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मंथन

by
Oct 7, 2005, 12:00 am IST
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दिंनाक: 07 Oct 2005 00:00:00

सोनिया पार्टी और कम्युनिस्टों की नूरा कुश्तीदेवेन्द्र स्वरूपकेट मैच फिक्सिंग तो बहुत सुनी होगी पर अब आप राजनीति में मैच फिक्सिंग देखिये। चालू भाषा में इसे नूरा कुश्ती भी कहते हैं। अभी पिछले हफ्ते हमने नूरा कुश्ती का नजारा सब टेलीविजन चैनलों पर अपनी आंखों से देखा। बताया गया कि केन्द्र की कांग्रेसनीत गठबंधन सरकार के खिलाफ वाम मोर्चा देशव्यापी विरोध प्रदर्शन कर रहा है। प्रदर्शन के लिए प्रमुख राजधानियों को चुना गया। राज्यभर से कार्यकर्ताओं को राजधानी में बटोरा गया। सभी के हाथों में लाल झंडे और बैनर थमा दिए गए। टेलीविजन पर केवल झंडे और बैनर ही छाये रहे। लोग कम, झंडे ज्यादा। दिल्ली का नजारा तो और भी अजीब था। मुट्ठीभर लोग व्यूह रचना में खड़े। इधर अवरोधों के पीछे दोस्ताना पुलिस भी युद्ध स्थिति में खड़ी। अगले दिन सभी अखबारों में पहले पन्ने पर चित्र छपे। अवरोधकों की युद्ध रेखा पर दोनों ओर के योद्धा एक-दूसरे की पंक्ति को पीछे धकेलते हुए। पर इस युद्ध में किसी को खरोंच नहीं आयी, कोई गिरफ्तार नहीं हुआ, दिल्ली के जन जीवन में कोई बाधा नहीं पड़ी। पर टेलीविजन और अखबारों में प्रचार ऐसा हुआ, बड़े-बड़े रंगीन चित्र ऐसे छपे कि मानो इससे भयंकर जबर्दस्त जनप्रदर्शन इसके पहले कभी हुआ ही न हो। आखिर प्रदर्शन क्यों किये जाते हैं? मीडिया के माध्यम से जन मानस पर छाने के लिए। प्रदर्शन की रचना के लिए भी अक्ल लगती है। कैसे टेलीविजन कैमरों के सामने छोटे से ग्रुप को प्राभवी रूप से खड़ा किया जाय। कैसे वृन्दा कारत को हाथ उठाकर वीर नारी की युद्धक मुद्रा में प्रस्तुत किया जाय। टी.वी. पर आ गये, अखबारों पर छा गए तो प्रदर्शन सफल अन्यथा हजारों की भीड़ हो पर टेलीविजन और अखबार उसकी खबर तक न दें तो वैसा ही हुआ कि “जंगल में मोर नाचा, किसने देखा।”मीडिया के दो चश्मेआज की राजनीति मीडिया के मैदान पर लड़ी जा रही है। मीडिया जिन विषयों को उठता है, उन्हीं की चर्चा होती है, उन्हीं से छवि बनती या बिगड़ती है। इसके लिए मीडिया में अपने लोग घुसाने पड़ते हैं, बनाने पड़ते हैं, मीडिया को “हैंडिल” करना होता है, उसे प्रसन्न और अनुकूल बनाना होता है। अब जरा स्मरण कीजिए 28 जून को टेलीविजन चैनलों ने दिन भर आपको क्या परोसा? एक ओर तो पेट्रोल और डीजल की कीमत वृद्धि के विरोध में वाम मोर्चे के प्रदर्शन के दृश्य, दूसरी ओर यशवंत सिन्हा, जार्ज फर्नांडीस की नागपुर यात्रा, संघ की सूरत बैठक में जिन्ना वाले भाषण पर चर्चा, अमृतसर में विश्व हिन्दू परिषद के द्वारा आडवाणी निन्दा, मानो संघ विचार परिवार में यादवी मची हो। एन.डी.टी.वी. पर सपा के शाहिद सिद्दीकी, कांग्रेस के शकील अहमद और जे.एन.यू. के पुरुषोत्तम अग्रवाल के माध्यम से एन्कर देबांग के संघ पर ओछे तीखे हमले। क्या इन दोनों प्रकार के समाचारों में कोई रिश्ता हो सकता है? जरा विचार कीजिए कि इन दो तरह के समाचारों का सामान्य दर्शक पर क्या प्रभाव पड़ता है? कि एक ओर तो बेचारे वामपंथी लोग जनता की परेशानी दूर करने के लिए कीमत वृद्धि के विरुद्ध लड़ रहे हैं, दूसरी ओर ये भाजपायी और संघ वाले आपस में ही लड़ रहे हैं, जनता की समस्याओं से इनका कुछ लेना-देना नहीं है।यदि आप समझ लें कि इन दोनों प्रकार के समाचारों के पीछे एक ही मस्तिष्क, एक ही रणनीति काम कर रही है तो आपको मीडिया पर काबिज उस मस्तिष्क को समझने में आसानी होगी। मीडिया का पूरा इस्तेमाल करने के लिए ही तो दिल्ली स्थित दो दर्शनीय चेहरों-वृन्दा कारत और सीताराम येचुरी-को राज्यसभा में भेजने का निर्णय अकस्मात् घोषित किया गया। सीताराम येचुरी आंध्र प्रदेश के हैं। वृन्दा कारत पैदा बंगाल में हुई हैं, पर पत्नी केरल के प्रकाश कारत की हैं। दोनों का कार्य क्षेत्र दिल्ली ही रहा है। दोनों ने दिल्ली के प्रभावशाली मीडिया में अच्छे सम्बंध बनाये हैं। इसीलिए राज्यसभा में उनको भेजने के समाचार को मीडिया ने ऐसे उछाला मानो कोई देवदूत धरती पर उतर आये हों। किसी ने यह सवाल नहीं उठाया कि जो माकपा कहती थी कि किसी भी राज्य से राज्य सभा में प्रतिनिधित्व वही कर सकता है जो वहां का निवासी हो। उसका दूसरा आग्रह था कि पोलित ब्यूरो का कोई सदस्य राज्यसभा में नहीं जायेगा। एक बार माकपा के आग्रह की रक्षा करने के लिए कांग्रेस अपना समर्थन देकर येचुरी को आंध्र प्रदेश से भेजने को तैयार थी पर पार्टी ने उसके प्रस्ताव को ठुकरा दिया। तब इस बार दोनों सिद्धान्तों का उल्लंघन क्यों किया गया? दोनों को प. बंगाल से भेजने का निर्णय क्यों लिया गया? इसकी प. बंगाल इकाई पर क्या प्रतिक्रिया हुई। प. बंगाल की सरला माहेश्वरी में क्या कमी थी कि उसे दोबारा नहीं भेजा जा रहा है? वह वहां की एक अन्य वरिष्ठ और श्रेष्ठ कार्यकत्री श्यामला गुप्ता को किनारे क्यों कर दिया गया? डा. चन्द्रकला पांडेय और जीवन राय को दोबारा टिकट क्यों नहीं दिया गया? यदि मीडिया उसी तरह की थोड़ी भी खोजबीन करता, जैसी कि वह संघ विचार परिवार के भीतर छोटे से छोटे मतभेद को ढूंढने या पैदा करने के लिए करता है तो उसे पता चल जाता है कि प. बंगाल की इकाई में इस निर्णय के प्रति कितना आक्रोश है।26 जून को वाम पार्टियों ने घोषणा कर दी कि भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स (भेल) में 10 प्रतिशत सरकारी शेयरों के विनिवेश के सरकारी निर्णय के विरोध में वाम मोर्चा समन्वय समिति की आगामी बैठक में सम्मिलित होने का निर्णय अभी “स्थगित” करता है। उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि वे सरकार से समर्थन वापस लेते हैं, किन्तु स्थगन का यह समाचार ही मीडिया में बड़ा भारी धमाका बन गया। पहले पेज की सुर्खियां बन गया, टेलीविजन चैनल 24 घंटे उसी का राग अलापते रहे मानो सरकार गिरने का खतरा पैदा हो गया। राष्ट्र पर वज्राघात हो गया। क्या मीडिया को सचमुच यह पता नहीं है कि वामपंथी गुर्रायें चाहे जितना, पर काटेंगे कभी नहीं? क्योंकि माकपा के महासचिव प्रकाश कारत ने लखनऊ में और अनिल विश्वास व विमान बसु ने कोलकाता में स्पष्ट कर दिया कि सरकार गिराकर क्या हम भाजपा के गठबंधन को वापस लाने की मूर्खता करेंगे। वयोवृद्ध ज्योति बसु ने भी इशारा कर दिया कि समन्वय समिति के बहिष्कार का निर्णय अपरिवर्तनीय नहीं है। उस पर पुनर्विचार हो सकता है।सत्ता की चाहकांग्रेस नेतृत्व भी वामपंथियों की इस कमजोरी को अच्छी प्रकार समझता है। वह जानता है कि माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को सबसे बड़ा भय भाजपा की वापसी का है। इसलिए उसने भाजपा को अपना शत्रु क्रमांक एक घोषित किया हुआ है, भाजपा को कमजोर करने के लिए संघ विचार परिवार और हिन्दुत्व के विरुद्ध जिहाद छेड़ा हुआ है। इस जिहाद को सेकुलरिज्म का नाम दिया है। गैर-भाजपावाद को ही तीसरा मोर्चा कहा जा रहा है। माकपा समझती है कि कांग्रेस के पास अपना दिमाग नहीं है, पर वह सत्ता का भोग करने के लिए उतावली है। उसमें इतना धैर्य नहीं है कि वह अपने ही पचमढ़ी संकल्प पर टिकी रह सके कि अपने बल पर ही सरकार बनायेगी। हरकिशन सिंह सुरजीत और ज्योति बसु ने सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठाने का सब्जबाग दिखा दिया है और सोनिया अपने वंशवादी राज्य के लिए प. बंगाल और केरल को कम्युनिस्टों की झोली में फेंकने का मन ही मन निर्णय ले चुकी है। प्रधानमंत्री पद अपने वंश में लाने के लिए कम्युनिस्टों को यह कीमत चुकाने को वह तैयार लगती है। केरल में जिस तरह कांग्रेस को तोड़ा गया, वयोवृद्ध करुणाकरण को पार्टी से निकाल कर कम्युनिस्टों की झोली में फेंका गया, एन्टोनी को मुख्यमंत्री की गद्दी से हटाया गया, ये सब कदम कम्युनिस्टों को केरल में सत्ता में वापस आने में सहायता करते हैं और इन सबके लिए अकेली सोनिया जिम्मेदार हैं। वंशवादी पार्टी में एक भी पत्ता सोनिया की इच्छा के बिना नहीं हिलता।पर हमारा सवाल तो मीडिया से है। जो मीडिया भाजपा और संघ विचार परिवार के पीछे दूरबीन लेकर पड़ा है, वह केरल में माकपा के हजारों करोड़ रुपए के वैभवपूर्ण संस्थानों की कभी चर्चा क्यों नहीं करता? वहां माकपा के संस्थापक सदस्यों अच्युतानन्दन और बर्लिन कन्हननन्दन नायर के विरुद्ध नए पार्टी महासचिव पिनरायी विजयन के गृहयुद्ध के समाचार देश को क्यों नहीं पहुंचाता? जिस अच्युतानंदन को माकपा पिदले पन्द्रह साल से मुख्यमंत्री पद के दावेदार के रूप में प्रस्तुत करती आई है, जो आज भी विपक्ष के नेता हैं, जिनके आदर्शवाद और सिद्धान्तनिष्ठा का कभी उदाहरण दिया जाता था, उनमें अचानक क्या कमी आ गई कि अब वे सर्वाधिक लांछित व्यक्ति हैं? क्या सिर्फ इसलिए कि इस बार सोनिया नीति के कारण केरल में कम्युनिस्ट शासन की वापसी सुनिश्चित मानी जा रही है और इस कारण केरल माकपा में अच्युतानंदन और पिनरायी विजयन के बीच सत्ता संघर्ष चल रहा है? यदि मीडिया निष्पक्ष है तो क्या उसका यह धर्म नहीं कि वह केरल में माकपा की अकूत सम्पत्ति, वैभव, गृह-कलह के समाचारों से देश को अवगत कराये? क्यों वह कांग्रेस और कम्युनिस्टों की नूरा कुश्ती को इस तरह पेश कर रहा कि मानो वही सत्य है? उसने कम्युनिस्टों के समन्वय समिति के बहिष्कार के समाचार को इस तरह उछाला मानो आकाश गिरने वाला है। कांग्रेस ने भी कम्युनिस्टों की स्थिति बचाने के लिए नाटक किया कि उनके इस निर्णय से घबरा गये हैं, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कारत से बात की, कहा गया कि सोनिया गांधी हिमाचल प्रदेश में अपनी छुट्टी को बीच में काट कर दिल्ली दौड़ रही हैं, पर उन्होंने भी कारत से फोन पर बात करके ही समाधान पा लिया। कांग्रेस के भीतर कोई हड़बड़ाहट नहीं दिखाई दी। वित्तमंत्री चिदम्बरम ने घोषणा की कि विनिवेश प्रक्रिया जारी रहेगी, 16 सार्वजनिक उपक्रमों के विनिवेश की प्रक्रिया प्रारम्भ भी कर दी। कम्युनिस्टों ने और दबाव बनाने के लिए द्रमुक और लालू पार्टी की ओर से भी अपने पक्ष में बयान दिलवा दिये, पर कांग्रेस पर उसका कोई असर नहीं पड़ा। कम्युनिस्टों को पब्लिसिटी चाहिए थी सो उन्हें मिल गई। यह भी हो सकता है कि विनिवेश की बड़ी योजना को क्रियान्वित करने के लिए कांग्रेस भेल के 10 प्रतिशत शेयरों के विनिवेश को स्थगित कर दे ताकि कम्युनिस्टों को प्रचार के मोर्चे पर अपनी पीठ ठोंकने का मौका मिल जाय कि देखो, हमने भेल को बचा लिया। इसे कहते हैं नूरा कुश्ती। हल्दी लगे न फिटकरी, रंग चोखा ही चोखा।मीडिया में अपने ढिंढोरची बैठे हैं ही वे अपनी जय-जयकार करेंगे, संघ विचार परिवार की बखिया उधेड़ते रहेंगे, उसमें मतभेद पैदा करते रहेंगे। इंडियन एक्सप्रेस में मानिनी चटर्जी, टाइम्स आफ इंडिया में अक्षय मुकुल, हिन्दुस्तान टाइम्स में पंकज वोहरा, हिन्दी पत्रों में राजेन्द्र शर्मा, सुभाष गाताडे, शमसुल इस्लाम, सबकी कलम केवल संघ विचार परिवार के विरुद्ध चलती है, कोई दूसरा विषय उन्हें दिखाई ही नहीं देता। अपने शत्रु की छवि को खराब करने के लिए मीडिया की ताकत का इससे अच्छा उपयोग क्या हो सकता है? मीडिया यह क्यों बताये कि प. बंगाल की सरकार विनिवेश के रास्ते पर कितनी तेजी से बढ़ रही है। वहां के उद्योगमंत्री ने तीन महीने पहले केन्द्र सरकार को योजना भेजी है कि राज्य के सार्वजनिक क्षेत्रों के 29 उपक्रमों का सन 2007 तक पूरा विनिवेश कर दिया जायेगा, जिसके फलस्वरूप लगभग 80,000 कर्मचारियों की या तो छंटनी होगी या समय पूर्व सेवानिवृत्ति। इन उपक्रमों के बंद होने से जो जमीन खाली होगी उसके इस्तेमाल के बारे में एक विदेशी कम्पनी सी.बी. रिचर्ड ऐलिस से सलाह की जा रही है न कि किसी भारतीय विशेषज्ञ से। अपने राज्य में सार्वजनिक उपक्रमों का विनिवेश और केन्द्र सरकार द्वारा किये जा रहे विनिवेश का विरोध! इससे बड़ी बेहयायी और ढोंग क्या हो सकता है? ट्रेड यूनियन क्षेत्र में कम्युनिस्टों का यह पुराना तरीका रहा है, बाहर बेचारे मजदूरों को संघर्ष और हड़ताल में धकेल कर अन्दर मिल मालिकों से सौदेबाजी करके अपने लिए सुविधाएं बटोरना। महीनों से वे अपने करीबी दोस्त मणिशंकर अय्यर के साथ बंद कमरे में पेट्रोल और बिजली की कीमत वृद्धि पर अपनी सहमति की मुहर लगाते रहे और बाहर उसके विरोध का नाटक करने की तैयारी देश भर में करते रहे। चोर से कहे चोरी कर, साहू से कहे भाग चल। भाजपा ने कहा है कि वह संसद में मूल्य वृद्धि के विरुद्ध प्रस्ताव लाकर वामपंथियों को नंगा कर देगी। पर वामपंथी पैंतरा बदलने में माहिर हैं। कैसे उन्होंने पेटेन्ट विधेयक का बाहर विरोध करते-करते संसद के भीतर उसका समर्थन कर दिया था। आखिर कांग्रेस सरकार गिराकर वे भाजपा को वापस लाने का खतरा मोल क्यों लें?कहां हैं सेकुलर खोजी पत्रकार?बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य कह रहे हैं कि घुसपैठ की समस्या हमारे काबू के बाहर है, दार्जिलिंग गोरखा पर्वतीय परिषद के अध्यक्ष सुभाष घीसिंग को वे संभाल नहीं पा रहे। उसके लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृहमंत्री शिवराज पाटिल से मदद की भीख मांग रहे हैं। त्रिपुरा की कम्युनिस्ट सरकार ने आतंकवाद के सामने हथियार डाल दिये हैं। कम्युनिस्ट सरकारों की बहादुरी केवल सरकारी हुक्म से हड़ताल कराके चक्का जाम के दृश्य टेलीविजन पर दिखाने में है। क्यों नहीं मीडिया प. बंगाल सरकार की विफलताओं को देश के सामने लाता? 19 जून को कोलकाता नगर निगम के चुनावों में माकपा की विजय का तो खूब शोर मचाया गया, पर यह किसी अखबार या टेलीविजन चैनल ने नहीं बताया कि यह विजय कैसे प्राप्त की गयी। किसी पत्रकार ने ये प्रश्न नहीं उठाये कि -1. क्या केवल 480 मिनट में 1,200 मतदाता मशीन से वोट डालने की प्रक्रिया पूरी कर सकते हैं? 2. क्या किसी एक पार्टी के पक्ष में 99.69 प्रतिशत मतदान संभव है?यह कैसे हुआ किवार्ड नं. 10 के बूथ 4 पर माकपा को 1150, तृणमूल-भाजपा को 24 और कांग्रेस को केवल 60 मत मिले?बूथ 5 पर तीनों दलों को क्रमश: 1205,38 और 50 मत मिले?वार्ड नं. 138 के बूथ 7 पर क्रमश: 1056, 1 और 1?, बूथ 8 पर क्रमश: 968, 1 और 1?, बूथ 9 पर क्रमश: 1273, 4 और 20 व बूथ 10 पर क्रमश: 1122,4 और 20 मत मिले? इसी प्रकार वार्ड नं. 60 में बूथ 9 पर क्रमश: 1000, 22 और 215, बूथ 10 पर क्रमश: 937,11 और 93 और बूथ 11 पर क्रमश: 1039,2 और 10 मत पड़े हों?क्या इन आंकड़ों की तह में जाना खोजी पत्रकारिता का धर्म नहीं है? घुसपैठ के विरुद्ध शोर मचाने वाली पार्टी के मुस्लिम प्रत्याशियों की सफलता का रहस्य क्या है? वे बंगाल का प्रतिनिधित्व करते हैं या घुसपैठियों का? क्यों कम्युनिस्ट पार्टियां मुस्लिम समर्थन पाने के लिए सेकुलरिज्म का राग अलापती हैं और भारत की राष्ट्रीय संस्कृति व समाज को दिन-रात कोसती रहती हैं? क्या अब सत्ता ही उनका एकमात्र लक्ष्य और भाजपा विरोध ही उनकी एकमात्र विचारधारा रह गई है? यदि सत्ता ही उनका लक्ष्य एवं प्रेरणा न हो तो कम्युनिस्ट कार्यकर्तागण बंगाल में, केरल में अपनी मुख्य शत्रु कांग्रेस को केन्द्र में समर्थन देने के अन्तर्विरोध को कैसे हजम कर सकते हैं? किन्तु कागज की यह नाव तभी तक तैर सकती है जब तक मीडिया का जल प्रवाह उनके अनुकूल है।(1 जुलार्ऊ, 2005)NEWS

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