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विजय हमारी ही होगीकिसी भी प्रकार की भीषण परिस्थिति में तनिक भी विचलित न होना और किसी भी प्रकार के भीषण संकट में भी अपने ह्मदय को निराशा अथवा भय का स्पर्श तक न होने देना शिवाजी की अनुकरणीय विशेषता थी। शिवाजी का यह आदर्श, हम अपने सामने रखें। कहना न होगा, कि कभी-कभी हम लोगों के मन में उदासीनता या निराशा की भावना आ जाती है। चारों ओर की परिस्थितियों में कई बार जब मनोनुकूल परिणाम निकलते दिखाई नहीं देते, तो मस्तिष्क में निराशा भर जाती है। तब अपनी योजना, प्रतिभा और शक्ति से कार्य करने की प्रेरणा से कुंठित होकर, मनुष्य सोचने लगता है कि अपने कार्य में पूरी तरह परिवर्तन कर देना चाहिए। निराशा और खीझ के बोझ से दबे मस्तिष्क में, सुसूत्रता और धैर्य नहीं रहता। तब आपसी मनोमालिन्य उभरने लगता है, और सब कार्य चौपट होने की स्थिति आती है। किन्तु मेरे विचार में हम ठहरे निस्स्वार्थ भाव से भारतमाता की सेवा में संलग्न संघ के स्वयंसेवक। हमें तो बस यही चाहिए कि अपने कार्य की पूर्ति हेतु, सभी प्रकार की विपरीत परिस्थितियों में हम वज्रनिश्चयी नीतिज्ञ शिवाजी के आदर्श जीवन से प्रेरणा प्राप्त करते चलें। किसी भी प्रकार की घोर निराशापूर्ण स्थिति में, सर्वनाश की संभावना प्रतीत होने पर भी, अपने ह्मदय की आशा, विश्वास और धैर्य को किंचित-मात्र भी धक्का न लगने देते हुए, पूरे उत्साह एवं पूरी लगन के साथ संकटों में से मार्ग निकालने की दृष्टि से उपयुक्त प्रयत्नों में साहसपूर्वक जुटे रहें।शिवाजी महाराज के जीवन से हमें सीखने के लिए यही शिक्षा है। उन्होंने स्वयं आत्मविश्वासपूर्ण यह घोषणा की, कि “स्वराज्य स्थापित हो, यह भगवान की इच्छा है।” लोगों से भी ऐसी ही प्रतिज्ञा कराई, उन्हें जाग्रत किया और पराक्रम के पथ पर अपने सब बंधुओं को प्रेरित किया। जितने कुछ पराक्रमी पुरुष इधर-उधर बिखरे पड़े थे, उन्हें जुटाकर उन्होंने एकसूत्र में संगठित किया। जो स्वराज्य-संस्थापन के सूत्र में लाए नहीं जा सकते थे, उन्हें अलग कर दिया। इस प्रकार प्रबल सुव्यवस्थित राष्ट्रीय सामथ्र्य निर्माण करने का सफल प्रयत्न शिवाजी ने किया। कभी अन्त:करण में ऐसा दुर्बल विचार उन्होंने छूने भी नहीं दिया कि चारों ओर इतने प्रबल शत्रुओं का घेरा पड़ा है, दिल्ली में शत्रु-साम्राज्य पूरी शक्ति के साथ खड़ा है, और बड़े-बड़े पराक्रमी राजपूत सरदार उसकी चाकरी कर रहे हैं, इसलिए स्वराज्य-संस्थापन में यश मिलने की आशा नहीं है।शिवाजी के जीवन में अफजल खां के साथ युद्ध का भीषण प्रसंग भी सब लोग जानते ही हैं। अफजल खां के सैन्यबल तथा अत्याचारों के आतंक से, पूरा महाराष्ट्र कांप उठा था। वह शिवाजी को जीवित पकड़कर ले आने की कसम खाकर, विशाल फौज लेकर बीजापुर से निकला था। कोई कहीं पर भी उसके विरोध का साहस नहीं कर पा रहा था। उसके रास्ते पर पड़ने वाले मंदिर ध्वस्त किए जा रहे थे। डर के मारे पंढरपुर के पूज्य विठोबा की मूर्ति को लेकर भाग जाने का प्रयत्न उसके रक्षक ने किया। यहां तक कि शिवाजी की कुलदेवता तुलजा भवानी का मंदिर भी अफजल खां ने उद्ध्वस्त कर दिया। सभी ओर हाहाकार मच गया। ऐसे आड़े प्रसंग पर शिवाजी के सामने प्रश्न था, कि अपनी छोटी-सी सेना के अल्प सामथ्र्य के बलपर अफजल खां का सामना किस प्रकार किया जाए। क्योंकि उन अत्याचारों से उत्तेजित होकर अफजल खां की विशाल सेना के साथ मैदानी प्रदेश में टक्कर लेना, आत्मघात मात्र होता। कोई उपाय न करने पर, किसी अन्य किले में अधिक समय तक सुरक्षित रह सकना भी असंभव ही था।उस भीषण स्थिति में, शिवाजी की दूरदर्शिता काम आई। उन्होंने पहले ही प्रतापगढ़ का दुर्गम किला अपने अधीन कर रखा था। परकीय लोगों की सेवा से चिपके रहने के इच्छुक एक स्वकीय सरदार से संघर्ष करते हुए और उसे मौत के घाट उतारते हुए ही उन्हें वह अजेय किला प्राप्त हो सका था। अत: अपनी छोटी-सी सेना के साथ, शिवाजी उस अभेद्य किले में जा टिके। उसी दुर्ग को अपने कार्य का केन्द्र बनाकर, उन्होंने बड़े धीरज और शान्त भाव से अपनी भावी गतिविधियां चलाने का सोच रखा था। इसलिए सभी ओर से विनाश, विध्वंस और अनगिनत अत्याचारों के समाचार प्राप्त होने पर भी, वे शान्त-अविचल बने रहे। स्वयं को उन्होंने तनिक भी उत्तेजना का शिकार न बनने दिया।(श्रीगुरुजी समग्र दर्शन, खण्ड-6, पृ.-74)NEWS
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