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हिन्दू समाज को एकजुट होना होगा-श्री श्री रविशंकरप्रणेता, जीवन जीने की कला(आर्ट आफ लिविंग)जीवन जीने की कला यानी “आर्ट आफ लिविंग” के आज भारत में ही नहीं दुनिया में लाखों साधक हैं और यह संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है। इस कला के प्रणेता और गुरु हैं श्री श्री रविशंकर जो योग, प्राणायाम, ध्यान और तप के जरिए जीवन में अध्यात्म और फिर धर्म मार्ग का प्रवेश कराते हैं। पिछले दिनों पूज्य शंकराचार्य स्वामी जयेन्द्र सरस्वती को बंदी बनाने का श्री श्री रविशंकर ने मुखर विरोध किया था। हाल ही में श्री श्री रविशंकर दिल्ली आए थे। पाञ्चजन्य के ब्यूरो प्रमुख आलोक गोस्वामी ने उनसे धर्म, अध्यात्म और हिन्दुत्व से जुड़े अन्य विषयों पर बातचीत की। यहां प्रस्तुत हैं उसी भेंट वार्ता के मुख्य अंश-दुनिया में अनेक प्रकार की सभ्यताएं हुई हैं, ग्रीक सभ्यता रोमन सभ्यता आदि। लेकिन समय और काल के प्रवाह में जहां अधिकांश सभ्यताएं विलीन हो गईं, वहीं अनेक प्रकार के आघात और विपरीत परिस्थितियों के बावजूद हमारी सभ्यता यानी हिन्दू सभ्यता चिरंतन रही है। आप इसके पीछे क्या कारण मानते हैं?इसकी खूबी यही है कि यह अविनाशी है, सनातन है। इसीलिए इसका नाम सनातन है, क्योंकि हिन्दू सभ्यता जीवन के सत्य के साथ जुड़ी हुई है। बहुत गहरा सम्बंध है इसका जीवन के सत्य के साथ। यही कारण है कि हिन्दू सभ्यता जस की तस रही है, अक्षुण्ण रही है।हमारी सभ्यता का आधार है हिन्दुत्व। हिन्दुत्व में वह कौन-सा विशिष्ट गुण है कि भारत में भिन्न जात-पात, मत-पंथ, वर्ग भेदों के परे सब एक सूत्र में बंधे हैं?यही तो इसकी खासियत है। आप पूछेंगे कि सेब की विशेषता क्या है? सेब की विशेषता है उसका मीठापन। इसी तरह हमारे हिन्दू धर्म की खासियत है हर तरह के भेद भुलाकर सबको एक सूत्र में बांधना।आज हिन्दुत्व के प्रति एक चुनौती भरा माहौल दिखता है। हमारे आस्था-केन्द्रों पर आघात किए जाते हैं। पूज्य शंकराचार्य को अपमानित किया जाता है। ऐसा क्यों?हिन्दुत्व के प्रति इस तरह के आघात हमें बार-बार ध्यान दिलाते हैं कि हिन्दू समाज को एक होना चाहिए। हिन्दू समाज में एकजुटता हो तो इस तरह के हमले संभव नहीं होंगे। हम मूल्यों को भूलते जा रहे हैं। पद कोई हो, महत्वपूर्ण है उसके प्रति लोगों की श्रद्धा। शंकराचार्य जी के लाखों-लाख भक्त हैं। देखना चाहिए कि कितने लोगों की आस्था और विश्वास उस पद के प्रति है। लेकिन हमारे युवक इससे दूर हो रहे हैं। निश्चित ही, हमें समाज को सचेत करना होगा।क्या समाज में एकजुटता की कमी के कारण पूज्य शंकराचार्य जी का अपमान किया गया? क्या यह आस्था की कमी के कारण हुआ?नहीं, आस्था की कमी के कारण यह हुआ, ऐसा नहीं कह सकते। मगर लगता है, जगह-जगह धर्म में राजनीति बहुत ज्यादा प्रवेश कर रही है। जैसे- मंदिरों की ओर देखें तो उनको मिलने वाले अनुदान में तेजी से गिरावट आई है। यह सब देखकर लगता है कि धर्म की जिस प्रकार रक्षा की जानी चाहिए वह नहीं की जा रही है। हम सेकुलरवाद के नाम पर धर्म से दूर हो रहे हैं और धर्म और संस्कृति को जितना सम्मान देना चाहिए, नहीं दे रहे हैं। जहां तक शंकराचार्य जी के विरुद्ध अभियोग की बात है तो वह मामला अदालत में है, वही तय करेगा। लेकिन हमें विश्वास है, सत्य की जीत होगी। तब तक हमें इंतजार करना पड़ेगा।क्या यह धर्म पर प्रहार जैसा नहीं है?पहले भी कितनी ही बार धर्म पर प्रहार हुए हैं।आप पिछले दिनों पाकिस्तान गए थे। पाकिस्तान ने भारत के साथ हमेशा शत्रु जैसा व्यवहार किया है। वहां भारत के प्रति, भारतवासियों के प्रति कैसा माहौल दिखा?वहां बहुत अच्छा माहौल था। हमारा बहुत स्वागत हुआ। लोगों में बहुत प्यार-मोहब्बत दिखाई दी। जब हम वहां से रवाना होने लगे तो लोगों की आंखें भर आईं, कहने लगे, जल्दी जल्दी आया करें।वहां लोगों के मन में अध्यात्म और हिन्दू धर्म के प्रति गलतफहमियां थीं, वे दूर हुईं। वे समझते थे कि हिन्दू धर्म यानी मंदिरों में जाना, अनेक देवी-देवताओं की पूजा करना, जिनमें काली जैसी भयानक स्वरूप वाली देवी भी है। दरअसल, उन्हें धर्म के बारे में सही ज्ञान नहीं था।दोनों देशों के बीच दोस्ती बढ़ाने में आप जैसे आध्यात्मिक संतों की क्या भूमिका है?हम संतों के पास ज्ञान का खजाना है, जिसका दुनिया में प्रचार करना हमारा धर्म है। ऐसा न करें तो प्रमाद होगा। जहां तक राजनीतिज्ञों की बात है, वे भी तो मनुष्य ही हैं और हर मनुष्य को अध्यात्म की गहराई में जाने की जरूरत है।क्या आपको लगता है कि आज राजनीति में धर्म और जाति का महत्व बढ़ गया है?सही बात है। नहीं तो क्या कारण है कि इतनी पंथनिरपेक्षता की बातें करने वाले नेता चुनाव के समय यह कहते हैं कि फलां पंथ वाले को मुख्यमंत्री बनाएंगे। अगर किसी के पंथ का ध्यान नहीं रखते तो फिर चुनाव के समय जाति-पंथ की बात नहीं होनी चाहिए।मंदिरों पर शासन का अतिक्रमण और नियंत्रण कहां तक ठीक है?यह सही नहीं है। अगर देखना है तो सभी धर्म स्थानों को एक ही नजर से देखें। अगर सरकार मंदिरों के अलावा चर्चों, मस्जिदों को भी अपने नियंत्रण में ले तो ठीक है। मगर केवल मंदिरों पर नियंत्रण करेंगे तो उसका उल्टा असर पड़ेगा। इससे कट्टरपन बढ़ जाएगा। लोगों के बीच तनाव होने लगेगा। यह नहीं होना चाहिए।आपकी दृष्टि में पंथनिरपेक्षता क्या है?पंथनिरपेक्षता यानी सभी मत-पंथों को समान रूप से प्रेम करना, उन्हें समान रूप से देखना।भारतवर्ष के चिन्तन में पुनर्जन्म पर गहन आस्था है। हमारे यहां प्राचीन काल से ही मान्यता रही है कि मनुष्य पुराने वस्त्र की तरह पुराना शरीर छोड़कर नया शरीर धारण करता है। लेकिन दुनिया की अन्य सभ्यताएं पुनर्जन्म को नहीं मानतीं। सवाल यह है कि अगर पुनर्जन्म होता है तो सबका ही होता है, चाहे वह किसी मत-पंथ को मानने वाला हो और अगर पुनर्जन्म नहीं होता तो किसी का नहीं होता। दुनिया के लोग इसको लेकर जिस अज्ञान में जी रहे हैं, उसको कैसे खत्म किया जाए?आज विज्ञान ने इस बात को हल कर दिया है। अगर आप “थर्मोडाइनामिक्स” के पहले सिद्धान्त पर यकीन करते हैं कि “तत्व और ऊर्जा न तो पैदा किए जा सकते हैं, न खत्म” तो आप स्वत: ही पुनर्जन्म को मान रहे होते हैं। क्योंकि भौतिक शरीर का कण-कण तो मिट्टी में मिल जाता है। लेकिन मन यानी ऊर्जा का क्या होता है? आप भौतिक शास्त्र के आधार पर इसे देखेंगे तो आपको पुनर्जन्म पर विश्वास करना ही पड़ेगा। यह तो हुई एक बात। दूसरी बात, अगर आप मनोचिकित्सा अथवा मनोविज्ञान के आधार पर देखेंगे तो हर “साइकिएट्री क्लीनिक” (मनोचिकित्सालय) में “पास्ट लाइफ थैरेपी” (पूर्वजन्म चिकित्सा), रिग्रेशन थैरेपी (पुनरागमन चिकित्सा) की जा रही है। इसे चिकित्सकीय दृष्टि से देखा जा रहा है। आज, एक तरह से चिकित्सा विज्ञान ने पुनर्जन्म को मान लिया है, तो भौतिक शास्त्र ने भी माना है। हिन्दू, सिख, बौद्ध सभी इसे मानते हैं। हमारी संस्कृति में इस पर विश्वास किया जाता है। दुनिया ने भी व्यावहारिक अनुभव के आधार पर इसे स्वीकार किया है। जैसा कि मैंने बताया, विदेशों के मनोचिकित्सालयों में “रिग्रेशन थैरेपी” बहुत प्रचलित हो चुकी है। इसमें व्यक्ति को उसके पहले के जन्म की ओर लौटाया जाता है।पुनर्जन्म से ही जुड़ी हमारे यहां मान्यता है कि मनुष्य तब तक फिर-फिर जन्म लेता है जब तक कि मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो जाती। इस पर कुछ कहें।यह बहुत गहरा सिद्धान्त है। पुनर्जन्म की बात करें तो हर विज्ञान उसे स्वीकार करता है। चिकित्सा विज्ञान भी इसको गंभीरता से लेता है। मैंने हाल ही में अमरीका में वहां के मनोचिकित्सकों के सम्मेलन को सम्बोधित किया था। न्यूयार्क के उस सम्मेलन में 20 हजार लोग आए थे। वहां भी “रिग्रेशन थैरेपी” बहुत प्रचलित है। लोग इस बारे में जानने लगे हैं। हमें सिद्ध करने की भी जरूरत नहीं पड़ी। जब किसी व्यक्ति को मानसिक-परेशानी होती है तो उसे उसकी स्मृतियों में पीछे लौटाया जाता है और पूर्व की घटनाओं की उलझन से उसे मुक्त किया जाता है।आपको नोबेल शांति पुरस्कार दिए जाने के प्रस्ताव भेजे गए हैं। कैसा अनुभव करते हैं?नहीं, कुछ विशेष नहीं।NEWS
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