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पुस्तक समीक्षा

by
Jan 1, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 01 Jan 2006 00:00:00

द्वन्द्व का दर्द

डा. शत्रुघ्न प्रसाद

पुस्तक का नाम : मैं द्रोणाचार्य बोलता हूं (महाकाव्य)

लेखक : बलबीर सिंह करुण

पृष्ठ संख्या : 240, मूल्य : 300 रुपए

प्रकाशक : अमृत प्रकाशन, 1/5170, लेन-8, बलवीर नगर, शाहदरा-32

अलवर (राजस्थान) के कविवर बलवीर सिंह करुण हिन्दी काव्य जगत में प्रगतिशील भारतीय जीवनदृष्टि एवं राष्ट्रीय भावधारा के ओजस्वी एवं मनस्वी गीतकार हैं, तभी तो सर्वश्री नीरज, सोम ठाकुर तथा कुंअर बेचैन ने इनकी शुभाशंसा की है। इनकी लेखनी केवल गीत-कपोत की उड़ान को ही शब्दों में लयबद्ध नहीं करती रही है, बल्कि जीवन के यथार्थ को मुक्त छन्द में भी व्यंजित किया है। इन्होंने प्रबन्ध काव्यत्व का अभ्यास विजयकेतु में किया था। अब इनकी विकसित प्रबन्ध काव्यकला सन् 2004 में प्रकाशित “मैं द्रोणाचार्य बोलता हंू” में मुस्कुरा रही है।

गीत काव्य में चरित्रों को समग्रता में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। परन्तु प्रबन्धकला पूरी क्षमता की अभिव्यक्ति के अवसर तथा व्यापक दृष्टि के आलोक के प्रसार में सफल होती है। यह भी सत्य है कि प्रबन्ध की पुरातन शैली से आज यह संभव नहीं है और न माक्र्सवादी दृष्टि से, भारतीय चरित्रों को प्रगतिशील भारतीय दृष्टि से ही समझ कर नए युग की प्रेरणा के लिए चित्रित किया जा सकता है। बलवीर सिंह करुण ने इस सत्य को समझा है। महाभारत युग के तेजस्वी शास्त्र गुरु द्रोण पर शिष्य एकलव्य के प्रति अन्याय का आरोप लगता रहा है। राजा द्रुपद द्वारा अहंपूर्ण उपेक्षा की चर्चा तो महाभारत में हुई है परन्तु द्रोणाचार्य के अन्तर की पीड़ा सामने नहीं आ सकी है। एकलव्य की उपेक्षा का लगा आरोप साधारण नहीं है। आज तो शम्बूक और एकलव्य प्रतीक बन गये हैं। युगों से उपेक्षित तथा वंचित समाज इन्हें अपना प्रतिनिधि मानकर शेष समाज पर आक्रोश व्यक्त करने लगा है। राजनीति इस आधार पर तोड़ने का काम करने लगी है।

दृष्टा और स्रष्टा कवि करुण ने अपने चिन्तन के औदात्य एवं जीवन दर्शन के औचित्य के आधार पर आक्रोश को नए सृजन की ओर अग्रसारित किया है। एकलव्य का चरित्र तो वनवासी समुदाय का उज्ज्वल रूप है। निस्सन्देह कवि करुण ने अपने अन्तर का अमृत इस प्रबन्ध काव्य में उड़ेल दिया है। नए भारत की रचना के लिए अपनी प्रगतिशील दृष्टि से द्रोण तथा एकलव्य दोनों को आलोकित कर दिया है। ओजस्वी कवि की भाषा में तो ब्राहृपुत्र-सा उच्छल प्रवाह है। वैसे कामायनी से तुलना नहीं की जा सकती। निराला, दिनकर, श्यामनारायण पाण्डेय तथा नरेश मेहता के प्रबन्ध काव्यों से तुलना की जा सकती है तथापि इस प्रबन्ध काव्य में बलवीर सिंह करुण अपनी मौलिकता के साथ विद्यमान हैं।

इस काव्य का त्रयोदश पर्व मानो महाभारत का शांति पर्व है। मानवमात्र की चिर युगीन शांति आकांक्षा की अभिव्यक्ति है। फलत: काव्य का उत्कर्ष दिखाई पड़ा है। कवि की चाह है –

कौन-सा दिन या महूरत तय हुआ है

जब नहीं ये मृत्युवाही/पंख में बारूद बांधे

आंधियां भू पर चलेंगी

कब यहां रचनात्मक संवाद होंगे

खत्म कब ये राजनीतिक वाद होंगे

इसके दूसरे खण्ड में कविवर बलवीर सिंह करुण की राष्ट्र चेतना ने भारत के नवनिर्माण-नवसृजन की मंगल कामना की है। यह अभिनन्दनीय है –

खो दिया कुरुक्षेत्र में हमने बहुत कुछ

किन्तु अपनी भस्म से ही फिर जनम ले

हम उठेंगे, कीर्ति का हर शिखर छूने

हम नए फीनिक्स, नव संजीवनी हैं।

इस प्रकार कवि की राष्ट्रीय चेतना व्यापक मानवतावाद के साथ इस प्रबन्ध काव्य में महाकाव्यात्मक स्तर पर व्यंजित हुई है। द्रोण के द्वन्द्व के साथ सनातन मानव का द्वन्द्व सामने आया है। भाषा की सरलता, प्रांजलता, प्रवाहपूर्णता तथा कलाचेतना ने इस व्यापक चेतना को वाणी दी है।

डा. शत्रुघ्न प्रसाद

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