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वरिष्ठ व्याख्याता,दिल्ली विश्वविद्यालयबौद्धिक पुनर्जागरण का समयविषय पर विचार करते हुए एक अति साधारण-सा प्रश्न मेरे मन में उठा- “अगर मुस्लिम लीग पाकिस्तान की मांग को छोड़ देती तो कांग्रेस क्या-क्या और कर सकती थी?” और इससे ही जुड़ा हुआ एक दूसरा प्रश्न है, “आज हम क्या-क्या छोड़ दें, किन-किन चीजों को भुला दें और अपने आपको किस सांचे में ढालें जिससे कि भारत में अल्पसंख्यक माने जाने वाले समुदायों (विशेषकर मुस्लिमों) को हम संतुष्ट कर सकें और सेकुलरवादियों की नजर में सच्चे पंथनिरपेक्षतावादी बन सकें?”दरअसल, ये प्रश्न हमारे भूत, वर्तमान एवं भविष्य को जोड़ते हैं। ये इतिहास की घटनाओं, वर्तमान की ऊ‚हापोह एवं भविष्य में भारत के स्वरूप और प्रकृति के बीच जीवंत कड़ी भी हैं। ये सिर्फ सेकुलरवादियों अथवा अल्पसंख्यकवादियों की आलोचना के प्रश्न न होकर राष्ट्रवादियों के लिए आत्मालोचन के भी बिन्दु हैं। कांग्रेस विभाजन को क्यों नहीं रोक पाई? महात्मा गांधी-नेहरू का नेतृत्व मुसलमानों का विश्वास जीतने में क्यों विफल रहा? कांग्रेस की विवशता मुसलमान क्यों बने? बहरहाल, मुझे लगता है कि अंतिम प्रश्न का उत्तर पहले ढूंढा जाना चाहिए। समान राजनीतिक- सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में रहने के बावजूद भारत के मुसलमानों को साम्राज्यवाद विरोध का प्रश्न तो समझ में आता था, परन्तु भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष की भावना से वे उद्वेलित नहीं हो पाते थे। तुर्की में खलीफा के साथ ब्रिाटिश व्यवहार ने उन्हें थोड़े समय के लिए साम्राज्यवाद विरोधी बनाया था, परन्तु वह एक क्षणिक घटना साबित हुई। स्वतंत्रता के प्रश्न पर वे निष्क्रिय बने रहे। कांग्रेस इसी निष्क्रियता को तोड़ना चाहती थी। मुस्लिम नेतृत्व स्थानीय तौर पर “मस्जिद के सामने बाजा (संगीत)”, “गो-हत्या”, “ताजिया”, “हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों के विसर्जन के मार्ग के चयन” जैसे प्रश्नों में ही उलझा रहता था, तो राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम नेतृत्व सत्ता में भागीदारी हेतु “अल्पसंख्यकों की संस्कृति, मजहब, अधिकार” के नाम पर राजनीति करता रहा। कांग्रेस सभी विवादों में मुस्लिम पक्ष के प्रति सतर्कता बरतते हुए बयान देती थी और कठघरे में हिन्दुओं को खड़ा करती थी।हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों का विरोध कांग्रेस की इसी राजनीतिक सोच पर आधारित था। “लखनऊ पैक्ट (1916)” से लेकर गांधी-जिन्ना वार्ता (सितम्बर, 1944) तक कांग्रेस इसी राजनीतिक विवेक का इस्तेमाल करती रही। कांग्रेस के अति उदारवादी चरित्र, हिन्दू मन- हित-सोच एवं संवेदना के प्रति बेरुखेपन एवं मीठे व्यवहार के बावजूद गांधी-नेहरू की कांग्रेस मुस्लिमों की नजर में “हिन्दू पार्टी” और कांग्रेसी शासन (1937-39) “हिन्दू राज” ही था। द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व तक प्रदेशों में कांग्रेस के अल्पकालीन शासन पर लीग ने एक रपट प्रकाशित की थी जिसे “पीरपुर रपट” के नाम से जाना जाता है। उसमें कांग्रेसी सरकारों पर “अल्पसंख्यक विरोधी”, “साम्प्रदायिक”, “हिन्दू-फासीवादी” होने जैसे आरोप लगाए गए थे। भारत विभाजन की घटना, प्रक्रिया, समानान्तर राष्ट्रीयता के जन्म, पोषण एवं आक्रामक होने के प्रकरण को जिस सरलीकरण के साथ प्रस्तुत किया जाता रहा है उसने हिन्दुओं की आंखों पर नेहरूवादी विवेकशून्यता की पट्टी बांधे रखने का काम किया है। कितने आसानी से सावरकर को जिन्ना के स्तर पर ला खड़ा कर दिया गया और दोनों को द्विराष्ट्रवाद के लिए समान रूप से जिम्मेदार ठहरा दिया गया।भारत की संविधान सभा में जरूर उन अलगाववादी प्रवृत्तियों के पैदा होने का कारण ढूंढा गया, परंतु नेहरूवादी ताकतें वहां भी भविष्य के खतरों के प्रति आश्वस्त नजर आईं और अल्पसंख्यकवाद का बीजारोपण इसी ताकत के माध्यम से स्वतंत्र भारत में हुआ। संविधान सभा में मौलिक अधिकारों की सलाहकार समिति ने 30 दिसम्बर, 1948 को मजहब के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था को पूरी तरह खारिज कर दिया। इस समिति के अध्यक्ष एक ईसाई एच.सी. मुखर्जी थे और दूसरे सदस्य ताजमुल हुसैन थे। इस मांग को खारिज करने में इन दोनों सदस्यों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। परंतु कई विषयों पर नेहरूवादियों का दबाव बना रहा। उदाहरण के तौर पर, अल्पसंख्यकों के सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक अधिकारों पर बनी उपसमिति में अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थाओं के निर्माण के प्रश्न पर विवाद खड़ा हुआ। पंथनिरपेक्ष राज्य में अलग शिक्षण संस्थाओं की आवश्यकता एवं भूमिका पर बहस हुई। सदस्यों का मानना था कि वे अलगाववादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देंगी। अंत में मुसलमानों के पिछड़ेपन, अशिक्षा एवं गरीबी का राग अलापा गया। फिर बहुमत से अल्पसंख्यकों को शिक्षण संस्थाओं के निर्माण का अधिकार दिया गया। जो अपवाद होना चाहिए था वह आज आम बन चुका है। मुस्लिम मानसिकता में आज भी वही इस्लामी चेतना है कि राज्य संचालित स्कूल-कालेज हिन्दू संस्थाएं ही हैं।ऐसी ही चूकों को देखते हुए संविधान सभा में 11 मई, 1948 को एच.सी. मुखर्जी ने अपने भाषण में दो प्रश्न सदस्यों के सामने रखे थे : पहला- “क्या हम सचमुच में ईमानदार हैं जब हम कहते हैं कि हम एक पंथनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करना चाहते हैं?” दूसरा, “क्या हमारा उद्देश्य एक राष्ट्र बनाना है? अगर हमारा विचार एक पंथनिरपेक्ष राज्य बनाने का है तो इससे अवश्यंभावी रूप से एक बात सामने आती है कि हम मजहब के आधार पर अल्पसंख्यक अवधारणा को मान्यता नहीं दे सकते हैं।”स्वतंत्र भारत में अल्पसंख्यकों एवं उनके अवैतनिक माक्र्सवादी सिद्धांतकारों से पूछा जाना चाहिए कि भारत में पंथ निरपेक्षता की उनकी क्या कल्पना है? किन-किन बातों, विषयों, चीजों का हिन्दू मानस तिरस्कार करे जिससे पंथनिरपेक्षता को ढोने की जिम्मेदारी वह उठाता रहे। क्या राममंदिर, गो-हत्या प्रतिबंध और समान नागरिक कानून जैसे प्रश्नों को भूल जाने से भारत के मुसलमान/ईसाई राष्ट्रीय समाज, संस्कृति और सभ्यता के प्रवाह और संविधान सभा की भावना से अपने आपको जोड़ लेंगे? आजादी के बाद नई शुरूआत की संभावना ने ही नेहरू जैसे अल्पसंख्यक-प्रेमी को भी अपने सामने मुस्लिम श्रोताओं को देखकर कुछ सवाल पूछने के लिए बाध्य होना पड़ा। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के वार्षिक दीक्षांत समारोह में उन्होंने मुस्लिम छात्रों-शिक्षकों से प्रश्न किया, “मैंने कहा है कि मुझे अपनी विरासत पर तथा अपने पूर्वजों पर गर्व है जिन्होंने भारत को एक बौद्धिक एवं सांस्कृतिक उत्कर्ष प्रदान किया है। आप इस अतीत के बारे में कैसा महसूस करते हैं? क्या आप महसूस करते हैं कि आप भी इसमें साझेदार हैं और इसके वारिस हैं? परिणामस्वरूप मेरे साथ ही साथ आपके पास विरासत के रूप में जो कुछ है, क्या उस पर आपको गर्व महसूस होता है? अथवा क्या आप अपने को बेगाना महसूस करते हैं और इसे समझे बिना या इस अनूठे रोमांच की अनुभूति किए बिना, जो इस तथ्य से जन्म लेती है कि हम इस महान (सांस्कृतिक) खजाने के संरक्षक एवं वारिस हैं, आप इससे मुख मोड़ लेते हैं? मैं आपसे यह प्रश्न इसलिए पूछता हूं कि क्योंकि हाल के वर्षों में कई शक्तियां लोगों के दिमाग को गलत दिशा में मोड़ने एवं इतिहास की धारा को विरूपित करने का खेल खेल रही हैं। आप लोग मुसलमान हैं एवं मैं एक हिन्दू हूं। हम लोग भिन्न-भिन्न पांथिक निष्ठाओं से बंधे हो सकते हैं या हो सकता है कि हममें कोई पांथिक निष्ठा ही न हो, लेकिन यह हमें उस सांस्कृतिक विरासत, जो मेरे साथ ही साथ आपकी भी है, से अपदस्थ नहीं करती।”नेहरू का यह प्रश्न अल्पसंख्यकों के लिए प्रासंगिक है और मेरे मन में उठे प्रश्न का भी निदान है।जब तक भारत का मुसलमान व ईसाई देश की सांस्कृतिक-बौद्धिक विरासत, परम्पराओं, समझ, दर्शन से अपने-आपको स्वप्रेरणा से नहीं जोड़ता है, वह कभी भी हिन्दू उदारवादी चेतना, व्यवहार, समन्वयवाद एवं स्व-तिरस्कार से संतुष्ट नहीं हो सकता है।भारत की न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका, भारत की सेना, देश के विश्वविद्यालयों, संस्थाओं के भवनों पर वेदों एवं अन्य प्राचीन ग्रंथों से उद्धृत ध्येय वाक्य लगे हैं : “सत्यमेव जयते” से लेकर “वसुधैव कुटुम्बकम्” जैसे दार्शनिक एवं मानवीय चेतना से सारगर्भित वाक्यों के स्रोत-ग्रंथों से अल्पसंख्यकों का कितना लगाव है? वे इन्हें हिन्दुओं के ग्रंथ-समझते हैं और यह सत्य भी है। वे मानव समाज के अस्तित्व, अस्मिता, बौद्धिक विकास की स्वतंत्रता, जीवन की बहुलता, सत्य का आग्रह करते हैं इसलिए पाश्चात्य पंथनिरपेक्षता को जीवन दर्शन मानने वाले भी इन ग्रंथों के इन वाक्यों को भवनों पर अंकित कराते रहे हैं। क्या इन्हें छोड़ देना चाहिए? नहीं, तो मुस्लिम समाज में कितने प्रतिशत लोग हैं जिन्होंने अपने घरों में इन ग्रंथों को स्थान दिया है, भाषणों और लेखों में उद्धृत किया है? वेदों/उपनिषदों एवं इस भारतीय परंपरा की बौद्धिक विरासत को वे इस्लाम/ईसाई पंथोपदेशों के समानान्तर, प्रतिद्वंद्वी साहित्य के रूप में देखते हैं? किसी मुस्लिम संस्था या विद्वान ने वेदों, उपनिषदों के उर्दू अनुवाद की बात सोची है? क्या ऐसा करना पंथ निरपेक्षता के प्रतिकूल होगा?इससे जुड़ा हुआ दूसरा पहलू भी है। राजा राममोहन राय और स्वामी विवेकानंद को किस रूप में देखा जाना चाहिए? राजा राममोहन राय को “भारतीय पुनर्जागरण का जनक” कहा जाता है। उनके सुधार का कार्यक्षेत्र क्या था? वे हिन्दू समाज, हिन्दू धर्म और हिन्दू संस्कृति के उत्थान एवं सुधार में निष्ठापूर्वक लगे रहे। उन्होंने मुस्लिम महिलाओं की हालत का प्रश्न नहीं उठाया था, उनकी शिक्षा के सवाल को अहमियत नहीं दी थी। आखिर क्यों? क्या वे अपनी सीमाओं और अल्पसंख्यकों की प्रतिबंधित सीमा से परिचित थे? सेकुलरवाद के मानदंड के अनुसार तो वे “हिन्दू पुनर्जागरण के जनक” कहे जाने चाहिए! हिन्दू समाज सुधारक राष्ट्रीय हैं क्योंकि सुधार के प्रश्न को उन्होंने मानवीय, वैज्ञानिक और उदारवादी चेतना के आधार पर परखा है। अल्पसंख्यकों की प्रतिबंधित सीमाओं में कोई सुधारक स्वेच्छा से नहीं पहुंच पाता है तभी तो पंथनिरपेक्ष राज्य की भूमिका अहम हो जाती है। राज्य से उस विरोध, निष्क्रियता और जड़ता को तोड़ने की अपेक्षा रखी जाती है। भारत की नेहरूवादी परंपरा में राज्य को शक्तिहीन, इच्छाशक्ति विहीन बनाकर छोड़ दिया गया। इसीलिए तो समान नागरिक कानून की मांग को साम्प्रदायिकता का पर्याय मान लिया जाता है।किसी मुस्लिम परिवार में तुलसी का पौधा नहीं हो तो कुछ अस्वाभाविक नहीं है, परन्तु स्वामी विवेकानन्द को भी स्वीकार न किया जाए तो प्रश्न जरूर खड़ा होता है कि क्या इस महान सांस्कृतिक योद्धा को भी वे “साम्प्रदायिक” मानते हैं? स्वामी विवेकानन्द का यह कथन क्या कोई मुस्लिम साहित्य उद्धृत करने के लिए तैयार है कि “भारत में, एक दूसरे के विरोधी होने पर भी आज बहुत से पंथ-सम्प्रदाय हैं। संभव है कि तुम द्वैतवादी हो, मैं अद्वैतवादी। संभव है कि तुम अपने को भगवान का नित्यदास समझते हो और दूसरा यह कहे कि मुझमें और भगवान में कोई अन्तर नहीं है। पर हम दोनों ही हिन्दू हैं। और सच्चे हिन्दू हैं?” इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए उसी उक्ति का स्मरण करें “एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति।” क्या महात्मा गांधी का भजन “ईश्वर अल्ला तेरे नाम” गुनगुनाने के लिए मुस्लिम बालकों को मदरसों में प्रेरित किया जाता है? हम एक-एक कर छोड़ते जाएंगे तब भी सूची में “समाप्त” शब्द नहीं आ पाएगा। “हिन्दू” शब्द या “हिन्दू राष्ट्र” न कभी संकुचित थे, न हैं। परहेजवादी मन और नेतृत्व ने इन्हें संकुचित बना दिया है। हिन्दू शब्द का त्याग कर भारतीय शब्द अपनाने से क्या मुस्लिम मानसिकता अपने आपको देश की विरासत से जोड़कर देखना शुरू कर देगी? पंथनिरपेक्षता की अवधारणा अपने आप में पूर्ण नहीं है। संदर्भहीन होकर इसे परिभाषित, पोषित एवं पुष्पित नहीं किया जा सकता है। इसका ऐतिहासिक राष्ट्रीय, सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य होता है। ईसाई बहुल यूरोप की पंथनिरपेक्षता की अवधारणा की सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक पृष्ठभूमि वह नहीं है जो भारत में पंथनिरपेक्षता की पृष्ठभूमि है। दोनों पृष्ठभूमियों के अंतर को स्थापित करने से ही अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक विभाजन की अप्रासंगिकता सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक स्तरों पर साबित हो जाती है।नेहरूवादी-माक्र्सवादी बौद्धिक चेतना की जड़ पश्चिम के मानदंडों, माक्र्स के दर्शन में है। वे ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक, देशीय पर्यावरणों, पृष्ठभूमियों की अवहेलना एवं उपेक्षा कर उन्हें पूरी तरह से नकारते हैं। वैकल्पिक राष्ट्रवादी बौद्धिक चेतना की प्रकृति विरोधात्मक अधिक रही है। हिन्दुत्व के राष्ट्रीय स्वरूप, उदारवादी एवं पंथ निरपेक्ष प्रकृति के लिए वैकल्पिक बौद्धिक चेतना राष्ट्र की सांस्कृतिक एवं बौद्धिक विरासत को अछूत करती रही है। इस अतिनिर्भरता ने वर्तमान की चुनौतियों के सामने हमें कमजोर बना दिया है। हम अपने उदार, सर्वग्राही और राष्ट्रीय होने का प्रमाणपत्र अपने भूतकाल से लेते रहे हैं। वर्तमान की बौद्धिक चुनौतियों को नए संदर्भ में नई शब्दावलियों, तरीकों एवं तर्कों से लड़ना होगा। पहले हम भौतिक शक्ति के अभाव में बौद्धिक सम्पदा की प्रचुरता के बावजूद परास्त होते थे तो आज भौतिक शक्ति की प्रचुरता के बावजूद क्षीण बौद्धिक शक्ति के कारण पिछड़ रहे हैं। यह समय बौद्धिक पुनर्जागरण के आह्वान का है। अल्पसंख्यकवाद कमजोर नींव पर खड़ी मंजिल है जिसे बौद्धिक ऊर्जा एवं क्षमता से विध्वंस करने की जरूरत है। समझौतावाद एवं पलायन किसी समस्या का स्थाई समाधान नहीं है। खिलाफत से जुड़ने के बाद भी मुसलमानों की नजर में कांग्रेस हिन्दू पार्टी ही थी। सोमनाथ को ही ये राष्ट्रीय सम्मान एवं संस्कृति का प्रतीक नहीं मानते हैं तो अयोध्या को कैसे मान लेंगे? जड़ समाज पंथनिरपेक्षता का सहचरी नहीं हो सकता है। हिन्दू समाज का परिष्कार, विरोधाभासों का अंत एवं अपनी विरासत और वर्तमान के प्रति आत्मविश्वास ही भारत की पहचान की अंतिम गारंटी है।NEWS
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