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क्याआज हमारे ह्मदयों में अपनी मातृ-भूमि की भक्ति का यह पराक्रमी एवं ओजस्वी भाव जीवित है? यदि यह भाव हमारे नेताओं और सामान्य जनता में होता तो क्या देश का विभाजन घटित हो सकता था? क्या वे अंग्रेज तथा मुसलमानों के सभी षडंत्रों के विरोध में पराक्रम के साथ सभी समझौतों को ठुकराते हुए एक पुरुष के समान खड़े नहीं हो जाते? और क्या अपनी मातृभूमि की पवित्र अखंडता की सुरक्षा हेतु अपने रक्त की एक-एक बूंद देने के लिए उद्यत न हो जाते? खेद है कि यह घटित नहीं हुआ। उलटे नेताओं की प्रेरणा से जनता तथाकथित स्वतंत्रता के आगमन पर उत्सव मनाने में व्यस्त हो गई।कुछ ऐसे ही महानुभाव हैं जो कहते हैं कि “बीती ताहि बिसारि दे। अब पुराने निर्जीव विवादास्पद प्रश्नों को उठाने से क्या लाभ? अन्ततोगत्वा विभाजन तो अब एक निर्णीत सत्य है ही।” यह कैसे सम्भव हो सकता है? क्या कोई पुत्र जब उसकी विकलांगी माता उसकी ओर प्रतिदिन दैन्य पूर्ण दृष्टि से ताक रही हो, इसे भूलकर शान्त होकर बैठ सकता है? भूल सकता है? भला भूलना कैसे सम्भव है? सच्चा पुत्र तो कभी भी नहीं भूल सकता और तब तक शान्त भी नहीं बैठ सकता जब तक उसकी मां की अखण्ड प्रतिमा पुन: स्थापित न हो जाए। यदि विभाजन निर्णित सत्य है, तो हम उसे अनिर्णीत करने के लिए उपस्थित हैं। इस संसार में, वास्तव में, कोई भी वस्तु निर्णित सत्य नहीं होती। वस्तुएं मनुष्य की इच्छानुसार निर्णित या अनिर्णित हुआ करती हैं। और मनुष्य की इच्छा अपने उस कार्य के प्रति समर्पण के साथ, जिसे उसने पवित्र और श्रेष्ठ माना है, फौलाद जैसी दृढ़ बन जाती है।कुछ अन्य भी हैं जो लोग विभाजन को यह कहकर न्याय सिद्ध करते हैं कि आखिर हिन्दू और मुसलमान “भाई” ही तो हैं। विभाजन उनकी सम्पत्ति का आपसी बंटवारा मात्र है। किन्तु क्या हमने ऐसे बच्चे कहीं सुने हैं, जिन्होंने अपनी माता को संयुक्त सम्पत्ति कहकर काट डाला हो? यह कितना घोर पतन है कि मातृभूमि एक सौदे की वस्तु मात्र बन गई है, आनन्द-भोग के लिए एक स्थान मात्र किंवा केवल एक होटल के समान भोग-भूमि। उसमें धर्मभूमि, कर्मभूमि और पुण्यभूमि का कोई भाव नहीं रहा है। इस जघन्य वृत्ति के कारण ही हमने माता के अंग काटकर फेंक दिए और अपने लाखों भाइयों के रक्तप्रवाह के रूप में उसका मूल्य चुकाया। आज भी विभाजन की दु:खद बात का अंत नहीं हो रहा है। कश्मीर का विभाजन हो गया और अब यह प्रतीत होता है कि नागालैंड भी उसी रास्ते पर है।(विचार नवनीत , मा.स. गोलवलकर, पृ.95)NEWS
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