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हमारे वर्तमान शासकों के लिए तो हिन्दू शब्द ही अभिशप्त हो गया है। जो भी हिन्दू समाज को छोड़कर अहिन्दू अल्पसंख्यक के रूप में अपने को प्रदर्शित करता है, वह हमारी सरकार का विशेष अनुग्रह-पात्र बन जाता है। इसका परिणाम यह हुआ कि हमारे अनेकों सम्प्रदाय स्वयं को अहिन्दू कहलाने का अधिकार प्रतिपादित करने की एक दूसरे से होड़ लगाए हुए हैं तथा धन, सत्ता एवं विशेष अधिकार प्राप्त करने के लिए अपने हाथ फैलाए हैं। विशेष रूप से जब वे देखते हैं कि हमारे नेता अहिन्दुओं तथा हिन्दू विरोधी जातियों को विशेष राजनीतिक प्रतिष्ठा देने के लिए उद्यत हैं तो उनकी विघटनकारी वृत्ति तथा हिन्दू विरोधी भावना और अधिक जागृत हो जाती है। वे देखते हैं कि अहिन्दू होने के कारण ही मुसलमानों ने अपना एक स्वतंत्र राज्य प्राप्त कर लिया है। ईसाई भी अपना स्वतंत्र “नागालैण्ड” प्राप्त करने वाले हैं। उन ईसाई संस्थाओं को, जो आज भी 15 अगस्त के दिन यूनियन जैक फहराती हैं तथा धर्मोन्मादी प्रचार करती हैं, सरकारी सहायता बन्द हो जाने का भय नहीं है। इसके विपरीत, यदि कोई हिन्दू शिक्षा संस्था हिन्दू-प्रार्थनाएं तथा गीता के श्लोकों का पाठ आरम्भ करती है, तो सरकार तुरंत हस्तक्षेप करती है और वित्तीय सहायता बंद करने की धमकी देती है।
यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे ही नेता, हमारे ही लोग, हमारे समाज की एकता की जड़ें खोदते हैं और उस अभेद की भावना को नष्ट करते हैं जिसने भूतकाल में सभी विविध सम्प्रदायों को भेदरहित, पूर्ण इकाई के रूप में संघटित रखा था। (विचार नवनीत, मा.स. गोलवलकर, पृष्ठ- 108)
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