सवाल कश्मीर का
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सवाल कश्मीर का

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Jan 1, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 01 Jan 2006 00:00:00

कश्मीर का सौदा- तरुण विजययह थी 9 मई, 1993 की पाञ्चजन्य की रपटकश्मीर का सौदा किया जा रहा है। गुड्डे-गुड़ियों के खेल की तरह देश के मसले सुलझाने में लगे तथाकथित बुद्धिजीवी और सरकारी नेता चौथे विकल्प के रूप में देशवासियों के गले ऐसा प्रस्ताव उतारने की कोशिश में लगे हैं, जिससे कश्मीर न केवल लगभग पूर्ण स्वतंत्र स्थिति में हो जाएगा बल्कि कश्मीर समस्या की जटिलता इन्हीं नेताओं के कारण अब तक जितनी बिगड़ी है, उससे भी अधिक जटिल होकर ऐसी स्थिति में देश को पहुंचा देगी कि सभी को मन से हार का बोध होगा और देश हमेशा के लिए कश्मीर से हाथ धो बैठेगा।इस खतरनाक सौदे के लेखाकारों में अमरीका में भारत के पूर्व राजदूत श्री आबिद हुसैन (जो आजकल राजीव गांधी फाउन्डेशन के उपाध्यक्ष हैं), सेन्टर फार पॉलिसी रिसर्च नामक विचार केन्द्र से जुड़े श्री भवानी सेन गुप्त और श्री वी.जी. वर्गीज, अवकाश प्राप्त ले. जनरल बोहरा, प्रधानमंत्री कार्यालय में संयुक्त सचिव श्री जय राम रमेश, कश्मीर सरकार के सलाहकार श्री अशोक जेतली तथा जम्मू कश्मीर सरकार के पूर्व सचिव और आजकल राजीव गांधी फाउंडेशन में सचिव पदपर कार्यरत श्री वजाहत हबीबुल्ला, भूतपूर्व विदेश सचिव तथा सम्प्रति जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक मुचकुन्द दुबे और निस्सन्देह बड़बोले गृहराज्यमंत्री राजेश पायलट हैं।मुस्लिम बहुल कश्मीरइनकी मंशा के पीछे छिपे कारणों और उसके प्रभाव का विश्लेषण इस रपट में आगे किया जाएगा। परन्तु उसके पहले यह समझना जरूरी है कि चौथा विकल्प है क्या? चौथे विकलप के अन्तर्गत कश्मीर को सेना रखने, विदेश सम्बंध, डाक टिकट और अपनी मुद्रा छापने के अलावा अन्य सभी मामलों में पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की जाएगी। यह सेकुलर अमीरका परस्तों का एक “समाधान” है, जिस पर पाकिस्तान को भी “राजी” किया जा रहा है। यहां यह उल्लेखनीय है कि कश्मीर में जितना अधिक असन्तोष उभरेगा और सरकार उससे निपटने में जितनी कमजोरी, नरमाई तथा ढीलेपन का परिचय देगी, इस चौथे विकल्प के समर्थकों का प्रस्ताव उतना ही मजबूती से पकड़ेगा आश्चर्य की बात तो यह है कि बी.जी. वर्गीज, भवानीसेन गुप्त और मुचकुन्द दुबे जैसे जाने-माने पत्रकारों और पूर्व अधिकारियों द्वारा अंग्रेजी समाचार पत्रों में इस “चौथे विकल्प” की खुलेआम वकालत की जा रही है। लेकिन राजनीतिक घटनाक्रम में हमारे नेता तथा जनता इतनी व्यस्त है कि इस ओर उनका ध्यान नहीं जा रहा है।भवानी सेन गुप्त 5 फरवरी, 1993 के हिन्दुस्तान टाइम्स में छपे अपने लेख “कश्मीर-नयी अवधारणा का उदय” में लिखते हैं- “यह अवधारणा जम्मू-कश्मीर के अखण्ड राज्य की है जो न तो सम्प्रभुता सम्पन्न होगा और न ही स्वतंत्र। परन्तु आन्तरिक मामलों में वह पूर्ण स्वायत्त होगा और संभव है उसे बाहरी देशों के साथ खुले आर्थिक सम्बंध कायम करने का भी अधिकार प्राप्त हो। उसे किसी विदेश नीति की आवश्यकता नहीं होगी। उसकी सुरक्षा की गारन्टी संयुक्त रूप से भारत और पाकिस्तान या तो अलग-अलग समझौतों द्वारा या एक समग्र भारत-पाकिस्तान-कश्मीर समझौते के अन्तर्गत कर सकते हैं।”और इसके बाद भवानी सेन गुप्त जैसे सेकुलर आंख मीच कर मुसलमान बहुसंख्यक कश्मीर के लोकतांत्रिक राज्य बनने का ख्वाब देखते हुए (जैसे पाकिस्तान तथा बंगलादेश हैं!) लिखते हैं-“यह अखण्ड कश्मीर राज्य सेकुलर लोकतांत्रिक इकाई होगा, जिसका ढांचा संघीय या एक इकाई वाला हो सकता है।”उल्लेखनीय है कि भवानी सेन गुप्त पाकिस्तान और भारत के समकक्ष ही कश्मीर को रखते हैं, इसका अर्थ या छिपा रह सकता है?हवाई सपनेचौथे विकल्प को आगे बढ़ाते हुए सेकुलर पत्रकार बी.जी. वर्गीज 25 मार्च के हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखते हैं, “यूगोस्लाविया और रूस में हो रहे घटनाक्रम से भारत को सावधान होना चाहिए। तीसरे विश्व की ही तरह भारत और पाकिस्तान भी राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में है।” अर्थात बी.जी. वर्गीज की राय में अभी भारत एक राष्ट्र नहीं बना है। इस दृष्टि से वह पाकिस्तान और बाकी विकासशील देशों के समान वर्ग में ही है। इसके बाद वर्गीज लिखते हैं, “आखिर क्या समाधान हो सकता है?” और यह सवाल पूछने के बाद वह स्वयं समाधान सुझाते हुए लिखते हैं, “एक चौथा विकल्प भी है। इसके अन्तर्गत दोनों सम्प्रभुता सम्पन्न देशों की स्थिति बरकरार रहेगी। लेकिन वे जम्मू-कश्मीर के दोनों ओर बड़ी मात्रा में स्वायत्तता (आत्म निर्णय, “आजादी”) प्रदान करेंगे। इस प्रकार भारत को अपने हिस्से के जम्मू-कश्मीर से इस बारे में एक स्वीकार्य समझौते पर बातचीत करने की आवश्यकता होगी और पाकिस्तान को “आजाद” कश्मीर, गिलगित तथा उत्तरी क्षेत्रों से। भारतीय पक्ष की ओर इस प्रक्रिया का अर्थ कश्मीर, जम्मू और लद्दाख के संघीयकरण से भी हो सकता है, जिसमें प्रत्येक इकाई को क्षेत्रीय स्वायत्तता दी जाए और फिर प्रत्येक उक्त इकाई को पंचायती राज या अन्य संवैधानिक व्यवस्था के अन्तर्गत जिस पर भी सहमति हो सके और अधिक विकेन्द्रीकृत किया जा सकता है।”आत्म प्रवंचनाइसके आगे वर्गीज 1953 की स्थिति की ओर लौटने जैसी बात ही दोहराते हैं, जिसमें विदेश, रक्षा तथा संचार विभाग के अलावा सभी विषय राज्य सरकार को दिए जाने की वकालत है। वह यह भी कहते हैं कि वर्तमान नियंत्रण रेखा ही अन्तरराष्ट्रीय सीमा के रूप में मान्य कर दी जाए, लेकिन यह “नरम” और “सछिद्र” सीमा होनी चाहिए जिसके आरपार व्यापार, सांस्कृतिक आदान-प्रदान, आर्थिक मुद्रा विनिमय इत्यादि की एक सीमा तक छूट मिले और इस सबके लिए कठोर नियम कानून न लागू किए जाएं। इससे विकास को बढ़ावा मिलेगा, पर्यटन और दोनों ओर के लोगों के संयुक्त परिवार एकजुट हो सकेंगे। इसके बाद श्री वर्गीज हर प्रकार के हवाई घोड़े दौड़ाते हुए कहते हैं कि इस सबसे क्षेत्र में लोकतंत्र मजबूत होगा, क्षेत्रीय सम्बंध मजबूत होंगे, पूरे क्षेत्र का आर्थिक और सामाजिक विकास होगा। अर्थात कश्मीर को मुस्लिम आतंकवादियों के हवाले करे दिल्ली में उनके जैसे बुद्धिजीवी और नेता चैन की सांस ले सकेंगे। कहा जा सकता है कि वर्गीज और दुबे जैसे लोगों की बातों को इतना महत्व क्यों दिया जाए? इसका जवाब यह है कि वर्गीज का “सेकुलर-अमीरकापरस्त-मुस्लिम झुकाव वाल-हिन्दुत्व विरोधी” गिरोह भारत सरकार का समर्थन पाकर सक्रिय है। जनवरी में ये लोग वाशिंगटन में अमरीका के गृह विभाग के सरकारी विचार केन्द्र “इंस्टीटूट ऑफ पीस” (शांति संस्थान) द्वारा आयोजित एक संगोष्ठी में भाग लेने गए थे। इस संगोष्ठी में “चौथे विकल्प” पर व्यापक चर्चा हुई और यद्यपि अभी तक इस संगोष्ठी के निर्णयों की अधिकृत रिपोर्ट नहीं आयी है फिर भी वाशिंगटन से लौटने के बाद ये “चौथे लोग” “चौथे विकल्प” की वकालत में जुटे हैं, उससे लगता है इस बिन्दु पर सभी राजी थे। और यह जानना दिलचस्प होगा कि ये “सभी” लोग कौन थे?इस अमरीकी संस्था ने भारत, पाकिस्तान, भारत के हिस्से वाले कश्मीर और गुलाम कश्मीर (पाकिस्तान कब्जे में) से प्रमुख और सरकार पर प्रभाव रखने वाले लोगों को बुलाया था। इनके नामों पर गौर करेंगे तो असलियत स्वयं खुल जाएगी। भारत से आमंत्रित थे सर्वश्री मुचकुन्द दुबे, ए.जी. नूरानी, भवानी सेनगुप्त, जन. ए.एम. वोहरा, बी.जी. गर्जीज, राजमोहन गांधी और वेद भसीन (जो नहीं जा पाए)। कश्मीर से थे- अब्दुल रशीद काबुली (नेशनल कांफ्रेंस के नेता, जो खुलकर आतंकवादियों का समर्थन करते हैं) तथा युसुफ जमील (श्रीनगर में बी.बी.सी. का संवाददाता, जिस पर आतंकवादी समर्थक खबरें देने के आरोप लग चुके हैं) युसुफ जमील संगोष्ठी में नहीं जा पाए थे। नूरानी तो हिन्दुत्व विरोधी सेकुलर लेखन तथा आतंकवादियों के मानवाधिकारों की वकालत के लिए बहुचर्चित रहे हैं। ये वही ए.जी. नूरानी हैं जिनके बारे में बताया जाता है कि उनके पाकिस्तान से इतने घनिष्ठ सम्बंध हैं कि पाकिस्तान से हुए हर युद्ध के दौरान उन्हें हिरासत में लिया जाता रहा है। पाकिस्तान से थे-फ्रंटियर पोस्ट, लाहौर के सम्पादक खालिद अहमद, संयुक्त राष्ट्र संघ के एक संस्थान में वरिष्ठ शोधकर्ता युसुफ बुच, ले.जन. इमरानुल्लाह खान (अवकाश प्राप्त), एयर मार्शल अयाज अहमद खान (सीरिया मं पाकिस्तान के पूर्व राजदूत), आई.ए. रहमान (इस्लामाबाद स्थित मानवाधिकार आयोग के निदेशक) तथा पूर्व विदेश सचिव अब्दुल सत्तार। भारत से इस संगोष्ठी में गए लोगों ने पूरी बात छिपा कर रखी। फिर जब खबर “लीक” हो गई तो शर्म छिपाने की क्या बात है।” बहरहाल, इन लेखों में जो कहा गया उनका सार ऊपर दिया जा चुका है। अब इस प्रकाश में सरकार के रवैये पर गौर करेंगे तो सारा तिलिस्म खुलता चला जाएगा।राजेश पायलट आतंकवादियों से दोस्ती की वकालत में दिल्ली-श्रीनगर एक किए दे रहे थे। इसलिए चह्वाण के मुकाबले उन्हें ज्यादा महत्वपूर्ण विषय देकर गृहराज्य मंत्री बनाया गया।जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल गिरीश सक्सेना को हटाकर उन जन.कृष्णा राव को राज्यपाल बनाया जो एक रीढ़हीन भ्रष्ट राज्यपाल के नाते कुख्यात हो चुके थे और पहले भी जिनके राज्यपाल पद संभालने पर आतंकवाद सबसे ज्यादा बढ़ा था। क्या यह आतंकवादियों को सरकार के नरम रुख का संकेत नहीं था? चौथे विकल्प की ओर रास्ता इसी मोड़ से तो गुजरता है।राज्यपाल के सलाहकारों में अशोक जेतली की नियुक्ति। ये वही आई.ए.एस. अधिकारी हैं, जिनका नाम कश्मीरी सरकारी अधिकारियों द्वारा भारत सरकार के जुल्मों के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र संघ को दिए गए ज्ञापन से जुड़ा था।और पिछले सप्ताह गृहमंत्री शंकरराव चह्वाण का बयान कि “हम कश्मीर को और अधिक स्वायत्तता देने के पक्ष में हैं।”इनसे कोई पूछे कि अरे “देशभक्तों, कश्मीर की धारा 370 देकर “अलग विधान, अलग निशान” तो दे ही रखा है। अब “और अधिक स्वायत्तता देने” का क्या मतलब है?मतलब है। जी हां वही चौथा विकल्प।इन घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में वाशिंगटन संगोष्ठी का असली मतलब समझ में आ जाता है। ये सब बातें आपस में जुड़ी हुई हैं। और रोचक बात यह है कि पाकिस्तान “चौथा विकल्प” मानने को तैयार है, बशर्ते भारत पहले आधिकारिक हरी झंडी दिखा दे।सवाल उठता है कि पाकिस्तान इस चौथे विकल्प को क्यों पसंद कर रहा है? क्योंकि1. कश्मीर की भारत से जितनी अधिक दूरी बढ़ेगी, उतना पाकिस्तान के हित में होगा2. चौथे विकल्प में भारतीय कश्मीर और गुलाम कश्मीर की सीमा “नरम”, “सछिद्र” अर्थात् लगभग खुली रखने का प्रस्ताव है।इसका पाकिस्तान को दोहरा फायदा होगा। उसे अपने आतंकवादी चोरी छिपे नहीं भेजने पड़ेंगे और भारतीय कश्मीर में हिन्दू कश्मीरियों की वापसी सदा के लिए अवरुद्ध हो जाएगी।एक बार यह चौथा विकल्प मान लिया गया तो वह शिमला समझौता भी रद्दी हो जाएगा, जिसकी मृतप्राय: देह पर आज भी समाधान का राग अलापा जाता है। फिर कश्मीर सदा-सर्वदा के लिए भारत से अलग हो जाएगा।(पाञ्चजन्य, 9 मई, 1993 में प्रकाशित आलेख)13

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