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चर्च को अमरीकी सहयोगअमरीका के कैथोलिक व गैर-कैथोलिक चर्च- दोनों के निशाने पर इस समय भारत के वे हिन्दू संगठन हैं जो चर्च के विस्तार में किसी तरह की रुकावट बन सकते हैं। अमरीका के चर्च का मुख्य मुद्दा यहां ईसाइयत का विस्तार करना है। पिछले साल एक अंग्रेजी साप्ताहिक ने अमरीकी प्रशासन द्वारा भारत में बड़े पैमाने पर हिन्दुओं का मतान्तरण कराने की योजना को समर्थन देने की रपट प्रकाशित की थी, जिसका न तो अमरीकी प्रशासन ने खंडन किया और न ही भारतीय चर्च ने। दरअसल, भारत के कई सामाजिक संगठनों के ईसाई नेताओं का पूरा भविष्य ही मतान्तरण की प्रक्रिया को बनाये रखने पर ही टिका हुआ है। यहां का चर्च नेतृत्व अमरीका में रहने वाले एशियाई देशों के अल्पसंख्यकों, विशेषकर ईसाइयों तथा मुस्लिम समुदाय को अपनी रणनीति के तहत हिन्दू संगठनों के विरुद्ध इस्तेमाल करता रहता है। इस समय भी “फेडरेशन आफ इंडियन अमरीकन क्रिश्चियन आर्गेनाइजेशन” राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े संगठनों के विरुद्ध मोर्चा खोले हुए है। “फेडरेशन आफ इंडियन अमरीकन क्रिश्चियन आर्गेनाइजेशन” एवं भारत के तथाकथित पंथनिरपेक्ष संगठनों के नेताओं ने “कांग्रेसनल वर्किंग ग्रुप रिलीजियस फ्रीडम” से अपील की है कि वह “भगवा ब्रिगेड” से जुड़े संगठनों व उसके नेताओं को अमरीका में प्रवेश की इजाजत न दे और अमरीका में रह रहे उनके समर्थकों पर भी नजर रखी जानी चाहिए। अमरीका द्वारा नरेन्द्र मोदी को वीसा नहीं दिए जाने के पीछे इसी संगठन का हाथ माना जा रहा है।हालांकि अमरीका का चर्च खुद मजहबी कट्टरता का शिकार है और वह सेकुलर अमरीका में अपना एजेंडा लागू करने में काफी हद तक सफल भी हो चुका है। पिछले कुछ समय से वहां के चर्च का सरकार में दबदबा बढ़ता ही जा रहा है। स्वयं अमरीकी राष्ट्रपति चर्च के कामों में रुचि ले रहे हैं। भारत के कई पादरियों को वे अब तक अपना मेहमान बना चुके हैं। राष्ट्रपति के चुनावों में भी कई देशों का चर्च नेतृत्व बुश के पक्ष में भी सक्रिय रहा है।भारत और अमरीका का चर्च नेतृत्व विदेशों में कार्यरत हिन्दू संगठनों की घेराबंदी करके उनके विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाकर अपने लिए यहां रास्ता साफ कर रहा है। उसका मकसद साफ है, वे भारत में अपनी संख्या बढ़ाना चाहते हैं और इस काम में अमरीकी सरकार और वहां का प्रशासन उनका सहयोग कर रहा है।कम्युनिस्टों की सही पहचानतसलीमा नसरीन का वीसा समाप्त होने के कारण उन्हें भारत छोड़ना पड़ा। देशभर, खासकर पश्चिम बंगाल में इस पर खासी बहस रही। इस बंगलादेशी लेखिका को पिछले दशक में अपनी विचार अभिव्यक्ति “लज्जा” के चलते इस्लामिक कट्टरपंथियों का कोपभाजन होना पड़ा था और तभी से अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर पनाह लेनी पड़ रही है। बंगलाभाषी होने के कारण तस्लीमा नसरीन ने पश्चिम बंगाल सरकार से शरण देने और भारत की नागरिकता की मांग की थी परन्तु उस पर सरकार ने कोई विचार करना उचित न समझा। पर उनके समर्थन व विरोध में होने वाली चर्चा से तथाकथित वामपंथी बुद्धिजीवियों के वास्तविक चरित्र को समझा जा सकता है। वह लोग जो दीपा मेहता की अश्लील फिल्म के प्रदर्शन को कुछ लोगों द्वारा रोक देने या सरस्वती के अभद्र चित्रण के लिए मकबूल फिदा हुसैन का विरोध होने पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का रोना रो रहे थे, कुछ तो तसलीमा के मामले में चुप्पी साध गए हैं और कुछ खुलकर तसलीमा नसरीन का विरोध भी कर रहे हैं। वामपंथी प. बंगाल में तसलीमा को रहने नहीं देना चाहते। राज्य सरकार ने पिछले दिनों मिदनापुर की एक सभा पर रोक लगा दी जहां लोग तसलीमा नसरीन का सम्मान करना चाहते थे। तसलीमा की पुस्तक “द्विखंडितो” पर भी प्रतिबंध लगाया गया। पुस्तक पर प्रतिबंध के मामले में सुनवाई के दौरान न्यायालय में ही लेखिका के खिलाफ कम्युनिस्टों ने नारे लगाए। यही है सच्चे कम्युनिस्टों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के “समर्थकों” की सही पहचान।NEWS
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