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हम बंटवारे के अधूरे काम पूरे करेंगे
चौधरी शुजात हुसैन जून से अगस्त, 2004 तक पाकिस्तान के प्रधानमंत्री रहे हैं। वे मूलत: एक उद्योगपति हैं। उनके अधिकृत जीवन परिचय में कहा गया है कि उनके पिता चौधरी जहूर इलाही पाकिस्तान में “आतंकवाद के पहले राजनीतिक शिकार” हुए थे। अपने पिता की हत्या के बाद 1981 में वे राजनीति से जुड़े। 1982 में मजलिसे-शूरा (संघीय संसद) के सदस्य बने। राजनीतिक के रूप में कई बार जेल में भी बंद रहे। वे पाकिस्तान सरकार में मंत्री रह चुके हैं। जनवरी 2003 से वे पाकिस्तान में सत्तारूढ़ पाकिस्तान मुस्लिम लीग के अध्यक्ष हैं।
पिछले दिनों यूं तो वे अमन-चैन और मेल-मिलाप का माहौल बनाने नई दिल्ली आए थे, पर हर बात में, पाकिस्तानी फौजी शासक परवेज मुशर्रफ की तरह “कश्मीर मूल मुद्दा है” कहना नहीं भूलते थे। रोचक बात यह रही कि उनकी भारत यात्रा के दौरान भारत की मुस्लिम लीग के साथ इनके संपर्क या बातचीत का जिक्र तक नहीं हुआ। जब पाञ्चजन्य ने उनसे पूछा तो वे जवाब देने से कतराते हुए बोले, “एक बनातवाला साहब हैं, पर वे शायद दिल्ली में नहीं थे।” भारत की मुस्लिम लीग को भी पाकिस्तान की अपनी सहोदर पार्टी से मिलने में भला क्यों संकोच हुआ होगा? बहरहाल, तरुण विजय और आलोक गोस्वामी ने गत 31 मार्च को नई दिल्ली में चौधरी शुजात हुसैन से जो बातचीत की उसके प्रमुख अंश इस प्रकार हैं-
हिन्दुस्थान आकर आपको कैसा लग रहा है?
अब से 7 साल पहले भी मैं यहां अपने एक दोस्त तलवार के वालिद के गुजर जाने पर अफसोस के लिए आया था। उस वक्त मैं दो दिन यहां रहा था। लेकिन यह यात्रा सियासी (राजनीतिक) तौर पर है। मुझे इस बात की खुशी है कि जो शुरुआत मैंने 3 साल पहले की थी उसी के तहत बातें आगे शुरू हुई हैं। अगस्त 2003 में मैंने मैडम सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखी थी। उसमें कहा था कि लोगों और राजनीतिक पार्टियों का आपसी मेल-जोल बढ़ना चाहिए। इस बार उन बातों को और आगे बढ़ाया गया है।
दूसरी एक अच्छी बात हुई है कि हम यहां रूलिंग (सत्तारूढ़) और अपोजिशन (विपक्ष) सभी पार्टियों से मिले हैं। मैंने यहां एक अच्छी बात देखी कि देश से जुड़े मसलों पर दोनों, रूलिंग और अपोजिशन पार्टियां एक हो जाती हैं। यह हमें सीखना चाहिए, हमारे यहां ऐसा नहीं है। इस नज़रिए की कमी है। सियासी लोग अपने “वेस्टिड इंटरेस्ट” (निहित स्वार्थ) के लिए अलग-अलग बात करते हैं।
तीसरे, पिछली वाजपेयी सरकार ने जो अच्छी शुरुआत की थी, उसे आज की सरकार आगे चला रही है। यह अच्छा है।
आप अटल जी, आडवाणी जी से भी मिले। उनसे क्या बातें हुईं?
अटल जी से तो मैंने मिलते ही कहा कि आपने पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने की जो शुरुआत की थी, उसे यह सरकार भी चला रही है, जो अच्छी बात है। आपकी एक बात के हम कायल हुए हैं-आपने कहा था कि हम दोस्त बदल सकते हैं, पर पड़ोसी नहीं। अच्छा हो, पड़ोसी को ही दोस्त बनाकर चलें।
आडवाणी जी से कहा कि जब आप पाकिस्तान आएं तो वहां लाहौर में किले में जो पुराना मंदिर है, जिसके नाम से “लाहौर” नाम पड़ा है, उसके “रिनोवेशन” (जीर्णोद्धार) का उद्घाटन करें। हम उस मंदिर को बड़ा खूबसूरत ऐतिहासिक मंदिर बनाना चाहते हैं। हम उसकी अच्छी देखभाल करेंगे।
मुस्लिम लीग ने हिन्दुस्थान का बंटवारा कराया था। उस पार्टी के अध्यक्ष के नाते हिन्दुस्थान आकर आपको कैसा लग रहा है?
मैं कहना चाहता हूं कि यही मुस्लिम लीग होगी जो बंटवारे के समय अधूरी छूटी चीजों को दुरूस्ती के हालात में पहुंचाएगी। तक्सीम (बंटवारे) के वक्त जो हालात थे और जल्दबाजी में कुछ चीजें छूट गई थीं उन्हें पूरा करने में यही मुस्लिम लीग किरदार अदा करेगी।
कौन सी चीजें अधूरी रह गई थीं, जिन्हें आपकी मुस्लिम लीग पूरा करेगी?
सबसे बड़ा मसला तो कश्मीर ही है। अगर उस समय इसका फैसला हो जाता तो इतनी सारी मुश्किलें खत्म हो जातीं। फिर और मसले हैं, जैसी बगलीहार पनबिजली योजना आदि।
टू-नेशन थ्योरी (द्विराष्ट्रवाद का सिद्धान्त) को कितना सही मानते हैं? कायदे आजम ने मुल्क के बंटवारे का क्या सही कदम उठाया था?
समझ में नहीं आता कि आपके जेहन (मन) में यह सवाल कैसे आया। हमारी तो ख्वाहिश है कि जो दो मुल्क बने हैं, दोनों कायम रहें, तरक्की करें। तक्सीम का कायदे-आजम का कदम सही था। अब जो दोनों मुल्कों के बीच मसले रह गए हैं, वे पूरे करने हैं। हिन्दू-मुसलमान दो कौमें हैं। द्विराष्ट्रीय अवधारणा तब भी ठीक थी, अब भी ठीक है।
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