|
डा.रवीन्द्र अग्रवालखतरे में देश की खाद्यान्न सुरक्षाकेन्द्रीय वित्त मंत्री पी.चिदम्बरम की मानें तो पंजाब, हरियाणा, प. उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ का किसान बहुत सम्पन्न है और उसकी इस सम्पन्नता का रहस्य खाद्यान्न क्षेत्र को दी जा रही सब्सिडी है। वर्ष 2003-04 में यह सब्सिडी 25,800 करोड़ रुपए पहुंच गई। इस भारी-भरकम खाद्य सब्सिडी को कम करने का उन्होंने एक ही उपाय सुझाया कि गेहूं और चावल के समर्थन मूल्य को स्थिर कर दिया जाए। उनके इस सुझाव का अर्थ यह है कि किसान की उत्पादन लागत में मूल्य वृद्धि के कारण, प्रतिवर्ष जो वृद्धि होती है उससे भी उसे वंचित रखा जाए। हो सकता है इस नीति से वह उन कथित सम्पन्न किसानों को सबक सिखा सके जो गेहूं और चावल की खरीद के परिणामस्वरूप कथित रूप से सम्पन्न हो गए हैं। किसान कितना सम्पन्न हुआ है और कितना नहीं यह तो उसपर बढ़ते ऋण के बोझ से समझा जा सकता है परन्तु किसान की कथित सम्पन्नता की चर्चा करना इस बार का मुद्दा नहीं है। मुद्दा है केन्द्रीय वित्तमंत्री की इस नीति के कारण भारत खाद्य सुरक्षा को उत्पन्न होने वाला खतरा। यदि गेहूं और चावल का समर्थन मूल्य स्थिर कर दिया गया तो किसान के इनकी खेती से विमुख होने का खतरा है। यह खतरा कल्पना नहीं वास्तविक है। देश में खाद्यान्न उत्पादन और गोदाम भरे होने के दावे भले ही कितने किए जाते हों परन्तु आज स्थिति हरितक्रांति से पूर्व की तरह ही भयावह है। 2003-04 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार वर्ष 2003 में अनाज और दालों की प्रतिव्यक्ति उपलब्धता 438.2 ग्राम प्रतिदिन थी। हरिक्रांति से पूर्व, जब भारत अनाज के लिए अमरीका के आगे भीख का कटोरा लिए खड़ा रहता था, तब 1960 में प्रति व्यक्ति उपलब्धता थी 449.6 ग्राम प्रतिदिन। अर्थात आज जबकि यह प्रचारित किया जा रहा है कि गोदाम अनाज से भरे पड़े हैं और अनाज रखने के लिए जगह नहीं है और खाद्यान्न की स्थिति संतोषजनक होने का दावा संसद में किया जाता है तब स्थिति यह है कि 1960 के मुकाबले आज अनाज की प्रतिव्यक्ति उपलब्धता 11.4 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन कम है। अर्थात 1960 के मुकाबले आज कहीं ज्यादा लोग भूखे पेट सोने को मजबूर हैं। संसद में भले ही कह दिया जाए कि पर्याप्त अनाज है परन्तु स्थिति 1960 से भी ज्यादा खतरनाक है।यह स्थिति एक दिन में नहीं बिगड़ी। आर्थिक उदारीकरण से पूर्व 1991 में अनाज और दालों की उपलब्धता सर्वाधिक 510.1 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन थी। आर्थिक उदारीकरण के दौर से खेती की उपेक्षा का दुष्परिणाम यह हुआ कि अनाज की यह उपलब्धता धीरे-धीरे कम होकर 438.2 ग्राम रह गई है। अर्थात आज देश में प्रत्येक व्यक्ति के हिस्से में 71.9 ग्राम अनाज कम आ रहा है। खेती की उपेक्षा का यही क्रम अगर जारी रहा और किसान अनाज की खेती से विमुख हो गया तो देश को एक बार फिर अनाज के लिए कटोरा हाथ में लेकर अमरीका के आगे झुकने के मजबूर होना पड़ेगा। तब देश की खाद्यान्न सुरक्षा अमरीका के हाथों गिरवी रखी होगी और भारत को कारगिल जैसी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के इशारों पर नाचने को मजबूर होना पड़ेगा। ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भारतीय कानून व्यवस्था को किस प्रकार ठेंगा दिखाती हैं यह पेप्सी और कोका कोला के उदाहरण से समझा जा सकता है। अभी समय है नीतियों को सुधारने का अन्यथा किसान और खेती तो बरबाद होगी ही देश की सुरक्षा भी खतरे में पड़ जाएगी। वित्तमंत्री जी किसान की टूटी झोपड़ी में उसकी सम्पन्नता मत झांकिए। देश के स्वाभिमान की चिंता करिए।NEWS
टिप्पणियाँ