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प्रकाशक:भारतीय ज्ञानपीठ18, इन्स्टीट्यूशनल एरिया,लोदी रोड, नई दिल्ली-110003इस अनजान को दुत्कारचले जाने को कह सकता नहीं,आजीवन सहचरी अर्धांगिनी कोमैं रोक सकता नहीं।घर के बाहर कदम रखती है वह,मेरी ओर, अंग मरोड़ के इंगित को बिन देखेआगन्तुक के साथ चल देती है वह,महावर रंग पैरों की उठीएड़ी देखता हूं मैंऔर चीख उठता हूं,”रा…धा!”जैसा कि इस कविता संग्रह के नाम से ही स्पष्ट हो जाता है, चिरन्तन तत्व की ओर इंगित करते हुए राजेन्द्र शाह ने इसमें अपने जीवन की साक्षात अनुभूतियों को शब्द रूपी भावांजलि दी है। जीवन की गति चंचल है और मैं स्थिर, यही सन्देश है इस कविता संग्रह का।”भूमा में देखता हूं परित्राण” बताता है कि कवि किस प्रकार से जीवन के अन्त समय में सभी कष्टों के निवारण के लिए “भूमा अर्थात मुमुक्षा की तीव्र कामना लिए हुए है।वस्तुत: राजेन्द्र शाह की कविताएं औपनिषदिक और गीता के काव्य सन्देशों से अनुगूंथित दिखाई पड़ती हैं। जीवन-सत्य को जानने के आकांक्षी यदि इसे पढ़ेंगे तो निश्चित रूप से यह उन्हें आत्मतुष्टि तो प्रदान करेगी ही, इसके दर्पण में वह अपने जीवन की सचाइयों से भी रूबरू हो जायेंगे।”साम्प्रत मैं चिरन्तन” में राजेन्द्र शाह की कविताओं का चयन व सम्पादन गुजराती व हिन्दी पर समान अधिकार रखने वाले उच्चकोटि के रचनाधर्मी रघवीर चौधरी द्वारा किया गया है। श्री रघुबीर चौधरी ने “साम्प्रत मैं चिरन्तन” के लिए जिन रचनाओं का चयन किया हैं, निश्चित रूप से वे रचनाएं व उनका प्रयास दोनों सराहनीय हैं। छोटी-बड़ी, कुल मिलाकर 77 कविताएं चयनित की गयी है और इसमें से 9 कविताएं ब्राज भाषा से प्रभावित हैं। ये कविताएं मन में भीतर तक उतरती चली जाती हैं और उसका माधुर्य ऐसा कि मानो सूरदास के ब्राज भाषा के पद ही जीवंत हो उठे हैं राजेन्द्र शाह की पंक्तियों में। जरा इन पंक्तियों को देखिए-अजहूं न आयो संजोग…मितवा! कबहुंक रहै विजोग?आवन को पथ अहरह निरखत,नहि दरसन, नहि बोधछिन-छिन कर बित गयी उमरियांहोवत जनम्यो फोग… मितवा!यह है प्रिय मिलन की चाह। इन्हें कोई रूप प्रदान करे दें आप। बरबस इन पंक्तियों के साथ एकरूप होते ही मन में एक भावधारा उमड़ने लगेगी और यही है किसी कवि की सफलता का मापदण्ड कि वह अपने शब्दों को कितने गहरे तक दूसरों के मन में उतार पाता है, उन्हें शब्दों के रस-माधुर्य, विरह-वेदना, हंसी-उदासी के साथ सोचने-जीने के लिए सहज ही तैयार कर देता है। और इस दृष्टि से “साम्प्रत मैं चिरन्तन” पूर्णतया खरी उतरती है। श्री राजेन्द्र शाह ने गुजराती, राजस्थानी, ब्राज और मैथिल के साथ संस्कृत छन्दों का उपयोग अत्यंत सहजता से अपनी रचनाओं में किया है। श्री राजेन्द्र शाह की रचनाएं वस्तुत: देश की चिरन्तन संस्कृति जो अलग- रूपों में अभिव्यक्त हुई है, पर जिसका तत्व सभी में एक है, उस तत्व के साथ उनके मन और आत्मा की एकात्मता का भी हमें दिग्दर्शन कराती हैं। भारत की उस लोकसंस्कृति की चिर-ध्वनि है “साम्प्रत मैं चिरन्तन” जो कोटि-कोटि हृदयों में सदा स्पंदित रहती है।समीक्षकNEWS
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