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इतिहास झुठलाते कम्युनिस्ट-डा. सीतेश आलोकइतिहास के बारे में बहुत कुछ कहा और लिखा गया है। इतिहास के विषय में तरह-तरह की उक्तियां भी प्रचलित हैं-जैसे, इतिहास स्वयं को दोहराता है; किसी देश को जानना हो या किसी समाज को समझना हो तो उसका इतिहास पढ़ो; अपना इतिहास जाने बिना कोई देश आगे नहीं बढ़ सकता; विजेताओं का दृष्टिकोण ही इतिहास कहलाता है; इतिहास में बस विजेताओं का स्तुति-गान ही होता है-इत्यादि। कुछ समय पहले तक यह बहुत सुनने में आता था कि चोर का बेटा चोर ही होगा। कहीं कोई चोरी-डकैती हो या मारपीट हो तो कोतवाल किसी को पकड़ कर लाता था और कोई प्रमाण न मिलने पर भी बड़े विश्वास के साथ उसे डंडा मार कर कहता था- “अरे साब, इसका तो बाप भी चोर था… मैं तो जानता हूं इसकी हिस्ट्री।”साथ ही, कुछ धारणाएं यह भी हैं कि इतिहास राजाओं की अनुक्रमणिका मात्र होता है… और वर्णन में बस यह कि उसने कितनी लड़ाइयां लड़ीं और उनमें से कितनी जीतीं या हारीं। यह सूची कितनी उपयोगी होती है या किसके लिए उपयोगी हो सकती है, ये प्रश्न भी संदिग्ध हैं। कुछ ऐसे प्रश्न भी सुनने में आते हैं कि सिकन्दर ने पोरस से लड़ाई लड़ी थी तो लड़ी होगी। इससे हमें क्या अन्तर पड़ता है-और यदि न लड़ी होती, तो क्या अन्तर पड़ जाता?वास्तव में हमारे अध्ययन एवं चिन्तन का केन्द्र हमारी आज की स्थिति ही है। किसी भी समस्या के विश्लेषण एवं निदान में उसके कारणों का ज्ञान एवं अध्ययन सहायक होता है, किन्तु वे कारण कितने पीछे तक जाकर देखे जाएं, यह बात कभी-कभी पूर्वाग्रह एवं कुतर्क का रूप लेकर हास्यास्पद भी बन जाती है।फिर भी इतिहास का महत्व है। इतिहास वर्तमान अध्ययन-प्रणाली का एक स्वीकृत विषय है और प्रारम्भिक कक्षाओं से लेकर उच्चतम कक्षा तक पढ़ा और पढ़ाया जाता है। इतिहास पर शोध भी होते रहते हैं और प्राचीन घटनाओं को नए-नए साक्ष्य एवं तर्कों के आधार पर पुनर्विश्लेषित भी किया जाता है।किन्तु स्पष्ट रूप से समझने और रेखांकित करने वाली बात यह है कि हम ऐतिहासिक तथ्यों को अपनी बुद्धि एवं तर्कशक्ति के अनुसार ही विश्लेषित करते हैं। वैसे प्रत्येक विश्लेषण से अपेक्षा यही होती है कि वह वस्तुपरक हो, किन्तु इस यथार्थ का भला कोई क्या करे कि विश्लेषण करने वाले इंसान ही होते हैं, जिनमें कहीं कम तो कहीं अधिक, स्वयं के पूर्वाग्रह होते हैं…..।आज इतिहास को लेकर जो मतभेद व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप तक जा पहुंचे हैं, उनके पीछे भी घटनाओं का विश्लेषण करने वालों के पूर्वाग्रह ही हैं। इतिहास के कुरुक्षेत्र पर लड़े जाने वाले इस वर्तमान घमासान में इतिहास के विशेषज्ञ रथी-महारथी ही नहीं, उनके प्रशंसक एवं खरीदे हुए ऐसे गुलाम भी हैं जो अपने आकाओं के लिए अपनी जान की बाजी भी लगाने के लिए तैयार हैं। इसके विपरीत, यथार्थ यह है कि इतिहास का तो स्रोत ही संदिग्ध है। कहा जाता है, इतिहास की कड़ियां अनेकानेक व्यक्तियों के लिखित तथा मौखिक अनुभवों, लोक-गीतों, डायरियों, रचनाओं आदि से प्राप्त होती हैं। कहना न होगा कि ये सभी वर्णन, चाहे वे ह्वेनसांग, फाइयान या अन्य किसी का रोजनामचा हो या बाबरनामा जैसे इक्के-दुक्के लिपिबद्ध ग्रंथ, घटनाओं को उनकी सम्पूर्णता में देखने की क्षमता नहीं रखते और यह भला कौन कह सकता है कि जो साक्ष्य उपलब्ध हुए वही अंतिम एवं प्रामाणिक थे। कौन जाने बहुत कुछ, जो घटनाओं का दूसरा पक्ष भी उजागर कर सकता था, किसी कारणवश प्रकाश में आया ही नहीं… या आने ही नहीं दिया गया।इन सब परस्पर विरोधी तर्कों से निष्कर्ष बस यह निकल सकता है कि हमारी सहज जिज्ञासा भले ही हमें ऐतिहासिक घटनाओं को यथासम्भव सही परिप्रेक्ष्य में जानने के लिए प्रेरित करे, उस प्राप्त जानकारी को अंतिम सत्य मान बैठना बड़ी भूल होगी। आधुनिक शिक्षा एवं सोच हमें यह भी बता चुकी है कि चोर का बेटा चोर ही हो, यह पूर्वाग्रह नितान्त निर्मूल ही नहीं, मूर्खतापूर्ण भी है। और कोई इतिहास अपने को नहीं दोहराता।फिर प्रश्न यह उठता है कि आज इतिहास को लेकर यह हंगामा क्यों? इतने आरोप-प्रत्यारोप क्यों?दक्षिणपंथ व वामपंथवास्तविकता मात्र यह है कि ये आरोप-प्रत्यारोप दो विचारधाराओं के बीच हैं। इतिहास तो बस एक बहाना है। इन दो विचारधाराओं की लड़ाई तो होती ही रही है और किसी न किसी बहाने आगे भी होती ही रहेगी। इन दो विचारधाराओं के नाम भी नितान्त विपरीत, पूर्व और पश्चिम की भांति, दक्षिण पंथ और वामपंथ पड़ गए हैं। इन दोनों में दक्षिण पंथ सदैव ही बचाव की मुद्रा में रहता है और वामपंथ उस पर प्रहार करने के लिए नित नए अस्त्र-शस्त्र लाता रहता है। कारण यह भी है कि दक्षिणपंथ के समर्थक मात्र भारतीय हैं, जो शताब्दियों की दासता झेलने के बाद आर्थिक दृष्टि से निर्बल भी हैं और मानसिक रूप से त्रस्त भी। इसके विपरीत वामपंथी एक विश्व-स्तरीय आधुनिक विचारधारा के अंग हैं, जिनके पास समानता और सम्पन्नता के मन-भावन नारे भी हैं और विभिन्न वर्गों के असन्तोष को भुनाकर अपना हित साधने की कला भी। यही कारण है कि मानव-हित के नाम पर उनका लगभग सारा ध्यान दक्षिणपंथियों की कमर तोड़ने पर लगा रहता है….।वैसे तो इस बात से किसी को अंतर नहीं पड़ना चाहिए कि अतीत में क्या हुआ, किन्तु जब कुछेक अपमानजनक संदर्भों में किसी के पूर्वज अथवा मान्य चरित्र का उल्लेख आता है, तो वह वर्ग अवश्य आहत एवं उत्तेजित हो सकता है- विशेषतया तब, जब उसे लगे कि वे घटनाएं तोड़-मरोड़ कर उसके बच्चों को सुनाई-सिखाई जा रही हैं।इतिहास के साथ भी यही हुआभारत का इतिहास, अपने वर्तमान विस्तृत रूप में, अंग्रेजों के शासनकाल में ही लिखा गया और उसे लिखने वाले सभी अंग्रेजी शिक्षा-दीक्षा पाकर उनके प्रश्रय में रहकर ही लिख रहे थे। अभी कुछ दशक पहले तक भारत को सपेरों और सड़क-छाप जादूगरों का देश समझने वाले अंग्रेजों के मन में गुलाम भारत एवं उसकी संस्कृति के प्रति कोई सम्मान नहीं था। ऐसे में यदि भारतीय महापुरुषों, चरित्रों, स्वतंत्रता सेनानियों आदि के प्रति उनका आकलन उपहासप्रद एवं अपमानजनक रहा हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। किन्तु दुखद यह है कि उनके प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष प्रभाव में, उनसे शिक्षा पाए हुए वर्तमान भारत का इतिहास लिखने वालों ने कुछ अंशों में उनका दृष्टिकोण भी लिख डाला।ऐसी ही कुछ टिप्पणियों के विरोध एवं उनके पुनर्लेखन के कारण उठ खड़ा हुआ है आज का विवाद। ये टिप्पणियां पहले भी थीं… किन्तु 1947 तक देश का ध्यान स्वाधीनता प्राप्त करने पर था। फिर पुनर्निर्माण की प्रक्रिया पर ध्यान केन्द्रित रहने के कारण, इतिहास की विसंगति पर जो स्वर यदाकदा उठे वे तत्कालीन सत्ता की प्राथमिकताओं के सम्मुख अनसुने ही रह गए। उस समय भारतीय संस्कारों, आत्म-सम्मान एवं संस्कृति के पक्षधरों की स्थिति इतनी निर्बल थी कि वे अपना स्वर नहीं उठा पाए।वे तब सक्रिय हुए जब 1997 में दक्षिणपंथी पक्षधरों का दल पहली बार सबसे बड़े दल के रूप में उभर कर संसद में आया- और उनके नेतृत्व में केन्द्रीय सरकार बनी। फिर भी, पूर्ण बहुमत के अभाव में हर प्रयत्न करके भी पुराने ढर्रे को पूरी तरह बदल नहीं पाए। जो कुछ उन्होंने किया उसका, वामपंथी दलों ने, शिक्षा के “भगवाकरण” का आरोप लगाते हुए शोर-शराबा मचाकर विरोध किया। भारतीय संस्कृति के पक्ष में खड़े सभी संस्थानों तथा संगठनों को “संघ परिवार” नाम दिया…. और, देखते ही देखते सभी विपक्षी दल, विरोध का धर्म निभाते हुए “खब्बू-परिवार” के रूप में एकजुट हो गए।संयोग यह कि अगले चुनाव में ही केन्द्र में तख्ता पलटा और “खब्बू-परिवार” की सरकार बन गई। सरकार बनते ही जहां पिछली सरकार की लगभग सभी नीतियों का खंडन प्रारम्भ हुआ, उनके द्वारा इतिहास की पुस्तकों में किए हुए यÏत्कचित परिवर्तनों के पुनर्लेखन का निर्णय भी लिया गया। उनकी दृष्टि में अंग्रेजों के शासनकाल में अंग्रेजीदां इतिहासकारों द्वारा लिखा गया प्रत्येक शब्द ही अंतिम सत्य था।इन दोनों विरोधी दृष्टिकोणों में यथार्थ भला क्या है, इसका निर्णय कौन ले सकता है? इतिहास की सभी घटनाओं वर्षों-शताब्दियों पूर्व घटित हुई थीं। आज उनका प्रत्यक्षदर्शी कहीं दूर-दूर तक नहीं है और जिनके स्फुट वर्णनों के आधार पर ऐतिहासिक यथार्थ का निरूपण हमारे इतिहासकारों ने किया, वे स्वयं ही अपूर्ण एवं व्यक्तिपरक हैं। और यदि कोई प्रत्यक्ष-दर्शी कहीं होता भी, तो कितना सर्वमान्य विवरण दे पाता, यह भला कौन कह सकता है! उदाहरण के लिए कल की घटना ही ले लीजिए-जब आपातकाल में संजय गांधी ने कुछ निर्णय लेकर राष्ट्रीय स्तर पर अनेक कठोर कदम उठाए थे। क्या उसके अनेक प्रत्यक्ष-दर्शी कभी एकमत होकर उन घटनाओं का वर्णन कर सकते हैं? कोई उसे “जन्मजात, दूरदर्शी नेता” कहेगा तो कोई “बिगड़ा हुआ नेता-पुत्र”, जो पढ़ाई में भी असफल रहा और उद्योगपति बनने में भी।इस स्थिति में, दोनों पक्षों को यह अधिकार तो है ही कि वे अपना दृष्टिकोण जिस रूप में भी चाहे लिखते और प्रकाशित कराते रहें, किन्तु बात जब छोटी कक्षा के विद्यार्थियों को पढ़ाने की आती है तब ध्यान रखा जाना चाहिए कि घटनाओं तथा व्यक्तियों का वर्णन किसी भी प्रकार जनमानस में हीनता की भावना उत्पन्न न करे। इसके विपरीत यदि उनमें आत्म-सम्मान एवं राष्ट्रीय गौरव उत्पन्न करने की दृष्टि से कहीं अतिशयोक्ति भी हो जाए, अथवा कुछ तथ्यों से कतराना भी पड़े, तो उसे मनोवैज्ञानिक उपचार के रूप में नि:संकोच अपनाया जाना चाहिए। यह कदापि आवश्यक नहीं कि देश के भावी नागरिक अपने तथा अपने पूर्वजों के प्रति हीनता की भावना प्राप्त करें। इसी भावना को अकबर इलाहाबादी ने दो पंक्तियों में बड़ी खूबसूरती से बयान किया था-हम ऐसी सब किताबें, काबिले-जब्ती समझते हैं।जिन्हें पढ़-पढ़ के बच्चे, बाप को खब्ती समझते हैं।।NEWS
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