बस्ते का बर्बर बोझ
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बस्ते का बर्बर बोझ

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Oct 7, 2005, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 07 Oct 2005 00:00:00

देहरादूनभारी बस्ता, कुम्हलाता बचपनदेहरादून से रामप्रताप मिश्रपूर्णिमा कोहलीबस्तों के बढ़ते बोझ का असर बच्चों के अलावा उनके मां-बाप पर भी कम नहीं होता। कई परिवारों का मानना है कि वे रोजाना तीन से पांच घंटे अपने बच्चों को गृह कार्य कराने में लगभग जूझते हैं, जिसके कारण उनकी निजी जिंदगी भी प्रभावित हो रही है।इसी संदर्भ में हमने कुछ पब्लिक स्कूलों तथा सरकारी विद्यालयों के प्रधानाचार्यों, छात्रों से बातचीत की। ज्यादातर छात्र छात्राओं के मां-बाप बच्चों पर बस्ते के बढ़ते बोझ से काफी क्षुब्ध हैं। इतना ही नहीं, पब्लिक स्कूलों द्वारा दिए गए लम्बे-चौड़े गृह कार्य से भी अभिभावकों में आक्रोश रहता है। वे मानते हैं कि पब्लिक स्कूल इतना ज्यादा गृह कार्य दे देते हैं कि इसे करने के लिए रोजाना कम से कम चार- पांच घंटे समय लगता है।श्री पी.एन. उनियालस्थानीय कान्वेंट आफ जीसस एन्ड मैरी स्कूल में पांचवी कक्षा की छात्रा पूर्णिमा कोहली कहती है कि बच्चों पर बस्ते का भारी बोझ है। लेकिन साढ़े दस वर्षीय पूर्णिमा इस ढर्रे में इतनी रम चुकी है कि उसे अब सब कुछ सहज लगने लगा है। 95 प्रतिशत से अधिक अंक लाने वाली पूर्णिमा का मानना है कि बस्ते का बोझ अधिक है लेकिन कई विषयों की जानकारी होनी भी जरूरी है। माध्यमिक स्तर की कक्षाओं के बच्चों को लगभग 13 किताबें, 14 कापियां, 3-4 सहायक पुस्तकें (गाइड) रोज ही बस्ते में ले जानी होती हैं। पूर्णिमा बताती है कि गृह कार्य भी खूब दिया जाता है, जिसमें कम से कम तीन-चार घंटे लगते हैं। पूर्णिमा की मां 37 वर्षीया श्रीमती प्रोमिला कोहली ओर उनके पति विनय कोहली दोनों यह कड़वा सच स्वीकारते हैं कि अंग्रेजी माध्यम वाले विद्यालयों में फीस बहुत ज्यादा है। श्रीमती कोहली का कहना है कि बच्चों के बस्ते का बोझ इतना अधिक है कि उन्हें कई बार रीढ़ की हड्डी तथा गर्दन में दर्द तक हो जाता है।श्री फरीद हसनइसी संदर्भ में नगर के जाने-माने विद्यालय रिवरडेल हाईस्कूल के प्रधानाचार्य 75 वर्षीय श्री पी.एन. उनियाल का कहना है कि प्रत्यक्ष शिक्षा ही बस्ते का बोझ कम करने का प्रमुख माध्यम होगी। श्री उनियाल ने बताया कि 1995 में भारत सरकार द्वारा गठित यशपाल कमेटी ने इस बारे में अपनी संस्तुतियां दी थीं, किन्तु अब तक उन पर अमल नहीं हो पाया है। सन् 2002 में एन.सी.ई.आर.टी. ने कुछ निर्देश दिए थे, किन्तु वे व्यावहारिक नहीं लगे। श्री उनियाल का मानना है कि पांचवीं कक्षा तक के बच्चों को गृह कार्य से मुक्त किया जाना चाहिए। प्रयास हो कि बच्चों को प्रत्यक्ष अनुभव के साथ शिक्षा दी जाय। यह शिक्षा ज्यादा प्रभावी होगी तथा बोझ भी कम पड़ेगा।देहरादून के प्राथमिक विद्यालय, चुखुवाला नं.2 के प्रधानाचार्य श्री फरीद हसन का मानना है कि प्राथमिक विद्यालयों में भी बस्ता भारी ही है। वे इस बात के पक्षधर हैं कि बच्चों को शिक्षा के साथ खेल और खेल के साथ शिक्षा दी जाए, इससे ज्यादा लाभ होगा। श्री हसन का कहना है कि प्राथमिक विद्यालयों में वे बच्चे आते हैं जिनके माता-पिता आर्थिक रूप से कमतर होते हैं। इन बच्चों का स्वास्थ्य भी आमतौर पर बहुत अच्छा नहीं होता, ऐसे में बस्ते का बढ़ता बोझ उनके तथा उनके परिवारों की कमर तोड़ देता है। एक तो घर में शिक्षा का माहौल नहीं, दूसरे बस्ते का भारी बोझ। इसलिए ये बच्चे कई बार शिक्षा से विमुख हो जाते हैं, कूड़ा-कचरा बीनने का काम करने लगते हैं अथवा अन्य छोटे-मोटे कामों में लग जाते हैं। श्री हसन मानते हैं कि बच्चों को प्रत्यक्ष शिक्षा देने के लिए कम्प्यूटर का सहारा भी लिया जा सकता है। उत्तरांचल राज्य बनने के बाद यहां की शिक्षा में जो गुणात्मक सुधार होना चाहिए था, वह नहीं हुआ। श्री हसन कहते हैं कि अब “क” से कबूतर उपयोगी नहीं, “क” से कम्प्यूटर उपयोगी है। व्यावहारिक ज्ञान देकर बस्ते का बोझ कम किया जा सकता है।देहरादून से रामप्रताप मिश्रNEWS

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