|
बस्ते का बर्बर बोझसुबह-सुबह गली, मोहल्लों, चौराहों पर भारी बस्ते टांगे स्कूली बच्चे रिक्शों या स्कूल बसों का इंतजार करते देखे ही होंगे आपने। क्या आपने कभी बारीकी से यह भी देखा है कि उस उम्र में जो अल्हड़पन, मस्ती और बालपन की हंसी-ठिठोली उन मासूमों के चेहरों पर होनी चाहिए वह नहीं होती। निढाल, थके-थकाए और बस्ते के बोझ से झुके-झुके कंधे। क्यों है ऐसा? क्यों होती हैं उनके बस्तों में इतनी किताबें-कापियां? क्या यह पढ़ाई के अच्छे स्तर का प्रमाण है या महज अपने स्कूल का नाम चमकाए रखने के लिए बच्चों को दी जा रही “सजा”? 2 महीने की गर्मी की छुट्टियां खत्म हुईं और एक बार फिर भारी-भारी बस्ते ढोकर स्कूल जाने की याद करके शरीर में झुरझुरी सी महसूस करने लगे हैं बच्चे। क्यों? इन्हीं सब बातों की पड़ताल कर रहा है हमारा यह विशेष आयोजन। सं.जितनी समझ उतनी पढ़ाई अच्छीनीरजा चौधरीअध्यक्ष, अभिभावक सहयोग संगठन(श्रीराम स्कूल) एवं राजनीतिक विश्लेषक, द इंडियन एक्सप्रेस (नई दिल्ली)नीरजा चौधरीभारी बस्तों की समस्या बढ़ती जा रही है। इसके लिए एक सुझाव तो यह हो सकता है कि बच्चों की ज्यादातर किताबें और कापियां स्कूल में ही रखने की व्यवस्था हो और बच्चे वही किताबें घर लाएं जिनसे उन्हें अभ्यास करना हो। दूसरे कक्षा की समय सारणी इस तरह बनाई जाती है कि बच्चे को हर विषय की कापी-किताब रोजाना ले जानी पड़ती है। कापियां बहुत अधिक होती हैं। एक कापी गृह कार्य की, एक अभ्यास की, एकपरीक्षा की। मोटे-मोटे रजिस्टर होते हैं। यही कारण है कि छोटे-छोटे बच्चे भारी बस्ता ढोकर स्कूल जाते-आते दिखते हैं।मुझे नहीं लगता कि इसका निदान निकालना बहुत मुश्किल है। देखना चाहिए कि कक्षा में पढ़ाई का तरीका क्या है, पाठक्रम कैसे कम हो। अध्यापक भी होड़ में रहते हैं कि कैसे भी भारी-भरकम पाठक्रम खत्म हो, स्कूल का पास-प्रतिशत ऊंचा हो।इसका एक और पहलू है। कक्षा में सभी बच्चे तो बहुत मेधावी नहीं होते, कुछ औसत बुद्धि के भी होते हैं। इसलिए पढ़ाई ऐसी होनी चाहिए जो सबके भले की हो, जिसमें मोटी-मोटी किताबें कम हों। किताबी पढ़ाई बहुत उबाऊ होती है। शिक्षक बोलता जाता है, बच्चे लिखते जाते हैं। कक्षा में बच्चे के कौतूहल को बढ़ाकर उसकी भागीदारी होनी चाहिए। इससे बच्चे का ज्यादा विकास होगा। इसमें सोच, योजना, शोध, समय लगाने की जरूरत है जो होता नहीं है। यही कारण है कि हर साल वही घिसी-पिटी लीक पर पढ़ाई कराई जाती है।तीसरे, एन.सी.ई.आर.टी. की किताबों में बहुत सुधार हुए हैं। लेकिन अब भी खामियां हैं। मैं पिछले चार साल से अपने बेटे नकुल को सामाजिक विज्ञान पढ़ाती आ रही हूं। इसमें हर साल वही-वही पढ़ाया जा रहा है। यह इतना रोचक विषय है, पर नई कक्षा में नया कुछ नहीं होता।इसका सबसे खराब पक्ष है शिक्षा में प्रतियोगिका का बढ़ते जाना। इससे हताशा, तनाव और गलत कदम उठाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। स्कूल के स्तर पर आप किस विषय में जाएंगे, यह आपके परीक्षाफल प्रतिशत पर निर्भर हो गया है। आज तो 85-88 प्रतिशत पाने वाले छात्र को भी अपने पसंद के विषय में दाखिला नहीं मिल रहा। आज पढ़ाई एक हौव्वा बन गई है। मां-बाप अपने बच्चे को स्कूल के अलावा टूशन कराते हैं, कोचिंग संस्थान में भेजते हैं, क्योंकि प्रतियोगिता बहुत बढ़ गई है। ये ही तनाव का कारण हैं। माहौल बन गया है कि अगर बच्चे को किसी ऊं‚ची जगह पहुंचना है तो इतना सब करना पड़ेगा। आज पैसा ही प्रमुख हो गया है, इसलिए इतनी प्रतियोगिता बढ़ गई है। मेरी नजर में यह होना नहीं चाहिए, क्योंकि आज पढ़ाई के अलावा कितने ही तरह के विकल्प हैं, लेकिन स्कूल और परिवार व्यवस्था ने पढ़ाई का एक हौव्वा खड़ा कर दिया है। मां-बाप अपने सपने, महत्वाकांक्षाएं बच्चे पर लादने लगे हैं।कई स्कूल ऐसे भी हैं जहां 5वीं कक्षा तक सालाना परीक्षा नहीं होती। उन्हें “ग्रेड” दिए जाते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि आप बच्चे के सामने कोई चुनौती न रखें। पर आप केवल उसे परीक्षा के अंकों के आधार पर तोलेंगे तो ठीक नहीं होगा। हो सकता है बच्चा बहुत मेधावी हो, पर परीक्षा के उन 3 घंटों में वह लिख न पाए। हमने 2 साल से अपने बेटे नकुल के स्कूल श्रीराम स्कूल (डी.एल.एफ., फेज-।।, गुड़गांव) में अभिभावकों का एक समूह “पेरेन्ट्स सपोर्ट ग्रुप” (अभिभावक सहयोग संगठन) बनाया हुआ है जो स्कूल के संचालन में पूरी तरह जुड़ा हुआ है। यह स्कूल उन बच्चों के लिए है जो अन्य बच्चों से थोड़ा अलग हैं और जिनके समझने, सीखने के तरीके अलग होते हैं। इस साल हम वहां मल्टीमीडिया और फिल्मों के जरिए अनुभव के आधार पर सीखने की पद्धति पर काम शुरू करने जा रहे हैं।(वार्ताधारित)NEWS
टिप्पणियाँ