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महिला पाठकों को आमंत्रणफैशन और संस्कृति में टकराव कहां?आज अक्सर घरों में युवतियों को यह सुनने को मिलता है कि, “फैशन मत करो, बिगड़ जाओगी” या “तौबा, वह तो इतना फैशन करती है, उसका चालचलन ठीक नहीं है।” तो क्या समय के साथ अपनी वेशभूषा और रूप सज्जा में फैशन का पुट देने का अर्थ है बिगड़ जाना और चाल चलन खराब होना? अगर बेटा रात को देर से आए तो कहा जाता है कि वह बहुत मेहनती है और बेटी को देर हो जाए तो कहते हैं, वह बिगड़ गई है। यह दृष्टिकोण कितना उचित है कितना अनुचित? हम तो आपके सामने केवल चर्चा का मुद्दा रख रहे हैं। आप इस संदर्भ में हमें 250 शब्दों में अपने विचार भेजें तथा साथ में फोटो भी और साफ-साफ लिखा पता भी। चुने हुए पत्रों को 250 रुपए का पुरस्कार दिया जाएगा।हमारा पतास्त्री स्तंभद्वारा सम्पादक पाञ्चजन्य, संस्कृति भवन, देशबंधु गुप्ता मार्ग, झण्डेवाला, नई दिल्ली-55″फैशन और संस्कृति में टकराव कहां?” विषयक बहस पर आमंत्रित विचारों की प्रथम कड़ीआजकल का फैशन ठीक नहीं-अदिति शर्मासांैदर्य और नारी एक सिक्के के दो पहलू हैं। नारी के ह्मदय में सुंदर दिखने की ललक सदैव रहती है। यह धारणा वर्तमान में ही नहीं वरन् आदिकाल से नारी में रही है। इसकी पुष्टि शास्त्रों में वर्णित सोलह श्रृंगारों से भी होती है। कहा जाता है कि बाहरी नहीं बल्कि आंतरिक सौंदर्य व्यक्ति को सही मायने में सुन्दर बनाता है। प्रकृति ने नारी को वह सभी आंतरिक गुण वरदानस्वरूप दिये हैं, जो उसके सौंदर्य को निखारते हैं, जैसे- करुणा, त्याग, उदारता, कोमलता, मातृत्व-वत्सलता। आंतरिक और बाह्र सौंदर्य का समावेश होने पर नारी का जो स्वरूप उभरता है, वह दैवी स्वरूप की अनुभूति दिलाता है।वर्तमान में नारी फैशन के जिस क्षेत्र की ओर अग्रसर हुई है, वहां पायल, कंगन, बिंदिया सब बीते जमाने की बात हो गई है तथा सुविधा के नाम पर पुरुषों सरीखी पैंट या जीन्स व टी शर्ट नारी तन की सज्जा बन गई हैं। जीन्स-टी शर्ट यदि सलीके से पहनी जाएं तो अनुचित नहीं हैं, क्योंकि समय के साथ व्यक्ति और समाज को परिवर्तित होना पड़ता है। लेकिन फैशन के नाम पर जो उच्श्रृंखलता नारी में आई है, वह किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है।आधुनिक नारी फैशन के भंवर में डूबकर घर-परिवार के कामों से परहेज करने लगी है। अंधविश्वास से मुक्ति के नाम पर तीज-त्योहारों व रीति-रिवाजों से विमुख होने लगी है। सच कहें तो आधुनिक नारी घर को “पिंजरा” और रिश्तों को “बेड़ियां” समझने लगी है। कहा भी जाता है कि “अति सर्वत्र वर्जयेत”, भारतीय नारी ने फैशन के वशीभूत होकर अति की पराकाष्ठा को छू लिया है। अत: वर्तमान समय में प्रचलित फैशन स्त्री सम्मान का पक्षधर नहीं कहा जा सकता है।महिलाओं का सांस्कृतिक मूल्यों से विमुख होना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। सुसंस्कृत एवं राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत महिलाएं ही प्रेममयी पुत्री, स्नेहमयी भगिनी, कत्र्तव्यनिष्ठ पत्नी और भविष्य के कर्णधारों की माता की भूमिका के साथ न्याय कर पाएंगी। संक्षेप में कहें तो आधुनिक नारी को काल्पनिकता की ओर उड़ने की बजाय केवल अपने अंदर छिपी सुगंध को समय रहते पहचानने की जरूरत है।अदिति शर्माद्वारा- वी.के. शर्मा, 27 सी, पंचवटी, दिल्ली छावनी, दिल्ली-11001020
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