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कुछ लोग दूसरों की सहायता की अपेक्षा करते हैं। उनका विचार है कि जगत में अनेक बलशाली और शस्त्र-सम्पन्न देश हैं, उनमें से कोई भी अपने संकट के समय सहायता करने के लिए दौड़ पड़ेगा। इसके लिए प्रमाण दिया जाता है कि जब भारत पर चीन ने आक्रमण किया था, तब अमरीका हमारी याचना पर सहायतार्थ दौड़ पड़ा था और अभी पाकिस्तान के साथ जो लड़ाई हुई उसमें रूस ने सहायता की। अत: शक्ति की उपासना तथा शस्त्रास्त्र-संग्रह करने की क्या आवश्यकता है? क्या इस प्रकार दूसरों पर भरोसा रखकर चलना उचित है? कोई न कोई अपनी सहायता करेगा तथा हमें बचाएगा, ऐसी धारणा रखने वालों के बारे में भला क्या कहा जाए?अहिंसा-सिद्धांत शक्ति की उपासना के विरोध में अहिंसा का सिद्धान्त भी बतलाया जाता है। परन्तु पता नहीं कि हमारे तथाकथित अहिंसावादी लोगों ने, दुर्बलता को ही अहिंसा कैसे मान लिया है। जिन पांच महाव्रतों के पालन की बात कही जाती है, उनमें एक व्रत अहिंसा है। इसके साथ दो महापुरुषों का नाम लिया जाता है। एक भगवान बुद्ध और दूसरे महात्मा गांधी। मुझे भगवान बुद्ध के जीवन का एक प्रसंग स्मरण हो आता है। एक बार एक राज्य के सेनापति ने गौतम बुद्ध से प्रार्थना की कि वे उसे दीक्षा देकर अपना शिष्य बनाएं। भगवान बुद्ध ने उससे पूछा, “वह सेनापति-पद छोड़कर भिक्षु क्यों बनना चाहता है?” उसने कहा, “पड़ौसी राज्य ने उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया है और उसे सेनापति के नाते अपने राज्य की रक्षा करने का आदेश राजा ने दिया है। यदि वह राजा की आज्ञा मानता है, तो दोनों ओर खून-खराबा होकर घोर हिंसा होगी। अत: उसके मन में युद्ध के प्रति विरक्ति निर्माण हुई है। वह हिंसा करना नहीं चाहता है। इसलिए वह अपना पद छोड़कर उनके पास भिक्षु की दीक्षा ग्रहण करने के लिए आया है।” बुद्ध तत्त्वज्ञ थे। उन्होंने सेनापति से कहा कि उसके चले जाने से शत्रु की सेना लौट नहीं जाएगी। युद्ध होकर ही रहेगा और आक्रमणकारी जन-धन दोनों को नष्ट करेंगे। इससे निरपराध लोगों का जीवन उध्वस्त होगा। अब इस हिंसा के लिए वही जिम्मेदार होगा, क्योंकि उसने अपना कर्तव्य नहीं निभाया। उचित यह है कि वह अपने राज्य में जाकर लोगों की रक्षा करने का दायित्व पूरा करे। रक्षा करना धर्म-कार्य है और उसमें प्राणहानि हो तो भी उसका उसे पाप नहीं लगेगा। उसका भिक्षु बनने का विचार भूल है। इस प्रकार भगवान बुद्ध ने उपदेश दिया है। यह भगवान बुद्ध की शिक्षा है। परन्तु पता नहीं, उनकी इस शिक्षा को कोई क्यों नहीं प्रचारित करता?गांधीजी का मत महात्माजी ने भी अहिंसा का प्रचार किया था। उनके जीवन का भी एक प्रसंग हमें याद रखना चाहिए। अमदाबाद में जब एक बार मुसलमानों द्वारा दंगा प्रारंभ किया गया, तब हिन्दू प्राणभय से भागने लगे थे। उस समय गांधी जी ने उन लोगों को फटकारा था, कि कायरों जैसे क्यों भागते हो? तुम लोग मेरे नाम पर अहिंसा की रट लगाते हो और भागते हो! मेरी कोई कायरों की अहिंसा नहीं है। इस प्रकार कायरतापूर्वक भाग जाने से, लड़ना, मरना और मारना श्रेष्ठ है। मेरी अहिंसा शूर-वीरों की अहिंसा है।”(श्रीगुरुजी समग्र दर्शन, खण्ड-6, पृ.-14)NEWS
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