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नीतियों में बदलाव का खामियाजा भुगतेगा भारत
-जी. पार्थसारथी, पाकिस्तान में भारत के पूर्व उच्चायुक्त
भारत-पाकिस्तान के बीच हवाना में हुई बातचीत और उसके बाद जारी संयुक्त वक्तव्य में कुछ बातें विशेषज्ञों को चुभी हैं। मुझे उस तरह से भारत-पाकिस्तान के बीच सम्पन्न इस बातचीत से कोई आपत्ति नहीं है। पड़ोसी देशों के बीच बातचीत चलनी चाहिए। यहां तक कि कारगिल के युद्ध के दौरान भी बातचीत के जरिए संपर्क बना हुआ था। बहरहाल, वर्तमान वार्ता को लेकर मुझे दो प्रमुख आपत्तियां हैं। मेरी राय में पाकिस्तान और पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के प्रति हमारी नीतियों में एक बड़ा परिवर्तन दिखा है। प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह ने इस बातचीत के संदर्भ में एक आश्चर्यजनक बयान दिया है कि पाकिस्तान भी भारत की ही तरह आतंकवाद से पीड़ित है इसलिए दोनों देश मिलकर आतंकवाद से लड़ेंगे। इसके लिए दोनों देश एक संयुक्त ढांचा बनाएंगे। यह अभी प्रस्ताव है, कुछ तय नहीं हुआ है। इस पर मैं सवाल पूछना चाहता हूं कि पाकिस्तान आतंकवाद से पीड़ित कैसे हुआ? वहां के दो कट्टरपंथी गुटों, जैशे मोहम्मद और लश्करे जहांनवी को आई.एस.आई. से हथियार मिलते थे, समर्थन मिलता था, जैशे मोहम्मद का एक वर्ग इस बात को लेकर पाकिस्तान से खफा था कि उसने अफगानिस्तान में अमरीकियों की मदद की। लिहाजा, इस गुट में दो फाड़ हो गए। अत: पाकिस्तान में आतंकवादी हमले और मुशर्रफ के खिलाफ जो षड्यंत्र रचे गए, वह जैशे मोहम्मद के उसी नाराज हिस्से से संबंधित थे। यानी पाकिस्तान के खिलाफ तथाकथित आतंकवाद तो आई.एस.आई. की मदद से चल रहे गुट से पैदा हुआ था। दूसरे, लश्करे जहांनवी एक कट्टरपंथी सुन्नी गुट है जो जिहाद, ओसामा बिन लादेन से आगे बढ़कर शियाओं के कत्ल में लगा हुआ है। वहां वह साम्प्रदायिक संघर्ष है, जो एक बार फिर आई.एस.आई. समर्थित गुट के ही कारण है।
इससे ठीक उलट, भारत जिस आतंकवाद का सामना कर रहा है वह उन गुटों की ओर से है जिन्हें आज भी आई.एस.आई. का समर्थन मिलता है। प्रधानमंत्री ने मुम्बई बम विस्फोटों के दो दिन बाद कहा कि “निश्चित तौर पर” मैं कह सकता हूं कि इस आतंकवादी हमले को प्रोत्साहन और सहायता सीमा पार से मिली है। ऐसे में, आप कैसे कह सकते हैं कि पाकिस्तान जिस आतंकवाद से पीड़ित है, दोनों एक ही तरह के हैं? आप कैसे पाकिस्तान के साथ खुद को एक पाले में खड़ा कर सकते हैं? आतंकवाद का सामना करने के संदर्भ में यह बहुत गंभीर परिवर्तन है।
आतंकवाद को लेकर देश में पहले एक राष्ट्रीय सहमति थी। इससे फिर दो सवाल उठते हैं-एक, क्या प्रधानमंत्री ने ऐसा बयान देने से पूर्व अपने मंत्रिमण्डल की सहमति ली थी? क्या मंत्रिमण्डलीय सुरक्षा समिति से कोई सहमति ली? क्या देश में इस नई नीति के प्रति कोई आम समर्थन जुटाया? बिना सोचे-समझे हवाना में बैठकर इस तरह का नीति परिवर्तन करना, मेरे अनुसार, एक बड़ी भूल है।
एक और महत्वपूर्ण नीति परिवर्तन हुआ है। जब वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, मुशर्रफ ने उनको आश्वासन दिया था कि पाकिस्तान अधिकृत जमीन से (भारत के विरुद्ध) आतंकवादी हमले बंद होंगे। आज भारत के प्रधानमंत्री उन हमलों को बंद करने की बात ही नहीं कर रहे हैं, बल्कि कहते हैं “उन पर नियंत्रण रखो”। क्या मतलब है इसका? क्या इसका अर्थ है कि आप मुम्बई में विस्फोट मत कीजिए, इससे शर्मनाक स्थिति बनती है, हां, जम्मू-कश्मीर में हमारे सैनिकों के खिलाफ चाहे जो करें? मुझे इस विषय पर बहुत चिंता है। प्रधानमंत्री कहते हैं, हम मुशर्रफ पर भरोसा करते हैं। साझा बयान से 4 दिन पहले ही 12 सितम्बर को ब्राूसेल्स में जनरल मुशर्रफ ने एक सम्मेलन में कहा कि “ऐसे “फ्रीलांस टेररिस्ट” हैं जिन पर कोई नियंत्रण नहीं है। मैं इन आतंकवादियों के साथ संघर्षविराम के पक्ष में नहीं हूं। मेरे ख्याल में आतंकवाद की समस्या का हल तभी होगा जब कश्मीर का हल होगा।” मैं उस सम्मेलन में मौजूद था, हालांकि जनरल मुशर्रफ ने मुझे देखा नहीं, मैं पीछे की तरफ बैठा था। उनके कहने का अर्थ यही है न कि “जब तक भारत कश्मीर में हमारी मांगें पूरी न करे, यह आतंकवाद चलता रहेगा।” क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को जनरल मुशर्रफ के उन बयानों की जानकारी नहीं थी? इसी भाषण में जनरल मुशर्रफ ने दो मौकों पर भारत को “दुश्मन” की संज्ञा दी। महज चार दिन बाद 16 सितम्बर को साझा वक्तव्य जारी किया गया।
साझा वक्तव्य में जम्मू-कश्मीर, सियाचिन और सर क्रीक का उल्लेख किया गया। मैं समझता हूं कि सियाचिन का विषय राजनीतिक नहीं सुरक्षा सम्बंधी विषय है। परम्परा यही रही है कि इसके संबंध में रक्षा सचिव बात करेंगे। अब प्रधानमंत्री ने कह दिया है कि विदेश सचिव के स्तर पर बात करेंगे। इसका क्या मतलब है? प्रधानमंत्री इसे सुरक्षा की नहीं राजनीति की समस्या समझते हैं। सर क्रीक पर मेरा उतना आग्रह नहीं है, उसका हल तो ढूंढा जा सकता है। राष्ट्रीय हितों पर कोई सौदेबाजी किए बिना सर क्रीक का हल खोजा जा सकता है। लेकिन सियाचिन पर नीति-परिवर्तन क्यों किया? अगर आपने सियाचिन से सेना वापस बुला ली और इसक बाद वहां पाकिस्तानी आ जमे तो फिर आप सियाचिन वापस नहीं ले पाएंगे। भारतीय सैनिक क्या सोचेंगे? यही न कि भारत के इस अंग को बचाए रखने के लिए हमारे कई साथी मारे गए, और उन्होंने राजनीतिक तौर पर उसे सैनिकों से खाली करा लिया। इसके बाद कौन जवान अपनी कुर्बानी देने वहां जाएगा। यह बात सैनिकों के मनोबल पर कितना प्रभाव डालेगी, यह किसी ने सोचा है? साथ ही, जब तक कश्मीर समस्या का हल न हो, सियाचिन को खाली कर दें तो फिर हमारे हाथ में तुरुप का पत्ता कहां रह जाएगा? हम बातचीत में बराबरी के स्तर पर कैसे बैठेंगे? हमारे हाथ से बाजी निकल चुकी होगी।
नीतियों में बड़ा भारी परिवर्तन क्यों हुआ, इसके कारण क्या हैं, इस पर विचार जरूरी है। भारत-पाकिस्तान के बीच आतंकवाद से जूझने के लिए संयुक्त गुट का विचार बहुत पहले अमरीकियों ने रखा था। उस समय 1990 के दशक की शुरूआत में नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे। नरसिंह राव एक चतुर प्रधानमंत्री थे, उन्होंने अमरीका का वह प्रस्ताव टाल दिया। आज अमरीका के विचारक, चिंतक एक ही बात दोहराते दिखते हैं कि वे सियाचिन में “पीस एंड एंवायरनमेंट पार्क” या कोई “इंटरनेशनल पार्क” स्थापित करना चाहते हैं। इसका क्या मतलब है? वे वहां अंतरराष्ट्रीय निगरानी की बात कर रहे हैं। मुझे इन बातों को लेकर चिंता है। रक्षा सचिव के हाथ से लेकर सियाचिन का विषय विदेश सचिव को सौंपना नीति-परिवर्तन है। 1998 में वाजपेयी सरकार ने पाकिस्तान से साफ तौर पर एक ही विषय पर बातचीत करने की पेशकश की थी और वह यह कि दोनों देश अपनी-अपनी स्थिति तय कर लें कि कहां-कहां हम मौजूद हैं। पाकिस्तान ने इसे नहीं माना। जहां तक आतंकवाद और सियाचिन पर भारत सरकार का मौजूदा रुख है, मैं उससे पूरी तरह असहमत हूं। (वार्ताधारित)
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