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रामधारी सिंह “दिनकर”
कांपती है वज्र की दीवार।
नींव में से आ रहा है क्षीण हाहाकार।
जानते हो, कौन नीचे दब गया है?
दर्द की आवाज पहले भी सुनी थी?
या कि यह दुष्काण्ड बिलकुल ही नया है?
वस्त्र जब नूतन बदलते हो किसी दिन,
खून के छींटे पड़े भी देखते हो?
रात को सूनी, सुनहरी कोठरी में
मौन कुछ मुर्दे खड़े भी देखते हो?
रोटियों पर कौर लेते ही कहीं से
अश्रु की भी बूंद क्या चूती कभी है?
बाग़ में जब घूमते हो शाम को तब
सनसनाती चीज भी छूती कभी है?
जानते हो, यह अनोखा राज क्या है?
वज्र की दीवार यह क्यों कांपती है?
और गूंगी ईंट की आवाज़ क्या है?
तोड़ दो इसको, महल को पस्त औ”
बर्बाद कर दो।
नींव की ईंटें हटाओ।
दब गए हैं जो, अभी तक जी रहे हैं।
जीवितों को इस महल के
बोझ से आजाद कर दो।
तोड़ना है पुण्य जो तोड़ो खुशी से।
जोड़ने का मोह जी का काल होगा।
अनसुनी करते रहे इस वेदना को,
एक दिन ऐसा अचानक हाल होगा:-
वज्र की दीवार यह फट जाएगी।
लपलपाती आग या सात्विक
प्रलय का रूप धरकर
नींव की आवाज बाहर आएगी।
वज्र की दीवार जब भी टूटती है,
नींव की यह वेदना
विकराल बन कर छूटती है।
दौड़ता है दर्द की तलवार बन कर
पत्थरों के पेट से नरसिंह ले अवतार।
कांपती है वज्र की दीवार।
(1953 में रचित कविता, “नील कुसुम” पुस्तक से साभार)
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