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जितेन्द्र बजाज
परमाचार्य श्री चन्द्रशेखरेन्द्र सरस्वती
शंकराचार्य श्री जयेन्द्र सरस्वती
कनिष्ठ शंकराचार्य श्री विजयेन्द्र सरस्वती
गत वर्ष दो ऐसी घटनाएं घटीं जो राष्ट्र की अस्मिता को गहराई से प्रभावित करती हैं। गत वर्ष दीपावली की पूर्वसंध्या के दिन प्राय: मध्य रात्रि के समय काञ्ची कामकोटि पीठ के 69वें आचार्य जगद्गुरु शंकराचार्य श्री जयेंद्र सरस्वती जी को बन्दी बना लिया गया और भारतीय संस्कृति की संवाहक इस प्राचीन पीठ के विरुद्ध तमिलनाडु राज्य ने प्राय: युद्ध-सा छेड़ दिया। यह युद्ध अविराम चलता जा रहा है। दूसरे, भारतीय जनसांख्यिकी संगठन ने सन् 2001 की जनगणना के पंथानुसार आँकड़ों का प्रकाशन किया। इन आँकड़ों से अधिकारिक स्तर पर यह स्थापित हुआ कि भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों पर भारत की मुख्य धारा से सम्बन्धित लोगों के ह्यास का क्रम अब अपने चरम पर पहुँचने लगा है, और भारत के अनेक भागों में भारतीय पंथावलम्बी अल्पसंख्यक होने लगे हैं। ऐसे आँकड़ों को प्रकाशित करने का दु:स्साहस करने के लिये भारत सरकार ने भारत के महापंजीयक को सार्वजनिक स्तर पर प्रताड़ित किया और उन्हें पद से हटा दिया।
ये दोनों घटनाएं किसी नयी प्रक्रिया की परिचायक नही हैं। बारहवीं सदी के अन्त में महापराक्रमी पृथ्वीराज चौहन को पराजित कर जब इस्लामी आक्रान्ता भारत वर्ष के ह्मदय प्रदेश पर शासन करने लगे थे तब से ही भारत वर्ष में भारतीय पंथावलम्बियों का जनसंख्या अनुपात में ह्यास और यहाँ के सार्वजनिक जीवन एवं नीति में भारतीय धारणाओं एवं संवेदनाओं की उपेक्षा की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गयी थी। अंग्रेजी शासन काल में यह प्रक्रिया तीव्र हुई। अब ये प्रक्रिया अपने चर्मोत्कर्ष पर है। गत वर्ष की घटनाएँ इस प्रक्रिया की परिणति हैं और यह परिणति भयावह है। अब भारत के सार्वजनिक जीवन में भारतीय पंथावलम्बियों की संवेदनाएँ इतनी महत्त्वहीन हो गयी हैं कि यहाँ का राज्य भारत के उच्चतम धर्माचार्य को दीपावली की पूर्व संध्या पर बन्दी बना सकता है और विभिन्न प्रचार साधनों के माध्यम से ऐसे पूजनीय धर्माचार्य एवं उनकी परम सम्मानित पीठ को लांछित करने का सुनियोजित प्रयास कर सकता है। दूसरे, भारत की जनसंख्या में भारतीय मतावलम्बियों का अनुपात अब इतनी तीव्रता से घटने लगा है कि विभाजन के बाद शेष बचे भारत के बड़े सीमावर्ती भागों में भारतीय पंथावलम्बियों का अनुपात नगण्य-सा हो गया है, अनेक जनपदों में वे अल्पसंख्यक होने लगे हैं।
बिहार के पूर्णिया जनपद से लेकर अरुणाचल प्रदेश के पूर्वी छोर तक के बड़े क्षेत्र में अब भारतीय पंथावलम्बी प्राय: अल्पसंख्यक हो गए हैं। पूर्णिया से असम के मारीगाँव तक मुसलमानों का वर्चस्व होता जा रहा है। इस क्षेत्र के 12 जनपदों में अब वे बहुसंख्यक अथवा प्राय: बहुसंख्यक हैं। इनमें से पाँच जनपदों में उनका अनुपात 60 प्रतिशत के आसपास अथवा उससे अधिक है। यहाँ से पूर्व के उत्तरपूर्वी राज्यों में अब ईसाइयों का वर्चस्व है। अब तक अरुणाचल प्रदेश और त्रिपुरा बचे हुए थे। पर 1991-2001 के दशक में अरुणाचल प्रदेश में बड़े स्तर पर लोगों को ईसाई बनाया गया है और त्रिपुरा में भी ईसाई और मुस्लिम का अनुपात बढ़ने लगा है। पूर्वाञ्चल तो लगता है अब भारतीय पंथावलम्बियों की पहुँच से बाहर ही हो गया है।
दक्षिण में कन्याकुमारी से लेकर उत्तर में गोवा तक के पूरे पश्चिमी तट के प्राय: समस्त जनपदों में ईसाईयों अथवा मुसलमानों का अनुपात बढ़ा है। उत्तर में कश्मीर घाटी और लद्दाख के कारगिल क्षेत्र में अब भारतीय पंथावलम्बी प्राय: नहीं बचे हैं। इस प्रकार भारत की उत्तरी, पूर्वी एवं पश्चिमी सीमाओं पर अब भारतीय सभ्यता की मुख्य धारा से सम्बन्धित लोगों के लिए रहना कठिन होता जा रहा है। 1991-2001 के दशक में यह प्रक्रिया अत्यन्त तीव्र हुई है।
भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों में भारतीय पंथावलम्बियों के ह्यास की यह प्रक्रिया विभिन्न कारणों से सार्वजनिक चिन्ता का विषय बनने लगी है। विभिन्न मंचों पर इस विषय पर चर्चा होने लगी है और इस प्रक्रिया के परिणाम भारतीय समाज की सामूहिक चेतना में पैठने लगे हैं। परन्तु श्री काञ्ची कामकोटि पीठ की गौरवमयी प्राचीन परम्परा की जो भीषण अवमानना हुई है, उसकी तो आज समाज में कहीं चर्चा भी नहीं हो रही है।
भारत वर्ष की सनातन अस्मिता के संरक्षक एवं वाहक अनेक मौलिक पीठों में श्री काञ्ची कामकोटि पीठ का विशेष स्थान है। भगवद्पाद श्री आदिशंकराचार्य अपने अल्प भौतिक जीवन के अंतिम वर्षों में काञ्चीपुरम् में रहने लगे थे। यहाँ उन्होंने इस पाँचवीं पीठ की स्थापना की। वे 476 ईस्वी पूर्व में यहाँ पर सिद्धि को प्राप्त हुए। श्री आदिशंकराचार्य के अनन्य शिष्य प्रकाण्ड पंडित श्री सुरेश्वराचार्य, जो पूर्वाश्रम में मण्डन मिश्र के नाम से विख्यात थे, इस पीठ के दूसरे शंकराचार्य हुए। श्री आदिशंकराचार्य ने अपने जीवन काल में ही ताम्रपर्णी घाटी के एक सात वर्षीय बालक को संन्यास की दीक्षा देकर उसे सर्वज्ञात्मन् के नाम से विभूषित किया था और श्री सुरेश्वराचार्य को उसका संरक्षक एवं अध्यापक नियुक्त किया था। 407 ईस्वी पूर्व श्री सुरेश्वराचार्य के सिद्धि प्राप्त करने पर ऐसे दिव्य गुरुओं के शिष्य श्री सर्वज्ञात्मन् श्री काञ्ची कामकोटि पीठ के तीसरे शंकराचार्य हुए और वे 364 ईस्वी पूर्व तक इस पीठ को सुशोभित करते रहे। स्वयं श्री आदिशंकराचार्य द्वारा प्रणीत एवं पोषित यह गुरु परम्परा तब से अब तक अविच्छिन्न चलती आ रही है।
बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में 1907 ईस्वी में जगद्गुरु शंकराचार्य श्री चन्द्रशेखरेन्द्र सरस्वती इस परम्परा में 68वें गुरु हुए। भारत के आधुनिक इतिहास में उनका विशिष्ट स्थान है। वे हमारे काल के अवतार-पुरुष थे। परमाचार्य, महास्वामी और इस पृथ्वी पर विराज रहे भगवान के रूप में पूजित वे प्राय: पूरी बीसवीं शताब्दी भर हमारे मध्य सुशोभित होते रहेे। जिन लोगों को उनके दर्शन करने का अवसर मिला वे अब भी अपने आपको धन्य मानते हैं। बीसवीं शताब्दी के कठिन काल में उन्होंने वैदिक अध्ययन-अध्यापन की परम्परा के संरक्षण, धर्मसम्मत सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन की गरिमा की पुन:स्थापना और संगीत, स्थापत्य आदि क्षेत्रों में भारतीय विद्या परम्पराओं के पोषण के अथक प्रयास किये। इस कार्य को सम्पन्न करने के लिये उन्होंने बिना किसी मोटर-वाहन का उपयोग किये देश भर की अनेक यात्राएँ कीं।
जगद्गुरु शंकराचार्य श्री जयेन्द्र सरस्वती, जिन्हें इस वर्ष दीपावली की पूर्व संध्या पर तमिलनाडु पुलिस ने बन्दी बनाया और जिनके विरुद्ध राजकीय दण्ड व्यवस्थाओं और समस्त प्रचार-प्रसार माध्यमों द्वारा एक सुनियोजित अभियान छिड़ा हुआ है, वे परमाचार्य के परम शिष्य एवं इस गौरवमयी परम्परा में आने वाले 69वें आचार्य हैं। परमाचार्य ने उन्हें 1954 में संन्यास की दीक्षा देकर अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया था। दीक्षा के समय वे मात्र 19 वर्ष के थे। परमाचार्य ने स्वयं उनके प्रशिक्षण आदि की समस्त व्यवस्थाएँ कीं। परमाचार्य के सान्निध्य में ही उन्होंने जगद्गुरु शंकराचार्य के पद के उपयुक्त विद्वत्ता का उपार्जन एवं कठिन संयम का निर्वाह करना सीखा। पचास से अधिक वर्ष के अपने संन्यास जीवन में उन्होंने भारत के लोगों की धार्मिक चेतना को सामाजिक उन्नयन के कार्यों की ओर प्रवृत्त करने के अथक प्रयास किये हैं। उनकी एवं श्री काञ्ची कामकोटि पीठ की प्रेरणा से असंख्य उच्चकोटि के आधुनिक एवं पारम्परिक अस्पताल और शिक्षण संस्थान स्थापित हुए हैं, हरिजनों की बस्तियों में और भारत के सुदूर अंचलों मे असंख्य मन्दिर बने हैं। आधुनिक काल में भारत की धार्मिक चेतना एवं समाज में सार्वजनिक अभिव्यक्ति के वे प्रेरणा-पुरुष हैं। उनके प्रयासों से श्री काञ्ची कामकोटि पीठ की गौरवमयी प्राचीन परम्परा आधुनिक काल के अनुरूप सुदृढ़ एवं सक्षम बनी है।
श्री काञ्ची कामकोटि पीठ के कनिष्ठ आचार्य जगद्गुरु शंकराचार्य श्री विजयेन्द्र सरस्वती को भी स्वयं पूज्य परमाचार्य से दीक्षा पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। 1983 ईस्वी में 14 वर्ष की अल्प आयु में परमाचार्य ने उन्हें संन्यास की दीक्षा देकर इस पीठ का 70वां आचार्य मनोनीत किया। श्री विजयेन्द्र सरस्वती बालाचार्य के स्नेहिल नाम से प्रसिद्ध हुए। उच्चतम न्यायालय के आदेश पर जब जगद्गुरु शंकराचार्य श्री जयेन्द्र सरस्वती जी को 62 दिन के कारावास के पश्चात् मुक्त करना पड़ा तो इन बालाचार्य को बन्दी बना लिया गया और 32 दिन तक उन्हें चेन्नै में अत्यन्त कठोर कारावास में रखा गया।
श्री आदिशंकराचार्य ने इस पीठ की गुरु-परम्परा के साथ ही एक और परम्परा का भी प्रवर्तन किया। कैलाश पर्वत पर स्वयं शिव भगवान ने उन्हें जो पाँच स्फटिक लिंग दिये थे, उनमें से एक, योगलिंग की वे काञ्चीपुरम् में रहते हुए नित्य त्रिकाल पूजा करने लगे। ये योगलिंग श्री काञ्ची कामकोटि पीठ के अधिष्ठान देव श्री चन्द्रमौलीश्वर के नाम से विख्यात हैं। पीठ की अधिष्ठात्री देवी श्री कनक कामाक्षी देवी सहित श्री चन्द्रमौलीश्वर भगवान की त्रिकाल पूजा करने की जो परम्परा श्री आदिशंकर ने प्रारम्भ की थी वह इन 2500 वर्षों तक अविच्छिन्न चलती आयी है। श्री कनक कामाक्षी देवी सहित श्री चन्द्रमौलीश्वर भगवान की नित्य दिन में तीन समय स्वयं पूजा करना श्री काञ्ची पीठ के शंकराचार्यों का प्रमुख दायित्व रहा है।
सत्रहवीं शताब्दी के अन्तिम दशक में काञ्चीपुरम् में इस्लामी आक्रमणकारी पहुँचने लगे थे। तब त्रिकाल पूजा की परम्परा में व्यवधान की आशंका से उस समय के शंकराचार्य श्री कनक कामाक्षी सहित श्री चन्द्रमौलीश्वर भगवान को लेकर तंजावुर के जंगलों में चले गये थेे। तंजावुर में तब मराठा शासन था। कुछ दशकों बाद अठारहवीं शताब्दी के मध्य में मराठा संरक्षण में 62वें आचार्य ने कुम्भकोणम् में कावेरी के तट पर अपना मठ बना लिया। तब से स्वतन्त्रता प्राप्ति तक काञ्ची के आचार्य कुम्भकोणम् में ही रहे। 1952 में वे इस विश्वास के साथ काञ्चीपुरम् लौटे कि स्वतन्त्र भारत में सब स्थान सनातन धर्म एवं सनातन परम्पराओं के निर्वहन के लिये सुरक्षित होंगे।
पीठ के 69वें आचार्य जगद्गुरु शंकराचार्य श्री जयेन्द्र सरस्वती प्राय: 200 वर्षों पश्चात ऐसे प्रथम आचार्य हुए जिन्हें पीठ के मूल स्थान काञ्चीपुरम् में दीक्षा प्राप्त करने का अवसर मिला। पीठ के आचार्यों ने अपने मूलस्थान से 200 वर्षों के इस निष्कासन को इसलिए स्वीकार किया कि श्री कनक कामाक्षी समेत श्री चन्द्रमौलीश्वर भगवान की त्रिकाल पूजा की परम्परा खण्डित न होने पाए। परन्तु इसी काञ्चीपुरम् क्षेत्र में 11, जनवरी 2005 के दिन जब बालाचार्य सायंकाल के समय श्री कनक कामाक्षी समेत श्री चन्द्रमौलीश्वर भगवान की पूजा पर बैठे थे तो स्वतन्त्र भारत की पुलिस ने बड़ी संख्या में पीठ के भीतर घुसकर बालाचार्य को पूजा मण्डप से उठा लिया। अब दोनों आचार्य विभिन्न न्यायालयों के आदेश पर काञ्चीपुरम् से निष्कासित हैं, प्रतिदिन किसी न्यायालय अथवा थाने में भटकने को बाध्य हैं।
इस प्रकार 2500 वर्षों में पहली बार श्री आदिशंकराचार्य द्वारा प्रवर्तित श्री कनक कामाक्षी समेत श्री चन्द्रमौलीश्वर भगवान् की त्रिकाल पूजा की परम्परा को खण्डित करने का प्रयास हुआ। 2500 वर्षों के इस काल के उत्तराद्र्ध में अनेक शताब्दियों तक भारत के विभिन्न भागों पर विदेशी शासन रहा। उस काल में भी यह परम्परा खण्डित नहीं हुई। स्वतन्त्र भारत में ही यह प्रयास हुआ है। यह इसलिए नहीं कि विदेशी शासकों के मन में सनातन धर्म अथवा सनातन परम्पराओं के प्रति श्रद्धा का भाव था अपितु इसलिए कि उनमें भारत के लोगों का भय था। उन्हें लगता था कि काञ्ची पीठ जैसे किसी दिव्य स्थान, काञ्ची आचार्यों जैसे किसी उच्च आचार्य अथवा त्रिकाल पूजा जैसी किसी सुदीर्घ परम्परा की अवमानना भारत के लोग स्वीकार नहीं करेंगे और ऐसा कुछ करना उनके लिये महंगा पड़ेगा।
श्री काञ्ची कामकोटि पीठ के आचार्यों एवं वहाँ की परम्पराओं का जो निरादर हुआ है और हो रहा है, वह इसलिए कि भारतीय राज्य में अब भारत के निष्ठावान लोगों का भय ही नहीं रहा। इस दुर्गति के होने पर भारतीय सभ्यता की मूल धारा का प्रतिनिधित्व करने वाले हिन्दू संगठनों की जो दुर्बल प्रतिक्रिया रही, उसने भारतीय राज्य को कदाचित और भी भयमुक्त कर दिया है। यह बीता वर्ष भारत के इतिहास में निश्चय ही मील का पत्थर प्रमाणित होगा। इस वर्ष में भारत की भौगोलिक एवं सांस्कृतिक अस्मिता के समक्ष जिस प्रकार की मर्मान्तक चुनौतियाँ प्रस्तुत हुई हैं उनसे चेतकर या तो हम नये संकल्प के साथ भारतीयता की रक्षा के लिए कटिबद्ध होंगे या दीर्घकाल तक भारत में भारतीयता के क्षीण रहने की स्थिति को स्वीकार करने लगेंगे। युगाब्द 5107 वर्ष प्रतिपदा के दिन यह विकट विकल्प भारतीय समाज के समक्ष प्रस्तुत है। जिस मार्ग का हम वरण करेंगे उससे भारत के अगले अनेक दशकों का भविष्य निर्धारित होगा।
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