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क्या हम विश्वासपूर्वक यह कह सकते हैं कि हम सच्चे और भावात्मक रूप से हिन्दू हैं? हम अपने से प्रश्न करें। हम कैसे रहते हैं? हमारे सामने कौन से आदर्श हैं? हमारी भावनाएं क्या हैं? क्या हम केवल परिस्थिति-वश अथवा हिन्दू परिवार में “संयोगवश जन्म” हो जाने से ही हिन्दू हैं? क्या हम इसलिए हिन्दू हैं कि इस्लाम तथा ईसाई धर्म के धर्म-परिवर्तन के प्रयत्न हमें स्पर्श नहीं कर पाए क्योंकि उन धर्म-परिवर्तनकारियों की संख्या हमारी अपेक्षा अति अल्प है? क्या हमारे हिन्दू होने का इतना ही अर्थ है? केवल यह कहने मात्र से कोई लाभ नहीं कि “ओह, हमारी एक महान संस्कृति है।” हम उसके विषय में कितना जानते हैं? हम उसके अनुरूप कितना व्यवहार करते हैं? क्या हम अपने वैयक्तिक जीवन को समाज के लिए समर्पित मानते हैं? क्या हम यह अनुभव करते हैं कि हमें केवल सम्पत्ति एवं सत्ता के पीछे नहीं दौड़ना चाहिए, वरन् जीवन में सद्गुणों को उच्च स्थान देना चाहिए? क्या हमें ऐसा लगता है कि हम सच में ऐसे मनुष्य बनें कि जो कोई हमें देखे, वही कहने लगे कि “यह है मनुष्य, जो उन सभी बातों में पूर्णत्व प्राप्त करने के प्रयत्न में है जिनसे सच्चा मनुष्य बनता है।” इस दृष्टि से हम आत्म-निरीक्षण करें और धीरे-धीरे उन सभी विशिष्ट हिन्दू लक्षणों को आत्मसात् करें जिससे कि संसार के समक्ष एक भावात्मक क्रियाशील हिन्दू के रूप में हम खड़े हो सकें। अपने दर्शन, अपने धर्म तथा अपने उन महान गुणों के अनुरूप हम जीवन-यापन करें, जिन्होंने अगणित पीढ़ियों में हमारे जीवन को आकार देने का कार्य किया है।
अगर हिन्दू राष्ट्र का आग्रह छोड़ दिया तो बचेगा क्या?
अपने राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति का जब हम विचार करते हैं, तो हिन्दू धर्म, संस्कृति, समाज का संरक्षण करते हुए ही वह हो सकता है। इसका आग्रह यदि छोड़ दिया, तो अपने “राष्ट्र” के नाते कुछ भी नहीं बचता। दो पैरोंवाले प्राणियों का समूह मात्र बचता है। राष्ट्र नाम से अपनी विशिष्ट प्रकृति का जो एक समष्टि रूप प्रकट होता है उसका आधार हिन्दू ही है। मैं समझता हूं कि हमें इस आग्रह को तीव्र बनाकर रखना चाहिए। अपने मन में इसके सम्बंध में जो व्यक्ति शंका धारण करेगा, उसकी वाणी में शक्ति नहीं रहेगी और उसके कहने का आकर्षण भी लोगों के मन में उत्पन्न नहीं होगा। इसलिए हमें पूर्ण निश्चय के साथ कहना है, कि हां, हम हिन्दू हैं। यह हमारा धर्म, संस्कृति, हमारा समाज है और इनसे बनता हुआ हमारा राष्ट्र है। बस, इसी के भव्य, दिव्य, स्वतंत्र और समर्थ जीवन को खड़ा करने के लिए हमारा जन्म हुआ है। अपने ह्मदय की ऐसी पक्की धारणा होनी आवश्यक है। इसी से अनेक लोगों को प्रेरित करना चाहिए। इसके प्रसार में कोई भय-संकोच करने की आवश्यकता नहीं।
(श्रीगुरुजी समग्र दर्शन, खण्ड-6, पृ.-110)
इसलिए यद्यपि हिन्दू समाज को संघटित करने का विचार साधारण ही क्यों न प्रतीत होता हो, इसका वास्तव में अर्थ है कि हमें अपने दैनंदिन जीवन में इस बात का विचार बनाए रहना चाहिए कि हम हिन्दू हैं और हम अपने जीवन का प्रत्येक छोटे से छोटा पहलू उन्हीं महान परम्परागत जीवन-मूल्यों के अनुसार ढालेंगे। हम जो कुछ भी करें, हमारा परिधान, हमारा व्यवहार तथा जीवन के सभी क्षेत्रों में हमारी भावात्मक निष्ठा की छाप स्पष्ट रूप से व्यक्त होनी चाहिए। यही है हमारे ऊपर सबसे बड़ा उत्तरदायित्व।
प्रतिक्रियात्मक हिन्दुत्व नहीं चाहिए
किन्तु, दुर्भाग्यवश आज हम अपने चारों ओर क्या देखते हैं? कुछ ऐसे हिन्दू हैं जो निष्ठा के कारण नहीं वरन् प्रतिक्रिया के कारण अपने को हिन्दू कहते हैं। उदाहरण के लिए एक बार हमारे कार्यकत्र्ता गोवध पर प्रतिबन्ध की मांग के लिए चलाए गए हस्ताक्षर अभियान में एक अति प्रमुख हिन्दू नेता के पास गए। किन्तु उन्हें यह कहते हुए सुनकर बड़ा धक्का लगा कि “व्यर्थ के पशुओं का वध रोकने से क्या लाभ है, उन्हें मरने दो। इससे क्या बिगड़ता है? आखिर तो पशु तो सब समान ही हैं। पर, क्योंकि मुसलमान गोवध की जिद पकड़े हैं इसलिए हमें इस प्रश्न को उठाना चाहिए और इसीलिए हम अपने हस्ताक्षर तुम्हें देंगे।” इससे क्या प्रकट होता है? हम इसलिए गाय की रक्षा नहीं चाहते कि वह युगों से हिन्दू श्रद्धा की प्रतीक रही है वरन् इसलिए चाहते हैं कि मुसलमान उसका वध करते हैं। यह वह हिन्दुत्व है, जिसका जन्म प्रतिक्रिया से हुआ है- “नकारात्मक हिन्दुत्व।”
कुछ ऐसे भी हैं जिनके लिए हिन्दू शब्द केवल उनके राजनीतिक प्रयोजनों की सिद्धि के लिए है। चूंकि कांग्रेसी अथवा समाजवादी अथवा कोई “क” “मिली-जुली संस्कृति” की बात सोचता है इसलिए वे खड़े हो जाते हैं और कहते है कि वे विशुद्ध हिन्दू संस्कृति चाहते हैं। और इससे भी विचित्र है “हिन्दू-कम्युनिज्म” का घोष। कोई व्यक्ति या तो हिन्दू ही हो सकता है या कम्युनिस्ट। वह दोनों नहीं हो सकता। इसका यही अर्थ है कि जो हिन्दू-कम्युनिज्म के लिए चिल्लाते हैं वे न तो कम्युनिज्म को समझते हैं और न हिन्दुत्व को। यह सब प्रतिक्रिया के कारण है। एक बार एक सज्जन ने मुझसे पूछा कि क्या मुसलमानों के विविध कार्यकलापों को विफल करने के लिए हम लोग हिन्दुओं का संगठन कर रहे हैं। मैंने उनसे यही कहा कि यदि पैगम्बर मुहम्मद का जन्म भी न हुआ होता और इस्लाम का भी अस्तित्व न होता तो भी यदि वर्तमान काल के समान हिन्दू की दशा असंगठित और आत्मविस्मृत होती तो हम यह कार्य उसी प्रकार करते जैसे कि आज कर रहे हैं। यह भावात्मक दृढ़ विश्वास कि यह मेरा हिन्दू राष्ट्र है, यह मेरा धर्म है, यह मेरा दर्शन है, जिसके अनुरूप मुझे जीना है और जिसका मुझे अन्य राष्ट्रों के अनुसरण के लिए एक प्रतिमान स्थापित करना है- हां, हिन्दुओं के पुनस्संगठन के लिए यही ठोस आधार होना चाहिए।
ऐसी दशा में यदि हमें केवल राजनीतिक अथवा प्रतिक्रिया द्वारा बना हुआ हिन्दू नहीं होना है तो हमें निष्ठावान् हिन्दू के रूप में ही जीवनयापन करना चाहिए जो दैनंदिन जीवन के सभी पहलुओं में उस निष्ठा को व्यक्त करने में सक्षम है। साहित्य तथा वृत्त पत्रों में हिन्दू विचारों के प्रचार मात्र से हमें कोई लाभ नहीं होना है। उदाहरणार्थ वीर सावरकर जी ने “हिन्दुत्व” नाम की एक सुन्दर पुस्तक लिखी है तथा हिन्दू-महासभा ने हिन्दू राष्ट्रीयता के उस शुद्ध तत्वज्ञान को ही अपना आधार बनाया है। किन्तु हिन्दू महासभा ने एक बार इस आशय का प्रस्ताव पारित किया कि कांग्रेस को मुस्लिम लीग से वार्ता करके अपना “राष्ट्रीय” आधार नहीं त्यागना चाहिए अपितु यह कार्य करने के लिए हिन्दू महासभा से कहना चाहिए। इसका क्या अर्थ होता है? इसका यही अर्थ होता है कि कांग्रेस की संकरज, मिलीजुली, राष्ट्रीयता शुद्ध प्रकार की थी, जबकि हिन्दू महासभा साम्प्रदायिकता के पागलपन से युक्त राष्ट्रविरोधी मुस्लिम लीग की हिन्दू प्रतिमूर्ति प्रस्तुत करती थी। यह विचित्र वैपरीत्य कैसे उत्पन्न हो गया? इसका कारण यह है कि मन में पैठा हुआ वह गहरा निश्चय विद्यमान नहीं था, जिसके आधार पर स्वप्न में अथवा किन्हीं भी परिस्थितियों में एक ही उत्तर निकल पड़े कि, “हां! यह हिन्दू राष्ट्र है।” (विचार नवनीत, पृ.-59-61)
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