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जो शाहबानो प्रकरण में कियाक्या वही कांग्रेस अब बंगलादेशियों के बारे में भी करना चाहती है?-राकेश उपाध्यायआई.एम.डी.टी. कानून को निरस्त करने का आदेश सर्वोच्च न्यायालय ने गत 12 जुलाई को दिया। आनन-फानन में प्रधानमंत्री ने निर्णय के समुचित अध्ययन के लिए प्रणव मुखर्जी की अध्यक्षता में मंत्री स्तरीय समिति के गठन की घोषणा कर दी। अब सरकार क्या और क्यों अध्ययन करना चाहती है, यह तो वक्त ही बताएगा। पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय स्पष्ट है कि आई.एम.डी.टी. कानून देश में घुसपैठियों का अवैध आव्रजन रोक सकने में पूर्णतया नाकाम साबित हुआ है। अनेक कानूनविदों का मानना है कि इतने स्पष्ट निर्देश का अनुपालन करने की बजाए केन्द्र सरकार इसके अध्ययन के नाम पर एक तरह से आदेश के क्रियान्वयन को लटका रही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार वोट बैंक की खातिर एक बार पुन: शाहबानो प्रकरण को दुहराने की फिराक में है? अपने ऐतिहासिक निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय खंडपीठ- मुख्य न्यायाधीश आर.सी. लाहोटी, न्यायमूर्ति जी.पी. माथुर एवं न्यायमूर्ति पी.के. बालासुब्राह्मण्यम ने क्या कहा है, आइए, जरा इस पर एक निगाह डालें-सर्वोच्च न्यायालय ने आई.एम.डी.टी. प्रपत्र, जिसका इस्तेमाल घुसपैठियों के विरुद्ध शिकायत करने के लिए किया जाता है, का विश्लेषण किया है। इस प्रपत्र में घुसपैठ की शिकायत करने वाले शिकायतकर्ता से निम्न विवरण भरने को कहा जाता है-1 आरोपित घुसपैठिया क्या 25 मार्च, 1971 के पहले भारत में प्रविष्ट हुआ था या उसके बाद में? 2. भारत में उसके घुसपैठ की तिथि? 3. क्या वह विदेशी है? 4. क्या बिना वैध दस्तावेजों के उसने भारत में प्रवेश किया है?आई.एम.डी.टी. प्रपत्र-5 के कालम 7 में आवेदनकर्ता से उन प्रमाणों का पूरा विवरण मांगा जाता है जो कि उसके पास लिखित या अन्य साक्ष्यों के रूप में मौजूद हैं। आवेदनकर्ता को यह प्रमाणित भी करना होता है कि उसकी सूचना व विश्वास के मुताबिक दिए गए तथ्य सही हैं, साथ ही यह भी कि उसने 10 से ज्यादा आवेदन नहीं दिए हैं। इसी के साथ प्रपत्र में आवेदनकर्ता से इस बात पर भी हस्ताक्षर करने को कहा जाता है कि, “मैं इस तथ्य से भलीभांति परिचित हूं कि यदि मेरी शिकायत गलत पायी गयी या यह पाया गया कि शिकायत सिर्फ इसलिए की गयी है ताकि आरोपित या उसके परिवार के लिए यह परेशानी का कारण बने तो मैं गलत तथ्यों को देने के अपराध में इस प्रक्रिया के अन्तर्गत विधिक कार्रवाई का सामना करने के लिए तैयार हूं।”सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में उपरोक्त प्रावधानों पर तीखी प्रतिक्रिया की है। सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, “किसी बंगलादेशी नागरिक के अवैध एवं गुपचुप रूप से भारत में घुसने की ठीक-ठीक तारीख बता पाना किसी शिकायतकर्ता के लिए न केवल कठिन है अपितु स्पष्ट रूप से असंभव है। एक भारतीय नागरिक, जो किसी बंगलादेशी व्यक्ति के अवैध घुसपैठ के सन्दर्भ में राज्य की अधिकृत एजेंसी को सूचना देकर राष्ट्रीय कर्तव्य का निर्वहन कर रहा है, को राज्य द्वारा यह कहना कि यदि उसके द्वारा दिए गए तथ्य गलत पाए गए तो उस पर आपराधिक अभियोग चलेगा, कहां तक ठीक है। यह तो एक प्रकार से राज्य द्वारा शिकायतकर्ता को भयभीत करने की कार्रवाई है।”सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, “यह प्रावधान नागरिकों पर विपरीत और हानिकर प्रभाव डालने वाला है क्योंकि इसके कारण घुसपैठ को लोग खामोश तमाशबीन की तरह देखना ज्यादा पसंद करेंगे बजाए इसके कि वे घुसपैठियों की पहचान और निष्कासन में सहयोग करें। आखिर कोई नागरिक क्यों इतनी जहमत उठाएगा जबकि समय, धन, ऊर्जा भी वह खर्च करे और उसके जान पर भी संकट बन आए।जिन कारणों से आई.एम.डी.टी. कानून प्रभावी नहीं हो सका है और इसके दुष्परिणाम आए हैं, उन्हें निम्न प्रकार समझा जा सकता है-आई.एम.डी.टी. कानून में किसी को घुसपैठिया सिद्ध करने का प्रावधान विदेशी अधिनियम, 1946 के इस नियम के विपरीत है, जिसमें संदेहास्पद व्यक्ति की जिम्मेदारी होती है कि वह सिद्ध करे कि वह अवैध अप्रवासी नहीं है।आई.एम.डी.टी. कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो कि आरोपित घुसपैठिए को कोई विवरण देने के लिए बाध्य करता हो।जांच अधिकारी को आरोपित घुसपैठिए के निवास स्थान की जांच का भी कोई अधिकार नहीं है। न ही वह आरोपित पर कोई सूचना देने या बताने के लिए कोई दबाव डाल सकता है।शिकायतकर्ता या गवाहों के कर्तव्य निर्वहन के लिए या न्यायाधिकरण के समक्ष प्रस्तुत होने के लिए कोई खर्च भी देय नहीं है जबकि वह राष्ट्रीय कार्य में सहयोग कर रहा है।न्यायाधिकरण जैसे ही किसी घुसपैठिए को अवैध अप्रवासी घोषित करता है, वह तत्काल लापता हो जाता है। इस कारण उस पर कोई नोटिस/सम्मन क्रियान्वित नहीं हो पाता।घुसपैठिए जातीय समरूपता का लाभ उठाकर अपने को छुपाने में आसानी से सफल हो जाते हैं।कानून का यह प्रावधान कि शिकायतकर्ता और घुसपैठिए एक ही थाने के निवासी हों, दो जमानतदाता शिकायत की पुष्टि करें और वे भी उसी थाने के निवासी हों, शिकायत पत्र के साथ 25 रुपए शुल्क भी शिकायतकर्ता को देना है। इन प्रतिबन्धों द्वारा स्वाभाविक ही घुसपैठियों के विरुद्ध शिकायतों में बाधा डाली गयी है।सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में राष्ट्रीय सुरक्षा के सन्दर्भ में संविधान की धारा 355 का उल्लेख करते हुए केन्द्र सरकार को उसके दायित्व का ध्यान भी दिलाया है। न्यायालय के अनुसार, “केन्द्र सरकार का यह महत्वपूर्ण दायित्व है कि वह देश की सीमाओं की रक्षा करे, अपने नागरिकों का जीवन सुरक्षित करे। सरकार का यह भी दायित्व है कि वह आन्तरिक अशान्ति रोके और कानून व्यवस्था बनाए रखे।” सर्वोच्च न्यायालय ने कौटिल्य द्वारा राजा के लिए निर्धारित कर्तव्यों का भी इस सन्दर्भ में विशेष उल्लेख किया है। (देखें बाक्स)सर्वोच्च न्यायालय ने असम के पूर्व राज्यपाल जनरल एस.के. सिन्हा की रपट का जिक्र करते हुए कहा कि 8 नवम्बर 1998 को राष्ट्रपति को भेजी गई अपनी रपट में असम के राज्यपाल का कहना है कि “अवैध आव्रजन के चलते असम का जनसंख्यात्मक संतुलन बिगड़ गया है और असमिया मूल के लोगों के अल्पसंख्यक होने का खतरा खड़ा हो गया है। मुस्लिम कट्टरपंथी संगठन असम में तेजी से फैलते जा रहे हैं।” न्यायालय के अनुसार, “यह रपट किसी साधारण व्यक्ति की नहीं अपितु ऐसे व्यक्ति द्वारा भेजी गई है जो सेना में उप-प्रमुख रह चुके हैं। रपट देश की सुरक्षा के समक्ष खड़े भयंकर खतरे को बताने में समर्थ है।” इन परिस्थितियों में इस तथ्य में कोई सन्देह नहीं बचा है कि असम अवैध घुसपैठ के कारण भयानक रूप से विदेशी आक्रमण और आन्तरिक अशान्ति झेल रहा है। यहां यह प्रश्न भी उठता है कि संविधान की धारा 355 के सन्दर्भ में भारत सरकार ने असम की इस समस्या के समाधान के लिए अब तक क्या कदम उठाए हैं?न्यायालय का यह स्पष्ट मत है कि विदेशी अधिनियम-1964 (संशोधित) अवैध घुसपैठियों की पहचान कर सकने में आई.एम.डी.टी. कानून से ज्यादा सक्षम है। विदेशी अधिनियम की धारा 9 प्रत्यक्ष रूप से अपने को निर्दोष साबित करने का जिम्मा संदिग्ध नागरिक पर ही डालती है न कि शिकायतकर्ता पर। साथ ही यह कानून विभेदकारी भी है क्योंकि यह एक ही मामले में असम राज्य व देश के अन्य राज्यों के मध्य भेदभाव का कारण भी बनता है।सर्वोच्च न्यायालय ने आई.एम.डी.टी. कानून को असंवैधानिक ठहराते हुए यह भी कहा कि विदेशी अधिनियम के प्रतिकूल होने के साथ ही आई.एम.डी.टी. कानून की धारा 4 भारतीय पासपोर्ट (भारत में प्रवेश हेतु) अधिनियम 1920 का भी उल्लंघन करती है। भारतीय पासपोर्ट अधिनियम बिना वैध कागजातों के भारत में घुस आए विदेशी व्यक्ति को बिना वारंट गिरफ्तार करने का अधिकार सब इंस्पेक्टर और उससे ऊपर की श्रेणी तक के सभी पुलिस अधिकारियों को देता है। आई.एम.डी.टी. की धारा 4 ने केन्द्रीय सरकार की उपरोक्त मामले में विधिक शक्तियों का अपहरण तो किया ही है, पुलिस अधिकारियों द्वारा बिना वारंट अवैध विदेशी अप्रवासियों को गिरफ्तार करने पर भी रोक लगा दी है। वस्तुत: बंगलादेशी नागरिक, जो अवैध रूप से भारत में घुस आए हैं, उन्हें भारत में रहने का किसी प्रकार का कोई विधिक अधिकार नहीं है और उन्हें वापस भेजा जाना ही चाहिए। उपरोक्त बिन्दुओं के अनुरूप याचिका को सफल घोषित करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने गत 12 जुलाई को निम्नांकित निर्देश जारी किए-आई.एम.डी.टी. कानून (1983) असंवैधानिक कानून है और इसे निरस्त किया जाता है।सभी न्यायाधिकरण, जो इस कानून के अन्तर्गत गठित किए गए, भंग किए जाते हैं।भंग न्यायाधिकरणों के समक्ष लम्बित मामले विदेशी (न्यायाधिकरण) आदेश 1964 के अन्तर्गत गठित होने वाले नए न्यायाधिकरणों के हवाले होंगे।सरकार को निर्देशित किया जाता है कि वह विदेशी (न्यायाधिकरण) आदेश- 1964 के अन्तर्गत पर्याप्त संख्या में न्यायाधिकरणों का गठन कर बंगलादेशी अवैध अप्रवासियों के विरुद्ध कार्रवाई सुनिश्चित करे।NEWS
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