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सागरिका घोषबंगाल के लोकप्रिय मध्यकालीन संत सत्यापीर की कथा, तमिलनाडु के मुस्लिम कवि, कवियों के तजकीरा (विवरण), विजयनगर साम्राज्य से प्राप्त आलेख और मुस्लिम पर्यटकों के संस्मरणों से बनी है एक विचारोत्तेजक पुस्तक, जिसका शीर्षक है, “बीयोंड तुर्क एंड हिन्दू” (तुर्क और हिन्दू होने से परे)। इसका संपादन दो अमरीकी विद्वानों डेविड गिलमार्टिन और ब्राूस बी. लारेंस ने किया है। यह पुस्तक बहुत प्रभावी ढंग से बताती है कि भारत में “मुस्लिम” और “हिन्दू” की पहचानें अनुल्लंघनीय वास्तविकताएं नहीं थीं। उन्हें पत्थरों के पृथक सांचों में ढाला ब्रिाटिश जनगणना करने वालों ने, जो अपनी प्रजा के वैविध्य का अर्थ समझने के लिए उत्सुक थे। माना कि अंग्रेजों से पहले भारत सेकुलर स्वर्ग नहीं था, लेकिन दोनों के बीच पारस्परिकता से जुड़ा स्मृति का एक अवकाश जरूर था और कलाकृतियों व लिखित साहित्य में “मुस्लिम” या “हिन्दू” नहीं बल्कि अधिक तरल वर्ग था जो “इस्लामीकृत” तथा “भारतीय” (इंडिक) के रूप में परिभाषित होता था। यह वह दुनिया थी जिसमें कवि ख्वाजा खुसरो यह लिख सके कि, “दिल्ली जन्नत है। अगर मक्का को इस बात के बारे में पता चले तो मक्का हज के लिए हिन्दुस्थान आएगी।”मैं ग्रामीण बंगाल में पली-बढ़ी हूं और इसलिए मैं स्वयं बंगाल के तमाम सीमावर्ती जिलों में सत्यापीर नामक एक संत की पूजा की धार्मिक परंपरा की साक्षी रही हूं।कौन थे सत्यापीर? वे पांच सदियों पहले जन्मे थे, आधे मुस्लिम और आधे हिन्दू। और उनकी चिंताओं में विचारधारा या सम्प्रदाय नहीं बल्कि लोगों की जिंदगियां बेहतर बनाने की व्यावहारिक बातें होती थीं। उन्हें “पागल फकीर” के नाते जाना जाता था जो आधे वैष्णव ग्रामीण और आधे मुस्लिम फकीर के वेश में रहते थे। और जहां उनके कंधों पर जनेऊ था वहीं उनकी गर्दन पर रहता था पैगम्बर का चौखाने वाला गमछा। सत्यापीर दोनों समुदायों के बीच इतने सांझे हैं और बुल्लेशाह तथा साईंबाबा जैसे कवियों और दरवेशों की परंपरा का अविभाज्य अंग हैं जिनसे हमारे उप महाद्वीप का आध्यात्मिक प्रवाह बना है। क्या है यह पवित्र नदी? यह वह नदी है जिसके किनारों पर उपासना स्थल हैं, बरगद के वृक्ष के नीचे छोटे मंदिर हैं, सांझे मंत्र हैं, सांझे त्योहार, सांझे तीर्थस्थान। एक ऐसी आध्यात्मिक नदी जो न तो हिन्दू है, न मुस्लिम बल्कि कुछ और मिली-जुली सी जेली जैसी, जो सब समुदायों को आलिंगनबद्ध किए हुए है।”बहुसंख्यक” और “अल्पसंख्यक” पूरी तरह से ब्रिाटिश जनगणना करने वालों की विरासत है, क्योंकि औपनिवेशिक शासन सिर्फ तकनीक और आंकड़ों से बंधा था। वह बंधा था गिनने और वर्गीकृत करने से और इसलिए आंकड़ों ने मजहबी रिश्तों को तय करना शुरू किया। इसके बावजूद भारत हमेशा से ही उन आध्यात्मिक “खिलाड़ियों” की भूमि रहा है जो मुस्लिम रहस्यवाद को वेदांत से मिश्रित करते हैं और जो सूफी शायरी पर नृत्य मग्न होते हुए भी गायत्री मंत्र का जाप करते हैं।इस समृद्ध संदर्भ में आज हिन्दुत्व तो उस तरह के एक संकीर्ण, पीछे की ओर देखने वाली ब्रिाटिश प्रेरित विचारधारा के रूप में सामने दिखता है जो आधुनिकता विरोधी, सामाजिक दृष्टि से संकीर्ण, महिला विरोधी, अल्पसंख्यक विरोधी ही नहीं बल्कि हिन्दू धर्म के वास्तविक स्वरूप का भी विरोधी है। यह ऐसी विडम्बना है कि अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग सरकार के पांच सालों में एक समारोह ऐसा भी नहीं हुआ जिसमें गीत, नृत्य, कविता और संगीत की भारतीय परंपराओं का उत्सव मनाया गया हो। कहां थे वे नृत्य समारोह, शास्त्रीय संगीत के वृहद कार्यक्रम या भारतीय संस्कृति को देश भर में दिखाने के उत्सव? जो कुछ भी राजग सरकार कर सकी वह था प्रवासी भारतीयों के एकाध सम्मेलन। राजग सरकार भारतीय शास्त्रीय संस्कृति को और ऊर्जस्वी बनाने में असफल क्यों रही? सिर्फ इसलिए क्योंकि वह इस्लाम को खत्म करने की पागल इच्छा से भरी हुई थी।इस्लाम को पूर्णत: नष्ट करने या उसकी कोशिश का एक अर्थ होगा पिछले एक हजार साल की सांस्कृतिक श्रेष्ठता को नष्ट करना। ध्रुपद संगीत का मूल वैदिक है। उसका उद्गम सामवेद में निहित है, फिर भी क्या यह संभव है कि आप ध्रुपद के बारे में सोचें और यह महसूस न करें कि वर्षों से डागर बंधुओं ने उसकी साधना की है, रक्षा की है? लगभग सभी भारतीय इस गीत से परिचित हैं- “बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए।” क्या कोई इस बात की उपेक्षा कर सकता है कि इस ठुमरी के रचयिता थे अवध के नवाब वाजिद अली शाह? बहुलवादी वैश्वीकृत समाज सांस्कृतिक विविधताओं का उत्सव मनाता है और विभिन्न परम्पराओं को राष्ट्र जीवन समृद्ध बनाने वाले मानव संसाधनों का हिस्सा मानता है। विशाल महत्वाकांक्षाओं से युक्त समाज ऊपर उठना चाहता है, वह तेज जिन्दगी का हिस्सा बनना चाहता है और फैशन शो, राक संगीत के कार्यक्रम, पर्वतारोहण, जोखिम भरे रोमांचक खेल, सूचना प्रौद्योगिकी का जादुई रोमांच और आधुनिक 21वीं सदी के व्यक्ति के रूप में अलग दिखने की रचनात्मक आजादी चाहता है। नौजवान वेलेन्टाइन डे के कार्ड भेजना चाहते हैं, वे अपनी कामेच्छाओं के प्रयोग करने को उत्सुक होते हैं और चाहते हैं एक जबरदस्त गतिशील और मस्ती भरे देश के प्रति गर्व करना। “दुष्ट मुसलमानों” पर अपने हिंसक और पिछड़ेपन भरे ध्यान को केन्द्रित कर तथा पुराने जमाने के पुरुष प्रधान विचारों और पुरुष संरक्षण वाले नियंत्रण और उसके इस पाखण्डपूर्ण आग्रह कि महिलाएं सिन्दूर तथा साड़ी से ढकी रहें तथा केवल “मातृशक्ति” के रूप में महिमामंडित हों, जो हमेशा अपनी सन्तान का पालन-पोषण करती रहें कभी भी नए और गतिशील भारत की रूपरेखा नहीं बन सकता। हिन्दुत्व न सिर्फ भारत बल्कि उस हिन्दू धर्म के प्रति अपसेवा है, जो महान, भव्य, आधुनिक तथा अनन्त सहिष्णुता वाली प्रयोगशील विचारधारा है। महाभारत और रामायण पर ही दृष्टि डालें- क्या कुन्ती, द्रौपदी या अदिति सिर्फ “अच्छी माताएं” थीं? कुन्ती ने अपने एक बेटे को नदी में बहा दिया था, द्रौपदी काम दृष्टि से आहत की गयीं महिला थीं और अदिति ने अपने एक पुत्र मार्तण्ड को जमीन में दबा दिया था। क्या ये प्रेरक मातृ स्वरूप वाली हिन्दू महिलाएं हैं?(लेखिका इंडियन एक्सप्रेस में वरिष्ठ सम्पादक हैं)NEWS
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