सम्पादकीय

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दिंनाक: 01 Sep 2005 00:00:00

सेवा छोटी है या बड़ी, इसकी कीमत नहीं है। सेवा किस भावना से, किस दृष्टि से की जा रही है, उसकी कीमत है।-विनोबा (लोकनीति, पृ. 216)चुनावों की आहटबिहार, झारखण्ड और हरियाणा विधानसभाओं के चुनावों की तैयारियां चल रही हैं। इन तीनों राज्यों में चुनाव काफी दिलचस्प होंगे। इनमें से हरियाणा में जहां श्री ओमप्रकाश चौटाला की पार्टी इंडियन नेशनल लोकदल और कांग्रेस के बीच मुख्य टक्कर मानी जा रही है, वहीं बिहार फिर इस बात का फैसला करेगा कि जातिवाद के भंवर में फंसकर लालू की अराजकता का दामन थामना है या एक विकासशील तथा सुसंस्कृत राज्य का स्वरूप हासिल करने के लिए लालू की जकड़न को उखाड़ फेंकना है। बिहार अपने आप में भारतीय राजनीति की विद्रूपताओं, कुशासन तथा जातिगत विकृतियों की एक अबूझी प्रयोगशाला बना हुआ है। इसका बहुत कुछ “श्रेय” विपक्षी दलों को भी जाता है। आखिरकार बिहार की जनता वर्तमान लालू-राबड़ी कुशासन में सुखी तो नहीं ही कही जा सकती। लेकिन इसके बावजूद वे अगर जीतते हैं तो इसका एक कारण यह भी है कि जनता को एक सही भरोसे लायक विकल्प संभवत: नहीं दिखता। वे लोग जो लालू राजनीति के विरोध में खड़े दिखते हैं, अपने गिरेबान में झांकें और पूछें कि बिहार बेहाल क्यों हुआ? लालू की सफलता सुशासन की पक्षधर राजनीतिक पार्टियों की विफलता में से उपजती है।जहां तक झारखण्ड की बात है वहां भाजपा को स्वाभाविक शासन विरोधी मानसिकता का सामना करना पड़ सकता है। यह एक विडम्बना ही कही जाएगी कि एक ओर उत्तराञ्चल राज्य का निर्माण जिस भाजपा के नेतृत्व में हुआ, वही भाजपा दोबारा वहां शासन में नहीं आ सकी और जिस कांग्रेस को स्वप्न में भी अंदाजा नहीं था कि वह सत्ता में आएगी उसने शासन की बागडोर संभाल ली। क्या झारखंड पुन: इसी विडम्बना का साक्षी बनेगा? बहरहाल, यह समय है अपने तमाम मतभेद और मनभेद भूलाकर राष्ट्रीयता की विचारधारा पर टिकी राजनीति को सफल बनाने का। इस दिशा में जितनी एकजुटता दिखा पाएंगे, उतनी ही सफलता मिलेगी।जापान में राष्ट्रीय गीत पर बहसजापान के शिक्षा विभाग ने प्रत्येक विद्यालय में प्रतिदिन राष्ट्रीय ध्वज के सामने दक्ष की मुद्रा में राष्ट्रीय गीत गाना अनिवार्य कर दिया है। जो इसका पालन नहीं करते उन्हें विशेष “शिक्षा” के दण्ड तथा नौकरी तक से निकाले जाने का सामना करना पड़ रहा है। समाचार पत्रों में उस पर बहस जारी है, लेकिन स्थानीय मतदाता मजबूती के साथ इस फैसले का स्वागत कर रहे हैं। इस फैसले के आलोचकों का कहना है कि यह उस जापानी सैन्यवाद की याद दिलाता है जब दूसरे विश्व युद्ध में वह विभिन्न देशों को जीत रहा था। दूसरी ओर समर्थकों का मानना है कि सामान्यत: किसी भी देश को अपने प्रतीकों के प्रति गर्व की भावना का हक होना ही चाहिए और अगर हम जापान की नई पीढ़ी को देशभक्ति का पाठ पढ़ा रहे हैं तो इसमें बुरी बात क्या है? इस पर जब काफी विवाद छिड़ा तो जापान के सम्राट ने एक बयान जारी कर इस अभियान को धक्का पहुंचाया। उन्होंने कहा कि ऐसा काम जोर-जबरदस्ती से नहीं होना चाहिए। इस पर टोक्यो शिक्षा मंडल के सदस्य कुनियो चेन्योनागा ने चिढ़कर कहा, “आपके महान शब्दों के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। पर मैं यह सुनिश्चित करने का कर्तव्य निभा रहा हूं कि जापान के छात्र और अध्यापक देश के सूर्योदय वाले ध्वज का सम्मान करें और राष्ट्रीय गीत के समय देश और ध्वज के प्रति भक्ति-भाव प्रदर्शित करें।” जापान को भारत में देशभक्ति एवं प्रखर राष्ट्रवाद का प्रेरक उदाहरण प्रस्तुत करने वाला देश एवं समाज माना जाता रहा है। परन्तु अब स्थिति बदल रही है और अमरीकी प्रभाव वहां इतनी तीव्रता से पैठ गया है कि देशभक्ति और राष्ट्रीयता की बात युद्ध-पिपासा से जोड़कर देखी जाती है। यह परिवर्तन भारतीयों के लिए विशेष अध्ययन का होना चाहिए।NEWS

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