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गवाक्ष

by
Jan 10, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 10 Jan 2006 00:00:00

शिव ओम अम्बर

अभिव्यक्ति-मुद्रा

स्नानागारों में विरोध है बाहर हैं विनम्र मुद्राएं

सम्मोहन की थपकी उनको जो प्रतिरोधी स्वर अकुलाएं

जिसका कलम तेज है उसका अखबारों से जाना ऐसा,

मुखड़ा कुछ है सगरम कुछ है इधर चला है गाना ऐसा।

-अमरनाथ श्रीवास्तव

सभ्यता दान की है हमने गिरतों को सदा उठाया है,

चरणों पर राष्ट्र-देवता के अपना सर्वस्व लुटाया है।

हम विषधर के सर पर चढ़ कर अक्सर बांसुरी बजाते हैं,

छंगुनी पर गोवर्धन धरते हम दावानल पी जाते हैं।

युग-युग से शास्त्र पढ़े अब तो शस्त्रों के चालक हो जाओ,

पिटने के दिन अब चले गये अब तो आक्रामक हो जाओ।

-राजबहादुर विकल

श्रीरामचरितमानस में लंका-कांड की फल-श्रुति देते हुए गोस्वामी जी ने कहा है-

समर विजय रघुवीर के चरित जे सुनहिं सुजान,

विजय विवेक विभूति नित तिन्हहिं देहिं भगवान।

श्रीराम के युद्ध-चरित्र का स्मरण, उसका चिन्तन श्रवणकर्ता को उन्हीं की तरह अन्याय के प्रतिकार के लिये प्रतिबद्ध करता है और यदि वह धर्म-रथ पर आरुढ़ राम से युद्ध की कला और शैली सीख लेता है तो आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में विजय उसका सहज प्राप्य बन जाती है, विवेक उसमें नित्य प्रतिष्ठित रहता है तथा विभूति छाया की तरह उसका अनुगमन करती है। वस्तुत: हमारे तीन महनीय ग्रन्थ-रत्नों में से श्रीमद्भागवत हमें मरने का ढंग सिखाती है, श्रीरामचरितमानस हमें जीने की शैली की

दीक्षा देती है और श्रीमद्भगवद्गीता हमें लड़ने का तरीका सिखाती है। “मामनुस्मर युद्ध च” का आचरण-मन्त्र देने वाली भगवद्गीता के अन्तिम श्लोकों में वाचक संजय का भी कथन है-

यत्र योगेश्वरो कृष्ण: यत्र पार्थो धनुर्धर:,

तत्र श्री विजयोभूति: ध्रुवा नीति: मतिर्मम।

जहां श्रीकृष्ण का दर्शन है, जहां अर्जुन का शौर्य और समर्पण है वहां श्री- विजय- विभूति और नीति की सहज उपस्थिति है- ऐसा वेदव्यास का संजय के माध्यम से प्रकट अभिमत है।

श्री दुर्गा सप्तशती के दसवें अध्याय में शुंभ वध का वर्णन है जिसके उपरान्त “जगत् स्वास्थ्यमतीवाप” अर्थात् जगत् अपने सहज स्वास्थ्य को उपलब्ध हो गया- ऐसी घोषणा होती है। शुंभ वध के उपरान्त समस्त दिव्य शक्तियां विविध स्रोतों से भगवती महासरस्वती का अभ्यर्चन करती हैं। उनमें से एक श्लोक देवी के घण्टे की वन्दना का भी है जो वस्तुत: आसुरी शक्तियों के विरुद्ध युद्धरत शब्द और स्वर की सामथ्र्य अर्थात् नाद-तत्व की वन्दना का श्लोक है-

हिनस्ति दैत्य तेजांसि स्वनेनापूर्य या जगत्,

सा घण्टा पातु नो देवि पापेभ्यो न: सुतानिव।

जो अपने नि:स्वन से समग्र संसार को आपूरित करके दैत्यों के तेज को विनष्ट कर देता है, देवी का वह घण्टा (वात्सल्य भाव से) हमें पापों से बचाए!

हर विजयदशमी को दशहरे के मेले और दुर्गा-पूजा के उत्सव में आमोदमग्न विराट् समाज की कर्मकाण्डरत मानसिकता को देखकर मेरे चित्त में विक्षोभ की एक लहर उठती है। बिना राम का काम किये हम राम का नाम लेने में निपुण हो गये हैं और बालोचित उत्साह के साथ किये गये इन जयघोषों में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। नवरात्रि के उपवास, देवी-जागरण और सांस्कृतिक अनुष्ठानों के मध्य इस तथ्य को भुला दिया जाता है कि महिषासुरों और निशुंभों-शुंभों की आतंकमयी उपस्थितियों के मध्य हमारे अन्तस् में अमर्ष के जागरण की आवश्यकता है, देवी की प्रसन्नता के लिये सप्तशती के कथा-नायकों (वैश्य और राजा) समाधि तथा सुरथ की तरह अपने शरीर के रक्त की आहुति देने की आवश्यकता है- फिल्मी धुनों पर सारी रात चल रहे जागरणों की आत्म-विस्मृति से सचेत रहने की आवश्यकता है, उनमें डूबना धर्म के नाम पर आत्मघात है।

हमने अपने इतिहास के तथ्य और पुराण-साहित्य के कथ्य को बच्चों की कहानी बनाकर रख दिया है। हमें याद रखना होगा कि श्रीराम का रामत्व तभी प्रकट होता है जब वह अत्याचारियों से पीड़ित सात्विक व्यक्तित्वों की संरक्षा का संकल्प लेते हैं।

“निसिचरहीन करउं महि भुज उठाइ पन कीन्ह”।

हमें यह भी याद रखना होगा कि महिषासुरमर्दिनी का आविर्भाव समस्त देवताओं की एकत्र शक्ति के जाज्वल्यमान महापुंज से होता है। वैयक्तिक शक्ति को सामूहिक कल्याण के लिये समर्पित करने की आकांक्षा ही दिव्यता है और वही त्रिलोक को त्रास देने वाले हर आतंक का मूलोच्छेद करने में समर्थ है।

हम श्रीमराम की चाल भूल गये हैं- एक सिंह की चाल (ठवनि जुवा मृगराज लजाये)! हमारे शीर्षस्थ राजपुरुषों के समय-समय पर प्रसारित होने वाले वक्तव्यों में किसी सिंह की गर्जना नहीं, निरीह भेड़ों की मिमियाहट सुनाई पड़ती है! “संगच्छध्वं सम्वदद्ध्वं” (एक गति से चलो, एक स्वर में बोलो) जैसा वैदिक निर्देश प्राप्त करने वाले इस राष्ट्र के वर्तमान के शिखर पुरुष जब वन्दे मातरम् जैसे महामन्त्र के सामूहिक उच्चारण-अनुष्ठान से अनुपस्थित रहकर अपने क्लीवत्व को प्रमाणित करते हैं, बहुत विक्षोभ होता है दशहरे के मेले और दुर्गा-पूजा के उत्सव-पण्डालों को देखकर! स्वाभिमान, शौर्य और संकल्प से रहित नेतृत्व का जैकार करने वालों को श्रीराम और भगवती कात्यायनी का जयघोष करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है! इस परिवेश में बहुत अर्थपूर्ण लग रही हैं वेणुगोपाल जी की पंक्तियां-

मैंने कहा-

हे रावण! तेरे दस सरों में

बीस आंखें

कमाल है-

तू जब रोता होगा

वो दृश्य

कितना अजीब होता होगा!

रावण बोला-

चुप बेवकूफ!

ऐसा नहीं होता

रावण के राज्य में जनता रोती है

रावण नहीं रोता!

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