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हमारे जवान सेवा करते रहें, और वे घुसपैठताकि निर्दोषों को मार सकें- गोपाल सच्चरजम्मू-कश्मीर में भारतीय सेना की इतनी लोकप्रियता इससे पूर्व कभी नहीं थी, जितनी 8 अक्तूबर, 2005 के विनाशकारी भूकंप के पश्चात उभर कर सामने आई है। इसका बड़ा कारण सैनिकों का उस समय प्रभावित लोगों की सहायता के लिए आगे आना था, जब चारों ओर भयानक विनाश लीला छायी हुई थी।सैनिकों ने मकानों के मलबे में दबे लोगों को न केवल बाहर निकाला अपितु उन्हें तुरन्त चिकित्सा शिविरों तक पहुंचाया। कई स्थानों पर अस्पताल भूकंप के कारण क्षतिग्रस्त हो गए थे। उन स्थानों पर तम्बू लगाकर अस्थाई चिकित्सा शिविर बनाए गए। उनके लिए दवाइयों आदि का प्रबंध किया गया तथा चिकित्सा के लिए तुरन्त कदम उठाए गए।कई भागों में भूकंप के कारण मार्ग तथा पुल टूट चुके थे। इन मार्गों को यातायात योग्य बनाया गया। जिन स्थानों पर वाहनों आदि का पहुंचना असंभव था उन स्थानों पर हेलीकाप्टरों तथा विमानों द्वारा भोजन आदि सामग्री तथा अन्य सहायता पहुंचाई गई। उनके आवास के लिए अस्थाई शिविर बनाए गए। सैन्य सूत्रों के अनुसार त्वरित चिकित्सा और भोजन आदि सहायता के अतिरिक्त 34 स्थानों पर सहायता शिविर स्थापित किए गए। 51,710 गर्म कोट, 3305 स्लीपिंग बैग, 50,000 पाजामे, 252 तिरपाल, 5400 तकिए, 5319 कम्बल, एक लाख गर्म जुराबें, 3530 तम्बू और कुछ दूसरे कपड़ों के साथ ही दवाइयां, सैकड़ों बर्तन, 15 स्थानों के लिए बिजली के जनरेटर भी उपलब्ध कराए गए।छिड़काव के लिए दवाइयां उपलब्ध कराने के साथ-साथ मकानों के मलबों से घायलों, शवों को ढूंढ निकालने के लिए 26 खोजी कुत्तों को भी काम पर लगाया गया। भूकंप के पश्चात प्रशासन तथा स्वयंसेवी संगठनों के सक्रिय होने से पूर्व सैनिकों ने जो तुरन्त सहायता उपलब्ध कराई उसकी सरकारी तंत्र तथा जनता द्वारा बहुत सराहना की गई है। किन्तु आश्चर्य और दु:ख की बात यह रही कि प्राकृतिक रोष के पश्चात भी उग्रवादियों तथा विघटन कार्यों में लगे तत्वों के व्यवहार में कोई परिवर्तन दिखाई नहीं दिया। मार-काट तथा निर्दोषों की हत्याएं विपदा की इस घड़ी में भी जारी रहीं। केवल इतना ही नहीं कई स्थानों पर सहायता कार्यों में रुकावटें उत्पन्न करने के प्रयत्न भी किए गए। उत्तरी कमान के कमांडिंग अधिकारी ले. जनरल दीपक कपूर तथा कुछ अन्य के अनुसार, “हिमपात, तूफानों तथा भूकंप से होने वाली विनाशलीला के समय सेना की सहायता का लोगों पर विशेष प्रभाव रहा है और जनता अब उग्रवादियों के ठिकानों से सम्बंधित महत्वपूर्ण सूचनाएं सेना को पहुंचाने में मदद करने लगी हैं।”इसके अतिरिक्त उग्रवादग्रस्त क्षेत्रों में लोगों के साथ सम्पर्क स्थापित करने तथा उनके दिल जीतने के लिए सेना ने गत वर्षों के दौरान कई कार्यक्रम प्रारम्भ किए हैं, जिनका नाम आपरेशन सद्भावना रखा गया। किन्तु सैनिकों का जनता के साथ बढ़ता यह लगाव अलगाववादियों तथा कुछ सेकुलर राजनीतिज्ञों को पसंद नहीं आ रहा है। क्योंकि सेना के विरुद्ध आरोप लगाना उनका एक बड़ा हथकण्डा रहा है तथा वह सदैव सेना के विरुद्ध परिस्थितियां उत्पन्न करके, सेना के विरुद्ध मानवाधिकार-हनन जैसे आरोप लगाकर भारत के विरुद्ध मोर्चा खोलते रहे हैं।उल्लेखनीय है कि कुछ ऐसे नेता भी इस दुष्प्रचार में सम्मिलित रहे हैं, जो स्वयं भारतीय होने का दम तो भरते हैं किन्तु वे अलगाववादियों के सुर में सुर मिलाकर सेना को राज्य से बाहर निकालने की बातें भी करते हैं। यह सत्य है कि विपदा के समय सहायता उपलब्ध करवाने तथा सद्भावना के कार्यक्रमों के कारण भारतीय सेना की लोकप्रियता बढ़ी है किन्तु विशेषज्ञों का मत है कि किसी लम्बे समय के लिए सेना को रक्षा कार्यों के अतिरिक्त अन्य कार्यों पर लगाना उचित नहीं है। इसके लिए अद्र्धसैनिक बलों को प्रयोग में लाया जाना चाहिए। पुराने अनुभव यही बताते हैं कि जब सेना के जवान भूकम्प पीड़ितों की सहायता में जुटे थे तो इस स्थिति का लाभ उठाते हुए उग्रवादियों ने नियंत्रण रेखा के पार घुसपैठ की। विशेषज्ञों का मानना है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के सन्दर्भ में ही सेना का अधिकतम उपयोग किया जाना चाहिए।30
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