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शगूफों की बिसात है बस!प्रेमचन्द्रप्रेमचन्द्र(गतांक से आगे)जैसा कि प्राय: जनमानस का स्वभाव होता है, कानून बनने से पहले उसके उल्लंघन की रूपरेखा बनने लगती है। उसी प्रकार श्री स्वामिनाथन अय्यर ने अपने लेख “गेटिंग अराउन्ड जॉब कोटाज” (टाइम्स आफ इण्डिया, 24 अक्तूबर, 2004) में उद्योग जगत को सुझाव दिया है कि यदि उन्हें आरक्षण देना भी पड़े तो आरक्षण का कोटा वे वंचितों को सफाई कर्मचारी, केन्टीन वर्कर, ड्राइवर, चौकीदार व ऐसे ही पदों पर नियुक्ति करके पूरा कर सकते हैं। इससे उद्योग जगत की गुणवत्ता एवं प्रबन्धन प्रभावित नहीं होगा। श्री अय्यर का यह भी सुझाव है कि यदि आरक्षण देने की नौबत आये तो उद्योग जगत अपनी इकाइयों में सेवारत अधिकारीगण, तकनीशियन एवं कुशल श्रमिकों को अनुबन्ध पर सलाहकारों के रूप में परिवर्तित कर दें, क्योंकि इस प्रकार के सभी कार्मिक उच्च वर्ग के होते हैं। अत: जब ऐसे कार्मिक अनुबन्ध पर होंगे तो उनके अनुपात में अनुसूचित जातियों का आरक्षण कोटा स्वत: ही कम हो जायेगा, जिससे इकाई की गुणवत्ता व व्यय कम प्रभावित होंगे। इस प्रकार प्रधानमंत्री के दिये सुझाव से केवल बहस प्रारम्भ हुई है। निजी क्षेत्र में आरक्षण को क्रियान्वित करने के कानून को वर्तमान सरकार के कार्यकाल में बनने की कोई संभावना प्रतीत नहीं होती। क्योंकि इसके लिए सरकार के पास दृढ़ इच्छाशक्ति का अभाव है। ऐसा प्रतीत होता है कि तीन राज्यों में विधानसभा चुनावों के संदर्भ में ही प्रधानमंत्री ने दलितों के निजी क्षेत्र में आरक्षण का शगूफा छोड़ा था।सिर्फ वाणी विलापनिजी क्षेत्र में दलितों के लिए आरक्षण पर जो राजनीतिक दल सहमति व्यक्त कर भी रहे हैं, उसमें राजनीति की बू अधिक आ रही है। क्योंकि इस देश के राजनीतिक दल स्वयं जातिवाद को बढ़ावा देते हैं और केवल वोट बैंक की राजनीति करते हैं। संप्रग सरकार ने अल्पसंख्यक तुष्टीकरण हेतु इनके आरक्षण के लिए तत्काल एक आयोग गठित करने की घोषणा कर दी। परन्तु दलितों को निजी क्षेत्र में आरक्षण के लिए प्रधानमंत्री ने उद्योग जगत को केवल सुझाव देकर अपने दायित्व की इतिश्री समझ ली। क्यों नहीं इसके लिए तत्काल कोई अध्ययन समिति गठित की गयी? इस समिति में वे उद्योग जगत के प्रतिनिधि भी शामिल कर सकते थे। अभी तक की कारगुजारी के नाम पर केन्द्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय द्वारा 218 कम्पनियों को पत्र लिखकर निजी क्षेत्र में दलितों और जनजातीय लोगों को आरक्षण देने हेतु आग्रह किया गया था। परन्तु अद्यतन प्रगति यह है कि केवल 20 औद्योगिक घरानों/कम्पनियों के पत्र सरकार को प्राप्त हुए हैं। सरकार इतने भर से ही इसे “आरक्षण” के मुद्दे पर सकारात्मक संकेत मान रही है। जबकि मीडिया रपट के अनुसार औद्योगिक कम्पनियों के जो पत्र सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय को प्राप्त हुए हैं, उनमें निजी क्षेत्र में दलितों के आरक्षण का कतई समर्थन नहीं किया गया है। बल्कि इस दिशा में कुछ सकारात्मक कदम उठाने के बदले इन कम्पनियों ने मोल-भाव करने के संकेत दिये हैं। ये कम्पनियां दलितों के आरक्षण की एवज में कुछ कर रियायतों की अपेक्षा कर रही हैं। यह एक टाल-मटोल के अलावा कुछ भी नहीं है। अभी हाल ही में केन्द्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री श्रीमती मीरा कुमार के आमंत्रण पर अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के सांसदों की जो बैठक बुलाई गयी थी, उसमें कई सांसदों ने इस आरक्षण के लिए केन्द्रीय कानून बनाने की मांग की है, जिस पर सरकार की ओर से कानून बनाने का कोई सकारात्मक संकेत नहीं दिया गया। मैं नहीं समझता कि उद्योग जगत आसानी से प्रधानमंत्री का सुझाव मान लेगा, क्योंकि उद्योग जगत ने प्रधानमंत्री जी के सुझाव पर बिना विलम्ब किये अपनी नकारात्मक प्रतिक्रिया पहले ही व्यक्त कर दी थी कि दलितों को निजी क्षेत्र में आरक्षण देने से गुणवत्ता व प्रबन्धन प्रभावित होंगे और यह कहकर गेंद सरकार के पाले में डाल दी कि दलितों को योग्य और सक्षम बनाने की आवश्यकता है।न क्षमता बढ़ाते हैं, न मौका देते हैंजहां तक योग्यता व क्षमता का प्रश्न है, इसके लिए भारतीय समाज और सरकार दोनों ही बराबर दोषी हैं और साथ ही दोषी है, यहां की शिक्षा प्रणाली। संप्रग सरकार शिक्षा के तथाकथित भगवाकरण रोकने की बात तो जोर-शोर से कर रही है, परन्तु वंचितों, जनजातीय लोगों के कल्याण के लिए शिक्षा नीति में आमूल-चूल परिवर्तन करने के लिए कोई योजना विचाराधीन नहीं है। राजग सरकार के कार्यकाल में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने जरूर भारतीय प्रबन्धन (आई.आई.एम.) की फीस डेढ़ लाख रुपए से घटाकर पैंतीस हजार कर दी थी, ताकि निम्न मध्यम वर्ग के बच्चे भी देश के अच्छे प्रबन्धन संस्थानों में प्रवेश पा सकें। राजग सरकार का यह कदम वास्तव में अत्यन्त सराहनीय था। परन्तु वर्तमान संप्रग सरकार ने इन संस्थानों के आगे घुटने टेकते हुए पुन: फीस का वही पुराना ढांचा प्रतिस्थापित कर दिया और इसके लिए तर्क दिया गया कि इन संस्थानों में प्रवेश के इच्छुक निर्धन अभ्यर्थियों को ये संस्थान आवेदन करने पर छात्रवृत्ति देंगे। सरकार का यह तर्क कदाचित् उसकी भेदभाव पूर्ण मानसिकता का प्रतीक है। परन्तु यह भी विडम्बनापूर्ण है कि तथाकथित समाजवादी राजनेताओं एवं वामपंथियों ने सरकार के इस कृत्य की उतनी कड़ी भत्र्सना नहीं की, जितनी वास्तव में की जानी चाहिए थी। साथ ही देश में धड़ल्ले से चल रही दोहरी शिक्षा प्रणाली भी दलितों, शोषितों को अच्छी स्तरीय शिक्षा से वंचित कर रही है। विडम्बना तो यह है कि एक ओर साधारण स्कूल हैं, जहां अध्यापक कम होते हैं। जो होते भी हैं उनमें अधिकांश विषय विशेषज्ञ भी नहीं होते। दूसरी ओर सुविधा सम्पन्न अच्छे कान्वेन्ट स्कूल हैं, जहां पर्याप्त अध्यापक होते हैं, जिन्हें विषय विशेषज्ञ कहा जा सकता है। दोनों तरह के स्कूलों से शिक्षा प्राप्त विद्यार्थियों को रोजगार के लिए एक ही प्रकार की प्रतियोगात्मक परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। शिक्षा में घोर असमानता परन्तु प्रतियोगात्मक परीक्षाओं के परिणाम में समानता की अपेक्षा, अपने आप में साम्य और नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्त से कोसों दूर है, यह योग्य अभ्यर्थियों के चयन की प्रचलित प्रणाली। दोहरी शिक्षा प्रणाली वास्तव में भारतीय संविधान में प्रवृत्त उद्देशिका में प्राप्त समानता के अधिकार की भी अनदेखी कर रही है। देश में चाहे किसी राजनीतिक दल की सत्ता हो, परन्तु सत्ता में प्रबल भागीदारी उस वर्ग की ही रहती है जो सम्पन्न हैं और गरीबों, शोषितों के विकास की बातें विवशतावश केवल वोट की राजनीति के लिए करते हैं। ऐसी ही मानसिकता के लोग वंचितों व जनजातीय लोगों को अक्षम व अयोग्य बता रहे हैं।(लेखक उ.प्र. व्यापार कर के पूर्व संयुक्त आयुक्त हैं)NEWS
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