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क्या हिन्दी की लड़ाई हम हार चुके हैं?देवेन्द्र स्वरूपइसी सप्ताह एक रात मेरे मित्र डा. वेद प्रताप वैदिक का फोन आया। डा. वैदिक हिन्दी के जाने-माने पत्रकार और हिन्दी प्रेमी हैं। अब से चालीस वर्ष पूर्व इंडियन स्कूल आफ इन्टरनेशनल स्टडीज में अपनी पी.एचडी. थीसिस को हिन्दी में लिखने के लिए उन्होंने लम्बी लड़ाई लड़ी थी और जीती थी। तभी से वे हिन्दी को अखिल भारतीय राजभाषा और उच्च शिक्षा के माध्यम के रूप में प्रतिष्ठित देखने के लिए संघर्षरत हैं। अंग्रेजी हटाओ आंदोलन के अग्रणी हैं। उस दिन भी वे कुछ मित्रों के साथ हिन्दी आंदोलन के अगले चरण के बारे में विचार करने के लिए किसी जगह एकत्र हुए थे। वहां किसी के मुख से मेरा नाम हिन्दी विरोधी के रूप में सुनकर वे चौंक पड़े थे, उन्हें विश्वास नहीं हुआ था। उसी को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने मुझे फोन किया। मैं भी चौंक गया। मुझे स्मरण आया कि 1945 में जब मैंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में बी.एससी. में प्रवेश लिया तब हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने का कितना जोश था। हमारे रूइया छात्रावास की उपस्थिति पुस्तिका में वहां के प्रत्येक छात्र को हस्ताक्षर करने होते थे। मेरे आग्रह पर लगभग सभी छात्रों ने हिन्दी में हस्ताक्षर करना शुरू कर दिया। उन्हीं दिनों हमारे विश्वविद्यालय में आचार्य डा. रघुबीर आए। उन्होंने छात्रों के समक्ष हिन्दी माध्यम से शिक्षा विषय पर ओजस्वी भाषण दिया। रसायन शास्त्र विभाग के अध्यक्ष डा. फूलदेव सहाय वर्मा भी हिन्दी प्रेमी थे। उन्होंने अपने विभाग की प्रयोगशाला में सभी रसायनों की शीशियों पर अंग्रेजी फार्मूला नाम के साथ डा. रघुबीर द्वारा प्रवर्तित हिन्दी नाम भी लिखाए। वे हिन्दी नाम हमें रट गए थे। साठ साल बीत जाने पर भी उनमें से एक नाम अब तक मेरी स्मृति में अटका हुआ है। सिल्वर नाईट्रेट (ॠढ़ग़्दृ3) को डा. रघुबीर ने नाम दिया था “रजत भूयीय”।बी.एससी. पास करने के बाद चौदह वर्ष संघ प्रचारक के नाते बिताकर जब मैंने विद्याध्ययन पुन: प्रारंभ किया और लखनऊ विश्वविद्यालय में प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति में एम.ए. के लिए प्रवेश लिया तो कक्षा में “उपस्थित श्रीमन्” कहने की जिद्द के कारण मुझे काफी समय तक कक्षा से निष्कासित रहना पड़ा। किन्तु मैंने हिन्दी माध्यम से ही परीक्षा देने का निश्चय किया और ईश्वर कृपा से कक्षा में प्रथम स्थान पाकर अंग्रेजी माध्यम के सभी सहपाठियों को पीछे छोड़ दिया। लेखन के क्षेत्र में भी मैंने हिन्दी माध्यम को ही अपनाया है यद्यपि लगभग पूरा शोधपरक अध्ययन अंग्रेजी माध्यम से ही करना पड़ता है।ऐसी स्थिति में किसी हिन्दी प्रेमी के मन में मेरे हिन्दी विरोधी होने की धारणा क्यों पैदा हुई होगी? क्या अंग्रेजी की जगह हिन्दी को अखिल भारतीय राजभाषा के रूप में स्थापित करने का पुराना जोश अब सचमुच ठंडा हो गया है? क्या भाषा के मोर्चे पर हमने पराजय मान ली है? 14 सितम्बर, 1949 को जब लम्बी बहस के बाद भारतीय संविधान सभा ने देवनागरी लिपि में हिन्दी भाषा को 15 वर्ष की अवधि में पूरे भारत की राजभाषा के नाते लागू करने का संकल्प लिया था उसके पीछे स्वतंत्रता आंदोलन का लम्बा इतिहास खड़ा था। उन्नीसवीं शताब्दी में ब्रिटिश शासकों द्वारा शिक्षा, प्रशासन एवं न्याय व्यवस्था में आरोपित अंग्रेजी भाषा की दासता से छुटकारा पाना राष्ट्रीय आंदोलन की छटपटाहट बन गई थी। अंग्रेजी का स्थान हिन्दी ही ले सकती है, इस विचार का जन्म हिन्दीभाषी क्षेत्र में नहीं अहिन्दीभाषी बंगाल, महाराष्ट्र और गुजरात जैसे क्षेत्रों में हुआ। बंगाल के केशव चन्द्र सेन, राजेन्द्र लाल मित्रा, भूदेव मुखोपाध्याय जैसे मनीषियों ने आवाज उठायी कि अखिल भारतीय भाषा के रूप में अंग्रेजी की जगह लेने में हिन्दी पूरी तरह सक्षम है। गुजरात में जन्मे स्वामी दयानन्द जब संस्कृत भाषा के माध्यम से शास्त्रार्थ करते हुए गुजरात पहुंचे तो ब्राह्म समाजी केशवचन्द्र सेन ने उन्हें हिन्दी को जन सुलभ भाषा के रूप में अपनाने का सुझाव दिया और उन्होंने यह सुझाव माना। महाराष्ट्र के लोकमान्य तिलक ने सन् 1905 में कांग्रेस के मंच से पहली बार हिन्दी को अखिल भारतीय भाषा के रूप में अपनाने का उद्घोष किया। पहला हिन्दी समाचार पत्र “उदंतमार्तंड” (1826) भी किसी हिन्दी भाषी क्षेत्र में प्रारंभ न होकर बंगाल में ही शुरू हुआ था। सन् 1882 में लाहौर एंग्लो-ओरियंटल कालेज के अंग्रेज प्रिन्सिपल जे.डब्ल्यू लैटनर ने लिखा कि पंजाब के सिख बंगालियों के बहकावे में आकर पंजाबी के बजाय हिन्दी के पीछे दौड़ रहे हैं। उसी समय ब्रिटिश सरकार द्वारा स्थापित इंटर शिक्षा आयोग के सामने साक्षी देते हुए अंग्रेजी दैनिक ट्रिब्यून के संस्थापक सरदार दयाल सिंह मजीठिया ने पंजाब में प्राथमिक शिक्षा के माध्यम के रूप में देवनागरी लिपि में हिन्दी को अपनाने का आग्रह किया था। 1915 में गांधी जी के द. अफ्रीका से स्वदेश वापसी के बाद तो उन्होंने स्वभाषा के रूप में हिन्दी को ही स्वतंत्रता आन्दोलन एवं राष्ट्रीय एकता का एक अनिवार्य प्रतीक बना दिया था। संविधान सभा के 14 सितम्बर, 1949 के निर्णय को स्वतंत्रता आंदोलन की परिणति के रूप में ही देखा जाना चाहिए।कितनी बढ़ी हिन्दी?किन्तु उस संकल्प की पूर्ति की दिशा में स्वाधीन भारत आधी शताब्दी के बाद कहां पहुंचा है? राजभाषा के नाते हिन्दी आगे बढ़ी है या पीछे हटी है? अंग्रेजी की पकड़ हमारे जीवन पर ढीली हो रही है या मजबूत हो रही है? भारत का आज का भाषायी चित्र क्या है? क्या “अंग्रेजी हटाओ, हिन्दी अपनाओ” आंदोलन के अगले चरण की रूपरेखा बनाते समय भाषायी यथार्थ का वस्तुपरक आकलन आवश्यक है या नहीं? राजभाषा के मोर्चे पर हमने पहली पराजय स्वीकार की जब 17 अगस्त, 1964 को लोकसभा ने निर्णय किया कि संविधान द्वारा निर्धारित 26 जनवरी, 1965 की समय सीमा के बाद भी अंग्रेजी को प्रशासन की भाषा के रूप में अनिश्चित काल के लिए तब तक बनाए रखा जाएगा, जब तक सभी अहिन्दी भाषी राज्य हिन्दी को राजभाषा के रूप में अपनाने को तैयार न हों। क्या ये राज्य अंग्रेजी की जगह हिन्दी को राजभाषा के रूप में अपनाने की दिशा में कोई मानसिक और व्यावहारिक तैयारी कर रहे हैं? उल्टे, हिन्दी विरोध को उन्होंने अपनी चुनावी राजनीति का सशक्त हथियार बना लिया है। वहां के राजनीतिक दल आतुरता से प्रतीक्षा कर रहे हैं कि हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिलाने के लिए कोई आवाज उठे या कदम बढ़े तो वे हिन्दी विरोधी भाषायी उभार की लहर पर सवार होकर सत्ता पर काबिज हों। इस क्षेत्रवाद ने हिन्दी प्रेमियों के सामने “हिन्दी बनाम राष्ट्रीय एकता” का गहरा द्वन्द्व खड़ा कर दिया है। हमने हिन्दी को राष्ट्रीय एकता एवं स्वदेशी के प्रतीक के रूप में देखा है, हम अपने हिन्दी प्रेम पर राष्ट्रीय एकता को तोड़ने का लांछन कैसे सहन कर सकते हैं? इसमें सन्देह नहीं कि अहिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी विरोध एक राजनीतिक मुद्दा बन गया है। क्योंकि इन्हीं राज्यों में टेलीविजन और फिल्मों के माध्यम से हिन्दी की लोकप्रियता और ग्राह्रता बढ़ती जा रही है। टेलीविजन के सभी समाचार चैनलों पर हम सभी अहिन्दी भाषी राज्यों के राजनीतिक नेताओं और बौद्धिकों को हिन्दी के माध्यम से अपनी बात कहते-सुनते देखते हैं। अत: बिना औपचारिक, सरकारी घोषणा के हिन्दी पूरे भारत में चुपचाप रिसती-फैलती जा रही है।डद्धऊ हिन्दी की प्रगति का एक दूसरा प्रमाण भी आंखों के सामने है। हिन्दी के दैनिक समाचारपत्रों की प्रसार संख्या तेजी से बढ़ रही है। अनेक दैनिक पत्र बहुसंस्करणीय हो गए हैं। दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर की प्रसार संख्या अब सर्वाधिक प्रसार संख्या वाले अंग्रेजी दैनिकों से आगे पहुंच गयी है। अभी पिछले महीने अपने कस्बे में गया तो यह जानकर आश्चर्यचकित रह गया कि उस पूरे क्षेत्र में किसी अंग्रेजी दैनिक पत्र की एक भी प्रति नहीं आती। हम दिल्ली में बैठकर केवल अंग्रेजी दैनिकों की ही चर्चा करते रहते हैं। हमारी धारणा बनी है कि अंग्रेजी मीडिया पर पल रहा अंग्रेजी शिक्षित वर्ग ही भारतीय जनमन का वास्तविक निर्माता है। इस धारणा को बल इस बात से भी मिलता है कि अंग्रेजी भाषा में विचार प्रधान नियतकालिकों की संख्या एवं ग्राहक संख्या बढ़ती जा रही है। वहीं हिन्दी में लगभग सभी विचार प्रधान पत्रिकाएं-धर्मयुग, दिनमान, हिन्दुस्तान, कल्पना, सरस्वती, नवनीत आदि कालकवलित हो गईं और जो बची हैं वे अस्तित्व रक्षा के लिए जूझ रही हैं। अधिकांश बौद्धिक कार्यक्रमों और संगोष्ठियों पर अंग्रेजी का प्रभुत्व बढ़ता जा रहा है।अंग्रेजी का मोहइससे भी अधिक चिन्ता की बात यह है कि अब प्राथमिक स्तर की शिक्षा के माध्यम के रूप में भी अंग्रेजी को वापस लाने की प्रक्रिया तेजी से आगे बढ़ रही है। गुजरात और प. बंगाल जैसे राज्य, जिन्होंने दृढ़तापूर्वक अंग्रेजी को प्राथमिक शिक्षा के माध्यम के रूप में नहीं अपनाया था अब पीछे हट गए हैं। हरियाणा, पंजाब जैसे राज्य भी अंग्रेजी को वापस ला रहे हैं। हिन्दी भाषी राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों में भी अब अंग्रेजी माध्यम स्कूलों की मांग उठ रही है। नर्सरी स्तर से अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा देने वाले पब्लिक स्कूलों का तेजी से विस्तार हो रहा है। गली-गली में अंग्रेजी माध्यम स्कूलों के बोर्ड लटके हुए हैं। बच्चों की अंग्रेजी सुधारने के लिए उनके माता-पिता उनसे घर में भी अंग्रेजी में ही संवाद करें, उन्हें अंग्रेजी बोलने की आदत डालें। इसका परिणाम हुआ है कि हमारी बोलचाल की हिन्दी में अंग्रेजी शब्दों की भरमार हो गई है। अब हम खिचड़ी भाषा बोलते हैं।आखिर अंग्रेजी के प्रति हमारा मोह क्यों बढ़ता जा रहा है? क्या हमारी राष्ट्रभक्ति और स्वदेशी चेतना पूरी तरह मर चुकी है या कोई परिस्थितिजन्य मजबूरियां हैं जो हमें अंग्रेजी के जाल में फंसा रही हैं? जब शिक्षा का मुख्य उद्देश्य जीविकार्जन के अवसर प्रदान करना बन चुका हो तब स्वाभाविक ही, वह भाषा हमारे लिए अधिक उपयोगी व महत्वपूर्ण बन जाती है, जो जीविकार्जन के अधिक से अधिक अवसर हमारे लिए खोल सके। इस दृष्टि से देखें तो सभ्यता और व्यापार के भूमंडलीकरण एवं सूचना क्रांति के फलस्वरूप अंग्रेजी अब वैश्विक भाषा के रूप में उभर रही है। अपनी भाषाओं के प्रति अत्यधिक अभिमान व आग्रह रखने वाले चीन, जापान, कोरिया जैसे एशियाई देश भी अब अपने यहां अंग्रेजी भाषा की शिक्षा को प्रोत्साहित कर रहे हैं। अंग्रेजी कम्प्यूटर और इन्टरनेट की भाषा बन गई है। कम्प्यूटर हमारे यहां प्राथमिक विद्यालयों तक में प्रवेश पा रहा है। उसके माध्यम से अंग्रेजी भी फैल रही है। विदेशों में भारतीयों के लिए नौकरी के अवसर खुल गए हैं, आउटसोर्सिंग के द्वारा भारत में ही विदेशी नौकरियों की संख्या बढ़ रही है। विदेशी कम्पनियां भारत में अपनी शाखाएं खोल रही हैं। इन सबमें अधिक वेतन वाली नौकरियां पाने की चाह बढ़ रही है। उसके लिए अंग्रेजी का ज्ञान आवश्यक माना जा रहा है। अहिन्दी भाषी राज्यों के लोगों को लगता है कि यदि हिन्दी प्रशासन और न्याय की भाषा बन गई तो प्रशासनिक सेवाओं की प्रवेश परीक्षा में वे हिन्दी भाषी परीक्षार्थियों से पिछड़ जाएंगे? इस प्रकार नौकरियों द्वारा जीविकार्जन के अन्तर्देशीय व अन्तरराष्ट्रीय कारण मिल कर अंग्रेजी शिक्षा की ओर रुझान को बढ़ा रहे हैं।भाषा का महत्व व्यावहारिक जीवन में उसकी उपयोगिता से बढ़ता है। विचारणीय है कि स्वाधीनता पूर्व भारत में व्यापार और उद्योग में हिसाब-किताब व पत्राचार का माध्यम स्थानीय एवं व्यापारी या मुंडी भाषा होती थी। किन्तु स्वाधीन भारत में उनका स्थान अंग्रेजी भाषा ने ले लिया। इसमें मुख्य योगदान सेल्सटैक्स (विक्रयकर) एवं लेखांकन व लेखा परीक्षकी (आडिटिंग) का रहा। मेरा छोटा भाई कस्बे में व्यापार करता था, उसे अंग्रेजी नहीं आती थी। वह मुंडी या देवनागरी में अपना हिसाब रखता था और व्यापारियों से पत्राचार करता था। किन्तु उसने बताया कि सही हिसाब रखने पर सेल्स टैक्स विभाग ने उसके खातों को देखने से इंकार कर दिया और उसे दो-तीन वर्ष तक कई गुना अधिक सेल्स टैक्स देने के लिए मजबूर कर दिया। अन्तत: उसे अंग्रेजी पद्धति से हिसाब लेखन अपनाना पड़ा। भारत सरकार द्वारा बी.जी. खेर की अध्यक्षता में गठित राजभाषा आयोग ने 1956 में जो रपट दी उसमें ही लेखांकन और लेखा परीक्षण में हिन्दी भाषा को अपनाने की कठिनाइयों पर प्रकाश डाला गया है (पृष्ठ-131-134)।रास्ता क्या है?इन सब व्यावहारिक कठिनाइयों पर विजय पाने के लिए जो दृढ़ संकल्प शक्ति चाहिए थी उसको हमने सचमुच प्रगट नहीं किया है। यह भारत की आधे से अधिक जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करने वाले हिन्दी भाषी राज्यों का दायित्व था कि वे हिन्दी को एक समृद्ध, सक्षम, मौलिक बौद्धिक भाषा के रूप में विकसित करते। मुझे स्मरण है कि जब मैं कालेज में इतिहास का शिक्षक था तो अनेक प्रकाशक स्टाफ रूम में मेरे पास हिन्दी और संस्कृत की पुस्तकें दिखाने लाते थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि धोती कुर्ता धारी होने के कारण मैं इन्हीं विषयों का शिक्षक हूंगा। तब मैं उन्हें अपने कोट पैंट धारी हिन्दी संस्कृत सहयोगियों की ओर भेज देता था। यह कितनी लज्जा की बात है कि स्वाधीनता के 58 वर्षों में भी हिन्दी का स्वरूप सुनिश्चित नहीं हो पाया है। साहित्य सृजन के नाम पर वह केवल कथा-कहानी, नाटक, कविता और आलोचना तक सीमित रह गई है। जीवन के व्यावहारिक विषयों विज्ञान, वाणिज्य, समाजशास्त्र, राजनीति शास्त्र आदि में वह केवल अनुवाद की भाषा बनकर रह गई है। अनेक बार उन अनुवादों की बोझिल कृत्रिम भाषा में उलझने से अंग्रेजी मूल को पढ़ना अधिक सुगम लगा है। आज हिन्दी अपने ही क्षेत्र में तीन-चार चुनौतियों से घिर गई है। एक ओर चुनावी अल्पसंख्यक राजनीति के कारण शिक्षा के माध्यम के रूप में उर्दू का प्रसार बढ़ रहा है, उतना ही हिन्दी का प्रसार क्षेत्र संकुचित हो रहा है। दूसरे, अब आंचलिक बोलियां भी पृथक और स्वतंत्र भाषा का दर्जा पाने के लिए जोर लगा रही हैं। पारिवारिक बोलचाल की भाषा के रूप में उनका स्थान व जीवन अक्षुण्ण है। हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि हिन्दी भाषा का जो साहित्यिक रूप हमारे सामने है उसके विकास की प्रक्रिया अट्ठारहवीं शताब्दी के अंतिम दशक से पीछे नहीं जाती। पर वह विकासमान भाषा है। अधिकाधिक प्रयोग से ही भाषा का विकास होता है, वह समृद्ध होती है। हिन्दी को समृद्ध बनाना हिन्दी प्रेमियों का दायित्व है।कुछ वर्ष पूर्व जब स्व. डा. शंकर दयाल शर्मा राष्ट्रपति थे एक पुस्तक के लोकार्पण कार्यक्रम में उनके विचार सुनने का अवसर मिला। वहां केवल 15 व्यक्ति थे जिनमें अधिकांश सांसद और पूर्व मंत्री थे। डा. शर्मा ने अनौपचारिक वार्ता में कहा कि यदि सभी हिन्दी भाषी राज्य हिन्दी को शिक्षा, प्रशासन, न्याय-व्यवस्था और साहित्य सृजन में अपना लें तो शेष भारत हिन्दी को बिना कुछ दबाव डाले अपने आप अपना लेगा। वस्तुत: हिन्दी को उसका योग्य स्थान दिलाने का दायित्व अब सरकार पर नहीं समाज पर है।अत: समय आ गया है कि भाषा के प्रश्न पर नए सिरे से यथार्थवादी चिन्तन किया जाए। मेरे कहने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि हम पराजय स्वीकार कर लें, हथियार डाल दें। पर आवश्यकता है आज राष्ट्रीय और वैश्विक यथार्थ को समझ कर एक नई रणनीति बनाने और स्वभाषा, राष्ट्रीय एकता और वैश्वीकरण के बीच संतुलन बैठाने की। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उभरी राष्ट्रीय स्वाभिमान और संकल्प की भावना को पुनरुज्जीवित करना होगा। हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि अंग्रेजी ने हिन्दी को स्थानच्युत नहीं किया था बल्कि संस्कृत को अखिल भारतीय बौद्धिक भाषा के स्थान से हटाया था। यदि संविधान सभा ने संस्कृत के शिक्षण को अनिवार्य बना दिया होता तो हमारी भाषा और लिपि की समस्या आज काफी कुछ हल हो जाती। पर संस्कृत के प्रति मुस्लिम विरोध और संस्कृत तथा फारसी को समकक्ष मानने के कारण यही नहीं हो सका जबकि संविधान सभा में अनेक स्वर संस्कृत के पक्षधर थे।(2 दिसम्बर, 2005)NEWS
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