात्री अपने मन की आंखों से भगवान शिव का दर्शन करता है जो एक अखण्ड छत के नीचे ध्यानमग्न मुद्रा में गहन खामोशी में बैठे निर्माण और विध्वंस के आपस में जुड़ाव का संदेश देते हैं। वे संदेश देते हैं कि “जो शुरु हुआ है, उसका अंत भी होता है और हर अंत एक नई शुरुआत को जन्म देता है।”
अमरनाथ का अर्थ है-अनश्वर, अमत्र्य ईश्वर-यानी भगवान शिव। वे देवताओं के देव महादेव हैं जिनके बारे में महाभारत में भीष्म ने कहा था- “मैं उन भगवान महादेव के बारे में क्या कह सकता हूं जो सर्वव्यापी हैं पर कहीं दिखाई नहीं देते; जो ब्राह्म, विष्णु और इंद्र के सर्जक हैं, जिनकी ब्राह्म से लेकर सभी देव, यहां तक की पिशाच भी आराधना करते हैं; जो सभी प्राकृतिक प्रक्रियाओं और उस आत्मा से भी परे हैं जिसके सच के संधान में ऋषि-मुनि तप करते हैं; जो अविनाशी हैं, सर्वोच्च हैं, स्वयं ब्राह्म हैं; जो दृश्य न होते हुए भी सर्वत्र मौजूद हैं।”
अमरनाथ की पवित्र गुफा हिमालय के “पवित्रतम और दृढ़तम” शिखरों में से एक शिखर में स्थित है जो हिन्दू परम्परा में खुद में ही उत्कृष्टता, शांति और शक्ति का प्रतीक है। इस धवल पर्वत व भगवान शिव का एक गहरा नाता भी है। आदिशंकर के शब्दों में यह संबंध बहुत खूबसूरती से उभरा है। सफेद बर्फ से ढके शिखरों के भौतिक और आध्यात्मिक सौन्दर्य से अभिभूत होकर आदिशंकर ने कहा था, “हे शिव, आपका शरीर उजला है, उजली है आपकी मधुर मुस्कान, हाथ में धारण की मानव खोपड़ी भी श्वेत है। आपका त्रिशुल, आपका नंदी, आपके कानों में पड़े कुण्डल सब श्वेत हैं। आपकी जटाओं से निकल रही उफनती गंगा श्वेत है, सिर पर सजा अद्र्धचंद्र श्वेत है। हे श्वेतवर्णी शिव, हमें जीवन में सभी दोषों से मुक्त रहने का वरदान दें।”
कवि कालीदास ने हिमालय को “शिव का अट्टहास” कहा है। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने भी कहा, “पर्वतों में मैं हिमालय हूं।” स्वामी विवेकानंद से जब पूछा गया कि भारत में इतने देवी-देवता क्यों हैं, तो उन्होंने कहा था, “क्योंकि हमारे यहां हिमालय है।”
पवित्र अमरनाथ गुफा पर साल में केवल कुछ ही समय के लिए पहुंचना संभव होता है। आमतौर पर जुलाई-अगस्त में यह यात्रा की जाती है। उस दौरान गुफा के अंदर एक निर्मल, श्वेत, बर्फ का शिवलिंग स्वत: निर्मित होता है। गुफा के ऊपरी हिस्से से न जाने कैसे पानी बूंद-बूंद करके बहुत धीमी गति से गिरता है और जमता जाता है। पहले यह एक ठोस आधार का रूप लेता है जिसके ऊपर धीरे-धीरे शिवलिंग का स्वरूप बनता जाता है, पूर्णिमा के दिन यह पूरा होता है। माना जाता है कि इस दिन ही भगवान शिव ने अपनी सहचरी हिमालय पुत्री पार्वती को जीवन के गूढ़ रहस्यों का ज्ञान दिया था।
यह भी माना जाता है कि जिस समय भगवान पार्वती से बात कर रहे थे, उसी समय कबूतरों का एक जोड़ा गुफा में आया और उसने भी वह चर्चा सुन ली। कहते हैं तब से लेकर आज तक कबूतरों का यही जोड़ा अब शिव-पार्वती के अवतार के रूप में यात्रा के समय गुफा में रहता है। अगस्त-सितम्बर, 1980 में राज्यपाल शासन के दौरान मैंने गुफा तक पैदल यात्रा की थी। मेरे साथ कुछ अधिकारी भी थे। इस यात्रा का उद्देश्य यह पता लगाना था कि कैसे मार्ग में और सुधार लाए जा सकते हैं और जैसी सुविधाएं मैंने माता वैष्णो देवी के यात्रियों के लिए उपलब्ध कराईं, उसी तरह यहां भी सुविधाएं उपलब्ध हों। हमने भी वहां गुफा में कोई और पक्षी नहीं, कबूतरों का जोड़ा देखा था।
यह एक रहस्य है कि कैसे बर्फ का आधार बनता है और कैसे उस आधार पर बर्फ का शिवलिंग आकार लेता है, कैसे पूर्णिमा के दिन यह अधिकतम ऊंचाई तक पहुंचता है और कैसे एक कबूतर का जोड़ा वहां प्रकट हो जाता है। तर्क-वितर्क करने वाला और घोर शंकालु व्यक्ति भी यह मानने को बाध्य हो जाता है कि ये सब घटनाएं महज संयोग नहीं हो सकतीं।
नीलमाता पुराण के अनुसार वर्तमान कश्मीर घाटी कभी सती देश नामक एक बड़ी झील के रूप में जानी जाती थी। यह झील ऊंचे पहाड़ों से घिरी थी। जलोद्भव नामक एक असुर, जो पानी के अंदर मारा नहीं जा सकता था, के वध के लिए ब्राह्म, विष्णु और शिव के वरदान से कश्यप ऋषि ने पहाड़ों को काटकर उस झील का पानी बाहर बहा दिया। तब उसकी जो जमीन निकली, वहां लोग आकर रहने लगे और उस स्थान का नाम कश्यप ऋषि के नाम पर कश्मीर पड़ गया। कुछ शांत, सुरम्य स्थानों पर ऋषियों और देवताओं ने ध्यान करने के लिए अपने आश्रम स्थापित कर लिए। समयान्तर पर ये स्थान विशेष रूप से पूजे जाने लगे और कश्मीर हिन्दू धर्म और संस्कृति का प्रमुख केन्द्र बन गया। इसे भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि घाटी कभी देव भूमि, तीर्थ और ऋषियों की भूमि रही है और कुछ अर्थों में आज भी है। व्सेंट ए. स्मिथ ने ठीक ही कहा है- “प्राचीन भारत में इसकी पूर्व सभ्यता के अगर कोई महत्वपूर्ण चिन्ह बचे हैं तो वे हैं कश्मीर के विस्तृत भग्नावशेष।”
अमरनाथ यात्रा श्रीनगर में दशनामी मन्दिर में “छड़ी मुबारक” की रस्म के साथ शुरू होती है। प्रार्थना के बाद यात्री पैदल चलने में सहारे के लिए एक बेंत प्राप्त करते हैं। इस छड़ी का धार्मिक और भौतिक महत्व है। यह बर्फीले, फिसलन वाले मार्ग पर यात्री को सहारा तो देती ही है, परन्तु जब लम्बी और कष्ट भरी यात्रा को देखकर यात्री की आस्था डगमगाने लगती है तो यही छड़ी उसे मंदिर में लिए संकल्प की याद दिलाती है।
“छड़ी मुबारक” रस्म के बाद यात्री जत्थों की शक्ल में पहलगाम की ओर बढ़ते हैं जहां से एक छोटी सड़क चंदनवाड़ी पहुंचती है। मार्ग के दोनों ओर सुन्दर घने हरे-भरे वृक्षों के वन और ऊंची चट्टानें, पहाड़ियों से अठखेलियां करते सफेद चमकते झाग भरे झरने हिमाच्छादित हिमालय की गोद से निकलकर बहते दिखाई देते हैं। चंदनवाड़ी से पिस्सु घाटी (3,171 मी.) की खड़ी चढ़ाई यात्रियों को याद दिलाती है कि मोक्ष के मार्ग में कड़े संघर्ष और जिजीविषा की जरूरत होती है। यात्रियों में इस देवत्व का अहसास कराने वाले बिन्दु तक जा पहुंचने की अनुभूति तब और गहरी हो जाती है जब वे शेषनाग (3,570 मी.) पहुंचते हैं। इस महान झील का सौन्दर्य, स्थान और रंग सभी रोमांचित करने वाला है।
शेषनाग उस दैवीय महासागर का प्रतीक है जिसमें ब्राह्मांड के पालनहार भगवान विष्णु सात सिरों वाले शेषनाग पर शयन मुद्रा में रहते हैं। शेषनाग झील के बर्फीले पानी में स्नान करके तरोताजा होने के बाद यात्री सबसे दुरूह स्थान महागुन्ना (4,350 मी.) की कठिन चढ़ाई चढ़ते हैं। इसके बाद पोशपाठन तक थोड़ा ढलवां मार्ग है, जहां जंगली फूल खिले दिखते हैं। यहां से यात्री पंचतरणी की ओर बढ़ते हैं, जहां पांच मिथकीय धाराओं का संगम होता है और फिर पहुंचते हैं पवित्र गुफा में।
यहां पहुंचकर यात्रियों में एक अपूर्व संतोष का भाव तिरता है और सभी तरह की थकान गायब हो जाती है। शून्य डिग्री तापमान की ठंड में भी यात्री लगभग जमी हुई अमरावती जलधारा में स्नान करते हैं। यह अनूठी यात्रा व्यक्ति की असीम ऊंचाइयों तक पहुंचने, उच्च कोटि के आध्यात्मिक भाव का अनुभव करने और भगवान महादेव को उनकी प्रखरतम छवि और सर्वोत्तम स्थान पर देखने की ललक को पूरा करती है। हाल ही में माता वैष्णो देवी बोर्ड की तर्ज पर एक वैधानिक बोर्ड राज्य के राज्यपाल की अध्यक्षता में गठित किया गया है। यह बोर्ड परम्परागत मार्ग और बाल टाल वाले मौसमी मार्ग, दोनों में सुधार के भरसक प्रयास कर रहा है। एक हेलीकाप्टर सेवा भी शुरू की गई है। बोर्ड और राज्य सरकार के बीच जो मतभेद उभरे थे, आमतौर पर सुलझा लिए गए हैं। उच्च न्यायालय ने भी बोर्ड के मत को सही ठहराया है। इस साल 11 जून से शुरू हुई यात्रा 1 अगस्त तक चलेगी। दोनों मार्गों से करीब 5 लाख तीर्थयात्रियों के पवित्र गुफा पहुंचने का अनुमान है। इस यात्रा का महत्व केवल व्यक्ति के स्तर तक ही सीमित नहीं रहता, बल्कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक, काठियावाड़ से कामरूप तक भारत की सांस्कृतिक एकता का संदेश देती है। सबको आपस में जोड़ने की शक्ति के रूप में इस यात्रा के ऐतिहासिक महत्व को पहचानने की जरूरत है।
जब कुछ लोग शेष भारत के साथ कश्मीर के संबंध पर संविधान की धारा 1 और धारा 370 के संदर्भ में बात करते हैं तो मुझे उनकी अज्ञानता देखकर आश्चर्य होता है। ये लोग नहीं जानते कि यह संबंध तो कहीं अधिक गहरा है। यह संबंध लोगों के दिलो-दिमाग में हजारों वर्षों से मौजूद रहा है, ऐसा संबंध जिसको भारत के ज्ञान और भावनाओं, इसके जीवन और साहित्य, इसके दर्शन और काव्य, इसकी साझी आकांक्षाओं और आशाओं ने जन्म दिया है। यही वह संबंध है जिसने सुब्राह्मण्यम भारती को कश्मीर को भारत माता के मुकुट के रूप में और कन्याकुमारी को इसके चरणों में कमल के फूल के रूप में देखने की प्रेरणा दी। इसी प्रेरणा के कारण वे गाते थे, “इसके 30 करोड़ चेहरे हैं, पर हृदय एक है।”
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