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मंथन

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Jan 10, 2006, 12:00 am IST
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दिंनाक: 10 Jan 2006 00:00:00

पोप का माफीनामाउन्माद जीता, तर्क हारादेवेन्द्र स्वरूपजर्मनी के रीगेन्सबर्ग विश्वविद्यालय में 12 सितम्बर को पोप बेनेडिक्ट (सोलहवें) के भाषण को लेकर मुस्लिम उन्माद-प्रदर्शन और वेटिकन की क्षमा याचना का जो सिलसिला आरम्भ हुआ है वह भारत की इस ग्रामीण लोकोक्ति का स्मरण दिलाता है कि “मियां प्याज भी खायें और जूते भी खायें”। क्या सचमुच पोप यह नहीं जानते थे कि प्रत्येक मुस्लिम के मन में कुरान और पैगम्बर के प्रति जो अन्धश्रद्धा कूट-कूट कर भरी गई है, वह उनकी आलोचना का कोई स्वर बर्दाश्त नहीं कर सकती, तुरन्त उन्माद बन कर सड़कों पर उतर आती है। गैर मुस्लिम तो दूर वह किसी मुस्लिम को भी कुरान या पैगम्बर की आलोचना के अपराध में जिन्दा रहने का अधिकार नहीं देती। आखिर, सलमान रुश्दी और तस्लीमा नसरीन जैसे मुस्लिम विद्वानों के सिर पर मौत का फतवा क्यों नाच रहा है? उनका एकमात्र अपराध यह है कि उन्होंने कुरान व इस्लाम के नकारात्मक पक्ष की ओर दुनिया का ध्यान खींचने की ईमानदार कोशिश की। एक अमरीकी पादरी द्वारा पैगम्बर की आलोचना होने पर हजारों मील दूर भारत के शोलापुर शहर में जुनून की आग क्यों भड़क उठती है? दिल्ली में कुरान का एक पन्ना जलाये जाने की झूठी अफवाह मात्र से आन्ध्र, कर्नाटक और महाराष्ट्र के अनेक शहरों में एक साथ उन्माद-प्रदर्शन क्यों शुरू हो जाता है? डेन्मार्क में प्रकाशित कुछ कार्टूनों को लेकर पूरे विश्व में जो उन्माद प्रदर्शन हुआ वह तो ताजी बात है। क्या पोप ने यह कहावत नहीं सुनी कि “अल्लाह की शान में गुस्ताखी माफ की जा सकती है, पर पैगम्बर की शान में कुछ भी कहा तो अपनी जान की खैर मनाना”।यदि पोप के उस लम्बे भाषण का एकमात्र विषय “आस्था और तर्क” का अन्तर बताना था और इसी अन्तर को रेखांकित करने के लिए उन्होंने चौदहवीं शताब्दी के एक बायजेन्टाईन सम्राट मैनुअल द्वितीय की पैगम्बर मुहम्मद के बारे में केवल ये तीन पंक्तियां उद्धृत कीं कि “मुझे बताओ वह नया क्या था जो मुहम्मद लाए? उनमें आप सिर्फ वे बातें पाएंगे जो बुरी और अमानवीय हैं। जैसे अपनी आस्था को, जिसका वे प्रचार करते थे, तलवार के बल पर फैलाने का उनका निर्देश।”अपमानजनक स्थितियह एक ऐतिहासिक उद्धरण था, जिसके पक्ष और विपक्ष में बहस होनी चाहिए थी। शायद पोप को भी यही अभिप्रेत रहा होगा। किन्तु इस उद्धरण के विरोध में मुस्लिम उन्माद-प्रदर्शन से घबरा कर पोप की राजधानी वेटिकन ने एक के बाद दूसरा माफीनामा जारी करना क्यों शुरू कर दिया? ये माफीनामे उन्माद को शान्त करने के बजाए और भड़का रहे हैं। मुस्लिम उन्माद इन माफीनामों को अपनी विजय के रूप में देख रहा है और पोप को अधिक से अधिक अपमानजनक स्थिति में धकेलने की कोशिश कर रहा है। यहां पोप एक व्यक्ति नहीं, एक संस्था है। दुनिया भर में फैले करोड़ों-अरबों ईसाई मतावलम्बियों का आस्था केन्द्र है। इस समय हटिंगटन की “सभ्यताओं के संघर्ष” में इस्लाम और ईसाईयत आमने-सामने युद्ध स्थिति में खड़े हैं। पोप की क्षमा याचना को मुस्लिम पक्ष इस्लाम की विजय और ईसाइयत की पराजय के रूप में देख रहा है। पोप ने विशाल ईसाई समुदाय के लिये यह अपमानजनक स्थिति क्यों पैदा की?क्या इसलिए कि पूरे मुस्लिम विश्व का उग्र प्रदर्शन अनपेक्षित था? क्या इसलिए कि गाजापट्टी, लेबनान, फिलस्तीन और बसरा आदि नगरों में चर्चों पर हमले हुए, या इसलिए कि सोमालिया में एक इतालवी नन की गुस्साये उन्मादियों ने दिनदहाड़े हत्या कर डाली? क्या सातवीं शताब्दी में इस्लाम के जन्मकाल से ही पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका के ईसाई देशों में उसकी सैनिक विजय के साथ-साथ चली विध्वंसलीला की पृष्ठभूमि में यह कोई अनहोनी कही जा सकती है? पोप द्वारा उद्धृत चौदहवीं शती का कथन भी इसी विध्वंसलीला की ओर इशारा कर रहा था। तब पोप को उस पर माफी मांगने की क्या आवश्यकता थी? वे उन्मादियों को चुनौती दे सकते थे कि वे इस कथन को असत्य सिद्ध करने वाले ऐतिहासिक प्रमाण प्रस्तुत करें। वस्तुत: लम्बे समय से ऐसे अवसर की प्रतीक्षा की जा रही थी। जब मुसलमानों की वर्तमान पीढ़ी को अन्धश्रद्धा से ऊपर उठकर इतिहास के दर्पण में इस्लाम की रक्तरंजित विस्तार-गाथा को दिखाया जा सकता था। आखिर क्यों मुस्लिम मस्तिष्क को कुरान और हदीस की आलोचनात्मक समीक्षा से रोका जा रहा है, क्यों उनके मस्तिष्क पर अन्धश्रद्धा का ताला जड़ दिया गया है? क्यों इस्लाम के इन दो अंतिम स्रोतों की समीक्षा को कुफ्र और प्राणदण्ड का भय दिखाकर प्रकाशित नहीं होने दिया जा रहा है? शायद, प्राणदण्ड के इस भय के कारण ही आधुनिक सभ्यता में रंगे हुए अंग्रेजी शिक्षित मुस्लिम बुद्धिजीवी एवं नेता भी जिहादियों की रक्त-लीला को इस्लाम विरोधी घोषित करते हुए भी “कुरान” और “हदीस अर्थात पैगम्बर” में अपनी अडिग आस्था का प्रदर्शन करते रहते हैं। क्या भय के इस वातावरण को समाप्त करना आवश्यक नहीं? क्या मानवजाति के एक विशाल वर्ग को अंधश्रद्धा, उन्माद एवं भय के इस कारागार से मुक्त कराना आवश्यक नहीं?ईसाई खुलापनयदि अन्य सभी पन्थों के अनुयायी अपने पंथ के श्रद्धा केन्द्रों एवं स्रोतों की आलोचनात्मक समीक्षा करके भी अपने पंथ को गतिमान, परिष्कृत एवं शक्तिशाली बना सकते हैं तो अकेले इस्लाम को ही इस प्रक्रिया से भय क्यों है? यदि ईसाई बुद्धिजीवी ईसा मसीह के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगा सकते हैं, ईसा के जीवन पर भारतीय प्रभाव को स्वीकार कर सकते हैं, उनके एक कुंवारी मां से जन्म और आजन्म कुंवारा रहने की कथाओं को असत्य कह सकते हैं, क्रास पर उनके आत्मबलिदान और पुनरुज्जीवन की घटनाओं को कपोल कल्पित बना सकते हैं, उनके वैवाहिक एवं यौन लीलाओं पर फिल्म बना सकते हैं। और ईसाई मत अपनी आस्था पर हथोड़ों की इन चोटों को सहज रूप में स्वीकार कर सकता है, तो मुस्लिम मत भी ऐसा क्यों नहीं कर सकता? यदि इस्लाम ने कुरान और पैगम्बर मुहम्मद को अपने अंतिम श्रद्धाकेन्द्र के रूप में प्रतिष्ठित किया है तो ईसाई मत ने भी बायबिल और ईसा मसीह को अपना अंतिम श्रद्धा केन्द्र माना है। पर उसी ईसाई मत ने न केवल ईसा मसीह, बल्कि बायबिल और चर्च की प्रामाणिकता पर भी गंभीर प्रश्न उठाये हैं। विशेषता यह है कि ऐसे सब आलोचनात्मक साहित्य को ईसाई समाज बड़े चाव से पढ़ता है। सभी यूरोपीय भाषाओं में उनका अनुवाद होता है और लाखों प्रतियां हाथों हाथ बिक जाती हैं। ईसाई मन-मस्तिष्क का यह खुलापन क्या मुस्लिम समाज के लिए अनुकरणीय नहीं होना चाहिए? एक पैगम्बर, “एक पुस्तक” के प्रति आस्था व अपने ही मार्ग को सकमात्र सत्य व अंतिम मान कर पूरी मानवजाति को उस मार्ग पर येनकेन प्रकारेण लाने की विस्तारवादी भावना इस्लाम व ईसाई मत को एक-दूसरे का दर्पण बना देती है। किन्तु आत्मालोचन एवं अपने श्रद्धा केन्द्रों की निर्भीक आलोचना की प्रवृत्ति ईसाई मत को मुस्लिम मानसिकता से बहुत ऊपर उठा देती है।जहां तक भारत का सम्बन्ध है उसने तो अपनी दार्शनिक दृष्टि के कारण उपासना-स्वातंत्र्य वैविध्य को आस्था के रूप में ग्रहण किया है। किसी एक उपासना पद्धति को अंतिम कहने की भूल नहीं की। सभी महापुरुषों एवं संप्रदाय प्रवर्तकों को समान श्रद्धा दी। अपनी अवतार सूची में सम्मिलित करना चाहा। परलोक को अस्वीकार करने वाले चार्वाक, मूर्तिपूजा के निर्मम आलोचक स्वामी दयानंद को ऋषियों की पंक्ति में रखा। डा. अम्बेडकर, रामस्वामी नायकर जैसे आलोचकों का सम्मान किया। राम की निन्दा व रावण की पूजा करने वालों को भी सहन किया। अभी पिछले सप्ताह ही एन.डी.टी.वी. चैनल के मुकाबला कार्यक्रम में एक कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी ने गीता पर कटु आक्षेप किया, धर्मों की कड़ी आलोचना की किन्तु किसी ने उन्हें धिक्कारा नहीं। मुस्लिम और ईसाई विस्तारवाद से अपनी “अस्तित्व रक्षा” के लिए भले ही उसके मन में कभी-कभी कटुतापूर्ण प्रतिक्रिया पैदा होती है और मतान्तरितों की घर-वापसी के प्रयास होते हों, अन्यथा हिन्दू- मन मस्तिष्क ने ईसाई और मुस्लिम उपासना पद्धतियों को कभी हेय दृष्टि से नहीं देखा। वह उन्हें अपनाने को हमेशा उद्यत रहा। इसका प्रमाण है कि सातवीं शताब्दी में इस्लाम के जन्म के तुरन्त बाद जब भारत के पश्चिमी तट से पहले से व्यापारिक सम्बंध रखने वाले अरब व्यापारियों ने नवोदित इस्लाम मत को ग्रहण कर लिया तो गुजरात और केरल के हिन्दू राजाओं ने उनके लिए मस्जिदों का निर्माण कराया ताकि उन्हें अपनी नयी उपासना-पद्धति का पालन करने में कठिनाई न हो।बौद्धिक बहसअच्छा होता कि पोप अपने कथन पर डटे रह कर मुस्लिम मस्तिष्क को उन्माद-प्रदर्शन के बजाय बौद्धिक बहस के अखाड़े में खींचते। उनसे पूछते कि क्या हजरत मुहम्मद का स्वयं का जीवन युद्धों की कहानी नहीं है। अल-बदर से लेकर 630 इस्वीं में मक्का की विजय तक क्या वे लगातार युद्धों में लिप्त नहीं रहे? क्या यह सत्य नहीं है कि मक्का विजय के पश्चात मुहम्मद साहब ने अपनी आंखों के सामने काबा में रखे 360 मूर्तियों का ध्वंस कराया? यदि नहीं तो इस घटना का कुरान में उल्लेख क्यों है? मूर्तिभंजन को कुरान और हजरत मुहम्मद का प्रमाण मिल जाने के कारण यदि अन्य देशों में इस्लाम की विजय गाथा पुराने श्रद्धाकेन्द्रों के ध्वंस के प्रसंगों से भरी पड़ी हो तो इसमें आश्चर्य क्या? इसी आधार पर तो तालिबान नेता मुल्ला मुहम्मद उमर ने बामियान की बुद्ध प्रतिमाओं के ध्वंस को गैर इस्लामीकृत्य बताने वाले आधुनिक शिक्षित मुस्लिम बुद्धिजीवियों को चुनौती दी थी कि कुरान और हदीस की कसौटी पर तय होगा कि इस्लाम की सच्ची समझ हमें है या तुम्हें। चौदहवीं शताब्दी के ईसाई सम्राट ने यदि यह कहा कि हजरत मुहम्मद ने तलवार के बल पर अपनी आस्था के प्रचार का निर्देश दिया तो क्या वह इतिहास का हिस्सा नहीं है? हजरत की मृत्यु के तुरन्त पश्चात सन् 634 इस्वीं में जो अरब सेनाएं इराक, सीरिया, फिलस्तीन, फ्रांस आदि एशियायी देशों और मिस्र से लेकर मोरक्को तक उत्तरी अफ्रीका के देशों पर अचानक टूट पड़ी थीं, क्या वे अपने हाथों में शान्ति की पताका फहरा रही थीं या तलवारें घुमा रही थीं? मानवता के हित में आवश्यक है कि वर्तमान मुस्लिम पीढ़ी को इस ऐतिहासिक कटु का साक्षात्कार कर इस्लाम में आन्तरिक सुधार की प्रेरणा व सामथ्र्य दिया जाय।उनकी क्षमायाचनापोप ने उन्माद-प्रदर्शन से घबरा कर क्षमायाचना की मुद्रा अपना कर इस बहस को रोक दिया और इस्लाम के भीतर आत्मलोचन की मन:स्थिति का अंकुरण नहीं होने दिया। जिहादी आतंकवाद से दुनिया को मुक्ति दिलाने के लिए यह बहस बहुत आवश्यक है। पर, प्रश्न यह है कि पोप के पैर लड़खड़ा क्यों गये? उन्होंने उन्माद के सामने आत्मसमर्पण कर अपने करोड़ों अनुयायियों का मनोबल खंडित क्यों किया? क्या वे उस भाषण के बाद कई देशों में मुस्लिम नेताओं द्वारा उनकी हत्या के आह्वान से भयभीत हो गये? सूचनाओं के अनुसार पोप की हत्या की धमकियों से भयभीत होकर वेटिकन में पोप का सुरक्षा-घेरा बहुत कड़ा कर दिया गया था। यदि यह सच है तो क्या हम यह मान लें कि सत्य के लिए आत्मबलिदान का उदाहरण प्रस्तुत करने का आत्मबल पोप बेनेडिक्ट के पास नहीं है? यदि ईसा मसीह के आत्म बलिदान की कथा पर उनकी सच्ची आस्था है तो करोड़ों ईसाई श्रद्धालुओं के सामने वे ईसा मसीह का उदाहरण क्यों नहीं बन सकते? उनकी क्षमायाचना के पीछे प्राणभय काम कर रहा था या पन्द्रहवीं शताब्दी से अफ्रीका, उत्तरी और दक्षिणी अमरीका में उनके अपने रोमन कैथोलिक चर्च को रोमन सम्राटों के संरक्षण में से प्राप्त वैभव व बाह्राडम्बर जन्य दुर्बलता? इतिहास में इन प्रश्नों का उत्तर खोजना आवश्यक है कि ईसा के जीवन एवं उपदेशों से अनुप्राणित मूल चर्च, जिसे पूर्वी या आर्थोडोक्स चर्च कहा जाता है और जिसके अनुयायी केरल में सीरियन ईसाई के नाम से पहचाने जाते हैं, से अलग रोमन कैथोलिक चर्च का विकास कब, कैसे हुआ। सातवीं से पन्द्रहवीं शताब्दी तक इस्लामी विस्तारवाद से टकराव के दौरान उसका चरित्र-परिवर्तन क्या हुआ? शायद ही लोगों को पता हो कि अरब विस्तारवाद का पहला प्रहार पूर्वी चर्च को ही झेलना पड़ा, उसके सभी प्रभाव क्षेत्रों पर मुस्लिम आधिपत्य स्थापित हो गया। जिसके कारण रोमन कैथोलिक चर्च को इस्लाम के विरुद्ध ईसाई जगत के धर्मयुद्धों का नेतृत्व करने का अवसर मिला। सन् 1054 में आर्थोडिक्स चर्च से उसने पूर्ण सम्बन्ध विच्छेद कर लिया। यह भी बहुत कम लोगों को पता है कि सातवीं शताब्दी तक यूरोप का अधिकांश भाग ईसाई मत के बाहर था। ईसाई मत का प्रभाव केवल पश्चिमी एशिया, उत्तरी अफ्रीका और भूमध्यसागर के उत्तरी तटीय प्रदेशों तक सीमित था। इस्लाम के अनुकरण पर ही रोमन कैथोलिक चर्च ने पूरे यूरोप को अपनी छत्रछाया में लाने का अभियान प्रारम्भ किया। जर्मनी, बेल्जियम, हालैण्ड, नार्वे, स्वीडेन, डेन्मार्क, फिनलैंड आदि सब देशों में चर्च का प्रवेश सातवीं से ग्यारहवीं शताब्दी के बीच हुआ। मत-विस्तार के लिये शक्ति प्रयोग की कला भी चर्च ने संभवत: इस्लाम से ही सीखी, क्योंकि इसी कालखंड में ब्राद्रेन आफ स्वोर्डस अथवा आर्डर आफ लिवोनियन नाईट्स और सोसायटी आफ जेसुइट्स जैसे कट्टरवादी व आतंकवादी संगठनों का निर्माण हुआ। स्थानाभाव के कारण विस्तार में जाना संभव नहीं है किन्तु यदि पोप अपने कथन पर डटे रहते, तर्क व आस्था विषय की बहस को आगे बढ़ाते तो शायद इस्लाम और ईसाइयत के बीच सभ्यताओं के संघर्ष की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि सामने आ जाती। (22 सितम्बर, 2006)37

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