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कुछ आगे बढ़ें और देश की सोचेंतरुण विजयअभी पिछले दिनों असम के कार्बी-आंग्लांग क्षेत्र से जनजातीय नेता दिल्ली आए। वहां उनके क्षेत्र में 105 लोगों को बर्बरता से मार डाला गया। परंतु दिल्ली में शायद ही कहीं आहट हुई हो। सामान्यत: पत्र-पत्रिकाओं में एक ही बात छपी कि यह दो भिन्न जनजातियों के मध्य संघर्ष था। वे अपना दुख समझाना चाहते थे और दिल्ली का ध्यान, विशेषकर सत्ता और विपक्ष दोनों को यह बात बताना चाहते थे कि कार्बी दिमासा संघर्ष दो जनजातियों का आपसी संघर्ष नहीं है क्योंकि यह कभी हो ही नहीं सकता। दोनों के मध्य संघर्ष कोई तीसरी ताकत करा रही है। सबको मालूम है कि यह तीसरी ताकत चर्च है और उसके साये में फल- फूल रहे ईसाई विद्रोही। लेकिन चर्च के विद्रोही संगठनों का आतंक इतना प्रभावी है कि उसका सीधा-सीधा नाम लेने में भी वहां के लोगों को डर लगता है।लेकिन जो लोग कार्बी और दिमासा जनजातियों के दर्द को पूरे देश में उठा सकते थे और उसके संदर्भ में कोई समाधान ढूंढने के लिए सरकार को बाध्य कर सकते थे वे तो किसी और ही संघर्ष में डूबे हुए थे। महाराष्ट्र से केरल होते हुए मध्य प्रदेश तक आ जाइए, एक ही तरह की खबर सुर्खियों में छाई है और वह है उन लोगों, संगठनों या पार्टियों के बारे में, जिन्हें सामान्यत: मीडिया हिन्दू विचार परिवार का अंग मानता है। केरल में तो अगले कितने सालों में भाजपा सत्ता में आएगी, यह भाजपा नेता भी कहने में कठिनाई महसूस करेंगे। पर वहां भी एक आध्यात्मिक आन्दोलन से जुड़े भाजपा नेता ने दूसरे भाजपा नेता पर सार्वजनिक बयान में ऐसे गंभीर आरोप लगाए, जिन्हें सुनकर और पढ़कर कांग्रेसी एवं कम्युनिस्ट मुस्कुराए और हंसे, जनता ने ज्यादा ध्यान ही नहीं दिया। सामान्यत: जनता यह मानने लगी है कि राजनीति कुछ लोगों के लाभालाभ का सौदा है -जनता तो सिर्फ एक मोहरा बनती है इस पूरे खेल में। महाराष्ट्र में शिवसेना पारिवारिक झंझटों में फंस गई है तथा बिहार में जीत की खुशी और लालू का धराशायी होना मनोबल बढ़ाने वाला है, यह सबने कहा पर तभी भाजपा के आंगन में “मध्य प्रदेश” हो गया।हमें विश्वास है, लोगों की प्रार्थनाओं से अमिताभ बच्चन जल्दी ही ठीक होंगे और वे “कौन बनेगा करोड़पति” में अगला सवाल यह पूछेंगे कि वह कौन-सा राज्य है, जहां बेहद आरामदायक बहुमत लेने के बाद भी भाजपा के किसी मुख्यमंत्री ने पांच साल का कार्यकाल पूरा किया हो? झगड़े, प्रतिशोध, ईष्र्या, टांग खिंचाई, जिन्दगी भर क्षमा न करने का भाव-यह सब तो राजनीतिक स्वभाव का अंग है, समझ में आता है। पर यह समझ में नहीं आता कि कोई पार्टी स्वयं को क्षतिग्रस्त करने के लिए इतनी एकाग्रता और तल्लीनता से क्यों जुटी है? आज की परिस्थिति में भारत भाजपा का है, लेकिन भाजपा भारत की क्यों नहीं बन रही, इसे कौन समझाएगा?दूसरी तरफ आप माकपा और कांग्रेस को देखिए। उनमें भाजपा से कम असन्तोष, मतभेद या विचार भिन्नताएं हैं, यह तो वे लोग भी स्वयं नहीं मानते। विदेशी पूंजीनिवेश, विश्व व्यापार संघ, बिहार नीति जैसे अनेक मुद्दे हैं, जिन पर कम्युनिस्टों और मनमोहन सिंह का मतभेद खुलकर अखबारों में जाहिर हुआ। संप्रग में सोनिया की नीतियां हर जगह असफल हुई हैं। हिन्दू हितों और संवेदनाओं पर खुलकर चोट हुई है। इसके बावजूद कहीं किसी पतीली में उबाल नहीं उठा।अपने राजनीतिक विरोधियों को सिर्फ इसलिए निशाने पर रखना क्योंकि उनकी नीतियां आप देश या अपने लिए अनुकूल नहीं मानते एक अलग बात है। लेकिन अपने हित के लिए अपने विरोधियों से भी कुछ सीखना बुद्धिमानों का काम है।पूर्वांचल से दक्षिण, दक्षिण से पश्चिम और पश्चिम से उत्तर- हर सीमा विद्रोही गतिविधियों और आतंकवाद से लबरेज है। महंगाई बढ़ रही है। हर आवश्यक वस्तु पहले से महंगी हुई है।आम नागरिक हो या खास विधायक, हत्याएं इस तरह बढ़ रही हैं जैसे हमारे आम जीवन का सामान्य और चिन्ता रहित अंग हो। अखबारों के दबाव में राजनीतिक पार्टियां खानापूर्ति के लिए संसद का एजेण्डा तय करने लगी हैं। कोई यह न कहे कि फलां संवेदनशील मुद्दा नहीं उठाया। सिर्फ उस पर्दे की लाज के लिए थोड़ा-थोड़ा शोर मचाया जाता है, वरना तो मामला इसी बात पर टिका रहता है-किसको क्या मिला या किसको क्या मिलने वाला है।जहां यह जरूरी है कि हिन्दू विचार परिवार के संगठन और पार्टियां अपने कार्यकर्ताओं की अन्तव्र्यथा सुनने, समझने और उनका समाधान खोजने का अवकाश दें वहीं संगठन की मर्यादा का पालन भी पहली शर्त है। ठीक है कि दीवार के कोने तक किसी को ले जाएं और उम्मीद करें कि वह सर झुकाए कहेगा कि जो हुकुम मेरी सरकार- तो यह आज के जमाने की रीति-नीति को देखते हुए कुछ ज्यादा ही अपेक्षा करना है पर वाणी संयम, संगठन की रीति-नीति का ध्यान, वायदा करके उसे निभाने की ताकत, सार्वजनिक तौर पर क्या बोलना है क्या नहीं, इस भेदाभेद का भान तो होना ही चाहिए। जिस समय देश को एक प्रखर, मुखर और प्रभावी विपक्ष की आवश्यकता थी, उस समय वह विपक्ष और विपक्षी नेता सिर्फ अपने में ही व्यस्त हों, तो जनता किससे उम्मीद करे? इस संकटापन्न स्थिति से जुड़े सभी हिन्दू संगठनों और पार्टियों को उबरना होगा। कश्मीर कराह रहा है, उत्तर-पूर्व में हर रोज नए नरसंहार हो रहे हैं, दक्षिण में कानून की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। कम से कम अब तो हम तय करें कि हिन्दू पराभव का इतिहास नहीं दोहराएंगे। पैसा, सत्ता और बंगले कभी किसी को यश नहीं देते। जो लोग अनुशासन और बलिदान के नाम पर सांसें लेते हैं, उन्हें यह बात बताना सीमातिक्रमण नहीं होना चाहिए।NEWS
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