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दीनानाथ मिश्रनई शालीनता?तीसरे पेज की तकदीर खुल गई है। एक जमाना था जब तीसरे पेज पर महत्वहीन स्थानीय खबरें डेरा जमाए रहती थीं। जिनकी खबरें तीसरे पेज पर छपतीं वे शिकायत करते कि उनकी खबर को कूड़ेदान में डाल दिया गया है। जबकि सचाई यह होती थी कि कूड़ेदान में जाने लायक घुचीमुची खबरों को तीसरे पृष्ठ पर मेहरबानी करके छाप दिया जाता था। अक्सर उसमें व्यायामशाला, प्रभातफेरी, स्थानीय स्कूल की व्यवस्था समिति की बैठक जैसी खबरें भरी रहती थीं। आज तीसरे पेज की रौनक ही दूसरी है। पसरते-पसरते यह परिशिष्ट बन गया है। आज तीसरा पेज यशस्वी लोगों का उत्सव-स्थल बन गया है। महत्वपूर्ण लोग, बहुत-बहुत महत्वपूर्ण लोग तीसरे पेज की सांस्कृतिक आभा-प्रभा बिखेरते पूरे-पूरे परिशिष्ट पर छाए नजर आते हैं। आज यह खूबसूरत चेहरों की एलबम होती है।तीसरा पेज सांप-सीढ़ी का खेल भी होता है। कुछ ऐसे महत्वपूर्ण लोग होते हैं जिनसे पार्टियों में मुलाकात हो जाती है तो आपको सीढ़ी मिल गई समझिए। दूसरी तरफ कुछ भोली-भाली शक्लों में होते हैं जल्लाद भी। उनकी जहर बुझी कानाफूसी से आप फिसल सकते हैं और लुढ़कते-लुढ़कते आप निचले पायदान पर पहुंच सकते हैं। रात्रि के खाने-पीने के ये आयोजनकर्ता चुनिन्दा लोगों को बुलाते हैं। एक से एक विज्ञापनी चेहरे। इन पार्टियों की भी एक वेश संस्कृति होती है। कोई अपनी बाजुओं की मछलियां प्रदर्शित करने के लिए जीन्स और टी-शर्ट में होता है, कोई डिजाइनरी चोला और चूड़ीदार में। कोई फैब इण्डिया का नवीनतम चटक रंग धारण किए आता है। कुछ देवियां संक्षिप्त वेश में आ जाती हैं, कुछ “परिभाषा” बनकर। परिभाषा इसलिए कि उनका पूरा शरीर उस वस्त्र में हू-ब-हू परिभाषित हो जाता है।समय गुजरता जाता है और लोग आते-जाते हैं। ऐसे जमावड़े दिल्ली, मुम्बई जैसे महानगरों में हर रात सैकड़ों में होते हैं। कुछ आलीशान घरों में, कुछ -फार्म हाउसों में, कुछ पंचतारा होटलों में। शहर में कुछ हस्तियां ऐसे आयोजन करने के लिए मशहूर होती हैं। महीने में दो-चार आयोजन न करें तो उनकी जिन्दगी नीरस होने लगती है। इन आयोजनों में नामी-गिरामी कुछ लोगों को बुलाया जाता है, दो-चार पत्रकारों को, कुछ राजनेताओं को भी। फैशन डिजाइनर और मॉडलें तो खास आयोजन की केन्द्र होती हैं। गाहे-बगाहे पूंजी घराने से सम्बंधित लोग भी होते हैं। कोई रानी मधुमक्खी आ गई तो आकर्षण का केन्द्र बन जाती है। इन आयोजनों के दूसरे चरण में दो-चार के समूहों में लोग उपलब्ध स्थान के अनुसार बिखर जाते हैं। आपसी नैकट स्थापित करते हैं। सामाजिक मिलन का यह तौर-तरीका लोकप्रिय होता रहा है। इनके ही रंगीन मित्र अगले दिन अखबारी परिशिष्टों की शोभा बढ़ाते हैं। कुछ तो ऐसे चेहरे होते हैं कि आप हर हफ्ते किसी न किसी पार्टी में छपा देख सकते हैं। तीसरे पेज पर यह सब नहीं होता। मगर तीसरे पेज की संस्कृति जरूर कहते हैं।कुछ लोग इसे अपसंस्कृति कहते हैं। कहते रहें, इनकी बला से। इनको क्या फर्क पड़ता है? ये ठहरे यशस्वी लोग। यश हो या अपयश, होते तो यशस्वी ही हैं। अभी पिछले दिनों शक्ति कपूर ने कई मशहूर हस्तियों के जोड़ों की यशोगाथा सुनाई थी। एक चैनल ने उसे प्रसारित भी किया था। बड़ी बहस चली। क्या कोई बदनाम हुआ? कोई अपमानित हुआ? किसी का बाजार भाव नीचे गिरा? जिन लोगों ने पार्टियों, अखबारों, फिल्मों, चैनलों वगैरह की सीढ़ियां चढ़कर यश अर्जित कर लिया है, उनका अपयश हो ही नहीं सकता। उनका अपयश भी यश ही होता है। बदनाम होंगे तो क्या, नाम न होगा? महानगरों की धनाढ्य और नवधनाढ्य संस्कृति आपको भले ही कुछ भी लगे दिखावटी लगे या बनावटी, श्लील लगे या अश्लील। अब इन्हीं सब को कुलीन माना जा रहा है। यही है नई कुलीनता, नई शालीनता।NEWS
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