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एक ऐतिहासिक उपन्यास "चित्रकूट का चातक"

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Jul 8, 2005, 12:00 am IST
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दिंनाक: 08 Jul 2005 00:00:00

जा पर विपदा परत है, सो आवत एहि देशसमीक्षकपुस्तक का नाम- चित्रकूट का चातकलेखक- मोहनलाल गुप्तामूल्य- 300 रु.पृष्ठ- 300प्रकाशक- नवभारत प्रकाशन44/6,पी.डब्ल्यू.डी. कालोनी,जोधपुर-342001 (राजस्थान)जोधपुर (राजस्थान) के रहने वाले उपन्यासकार, लेखक श्री मोहनलाल गुप्ता इतिहास और संस्कृति से संबंधित अनेक विषयों के गहन अध्येता के रूप में जाने जाते हैं। इनके द्वारा लिखित लगभग 50 से अधिक कहानियां भी राजस्थानी, तेलुगू और मराठी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। उनका सद्य:प्रकाशित उपन्यास “चित्रकूट का चातक” मुगलिया सल्तनत के दो ऐसे नायकों का ऐतिहासिक जीवन वृत्तांत है, जो जीवनभर तो मुगल सल्तनत की स्थापना और उसके सुदृढ़ीकरण के लिए लड़ते-जूझते रहे लेकिन अन्तत: मुगलों की आन्तरिक कुटिलता के चलते इनकी वृद्धावस्था अत्यंत विपत्तिग्रस्त हो गई। हुमायूं और अकबर के सेनापति बैरम खां और उनके बेटे रहीम के जीवन पर आधारित है “चित्रकूट का चातक”। ऐतिहासिक घटनाओं को औपन्यासिक कृति के रूप में ढालने में लेखक को कई बार जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, उनका सफलतापूर्वक सामना कर अद्भुत कल्पकता के सहारे श्री मोहनलाल गुप्ता ने ऐतिहासिक घटनाओं को अत्यंत भावपूर्ण एवं जीवन्त रूप में अपने उपन्यास में चित्रित किया है। घृणा, जुगुप्सा, छल, प्रपंच, राजनीति और कूटनीति, भक्ति की महिमा, पश्चाताप आदि मानवीय जीवन की वृत्तियों को भलीभांति उपन्यास में संजोया गया है। इतिहास की घटनाओं को सन्दर्भ के साथ बुद्धिमत्तापूर्ण ढंग से लेखक ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है ताकि घटना की ऐतिहासिक सच्चाई से छेड़छाड़ भी न हो और उपन्यास का सहज प्रवाह भी बना रहे। उनका यह प्रयास वाकई प्रशंसनीय है। प्रस्तुत हैं उपन्यास के कुछ महत्वपूर्ण अंश-1. सम्मोहित सा बैरम खां वहीं धरती पर बैठ गया। वृद्ध को पता तक न चल सका कि अंधेरे में कोई और परछाई भी आकर बैठ गयी है। सच पूछो तो स्वयं बैरम खां को भी पता न चला कि वह कब यहां तक चलकर आया और कब धरती पर बैठकर उस संगीत माधुरी में डुबकियां लगाने लगा। वृद्ध तल्लीन होकर गाता रहा। बैरम खां भी बेसुध होकर सुनता रहा-वृद्ध अपने आराध्य से जागने की विनती कर रहा था-जागिये बृजराज कुंअर कमल कुसुम फूले।कुमुद बंद सकुचित भये भृंग लता फूले।तमचुर खग रौर सुनहु बोलत बनराईं।रांभति गौ खरिकन में बछरा हित धाईं।बिधु मलीन रबिप्रकास गावत नर-नारी।सूर स्याम प्रात उठौ अंबुज कर धारी।भजन का एक-एक शब्द बैरम खां की आत्मा में उतर गया। जाने कितना समय इसी तरह बीत गया। भजन पूरा करके जब वृद्ध गायक ने तानपूरा धरती पर रखा तो सूर्य देव धरती पर पर्याप्त आलोक फैला चुके थे। वृद्ध की दृष्टि बेसुध पड़े बैरम खां पर पड़ी।-“आप कौन हैं बाबा?” बहुत देर बाद बैरम खां ने ही मौन भंग किया।- “मैं इस छोटे से मंदिर का बूढ़ा पुजारी रामदास हूं।” “आप कौन हैं?”- “मैं पापी हूं। मैंने बहुत पाप किये हैं।” जाने कैसे अनायास ही बैरम खां के मुंह से निकला और फिर से आंसू बह निकले।-“भगवान शरणागत वत्सल हैं, सब पापों को क्षमा कर देते हैं, उन्हीं की शरण में जाओ भाई।” वृद्ध ने स्नेहसिक्त शब्दों से खान को ढाढ़स बंधाया।-“क्या आप मुझे एक भजन और सुनायेंगे।” बैरम खां ने गिड़गिड़ा कर कहा।वृद्ध फिर से तानपूरा लेकर बैठ गया और बहुत देर तक गाता रहा। जब बैरम खां उठा तो उसका मन पूरी तरह हल्का था। वह बहुत अनुनय करके वृद्ध को अपने साथ आगरा ले गया और अगले दिन दरबार आयोजित करके सबके सामने वृद्ध का गायन करवाया। जाने क्या था उस वृद्ध के भजनों में कि भरे दरबार में बैरम खां रोने लगा।2. अंतत: वह दिन भी आया जब अब्दुर्रहीम सब कुछ समेट-समाट कर चित्रकूट के लिए चल दिया। वह समेटना भी क्या था! एक विचित्र सी चेष्टा थी। आगरा और दिल्ली में खानखाना की बनवाई हुई जो हवेलियां थीं, वे सब हवेलियां उसने अपने आश्रितों, सम्बंधियों और नौकरों-चाकरों को दे दीं। दिल्ली में बैरम खां की बनवाई हुई हवेली उसने बेटी जाना के हवाले कर दी। घर का सारा सामान सेवकों और भिखमंगों में बांट दिया। यह सब-कुछ ऐसा ही था जैसे कोई गरुड़ पक्षी अपने सोने का पिंजरा काट कर मुक्त आकाश में विचरने के लिए उड़ चले। मुंह अंधेरे ही वह बैलगाड़ी में बैठ गया। बेटी जाना बेगम उसके सामने बैठी थी। कड़वे तेल की कुप्पी के क्षीण प्रकाश में बेटी के कातर मुंह और डबडबायी हुई आंखों को देखकर खानखाना ने अपना मुंह बैलगाड़ी से बाहर निकाला और गाड़ीवान से बोला- “चलो मियां! चित्रकूट चलो।”सचमुच ही पंछी अपना पिंजरा काट कर चित्रकूट के लिए उड़ चला था। वर्षों की साध पूरी होने जा रही थी। उसका मन दो हिस्सों में बंट गया था। एक हिस्सा बेटे-पोतों के मारे जाने से जार-जार रोता था तो दूसरा हिस्सा चित्रकूट की ओर चल देने के लिए उतावला था।-“अब्दुर्रहीम! मेरे मित्र!” रीवा नरेश ने लपक कर खान को गले लगा लिया।खान ने धीरे से अपने आप को छुड़ाते हुए कहा-“ये रहीम दर दर फिरैं मांगि मधुकरी खाहिं,यारों यारी छांड़ दो वे रहीम अब नाहिं।”-किन्तु अब्दुर्रहीम! आप यहां! इस दशा में ?” रीवा नरेश ने उसे फिर से गले लगाते हुए कहा। खानखाना ने मुस्कुराकर कहा- “चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध नरेस। जा पर विपदा परत है, सो आवत एहि देस।”पुस्तकें मिलींपुस्तक का नाम- मैं और मेरी पत्रकारितालेखक- बबन प्रसाद मिश्रमूल्य- 300 रु.पृष्ठ- 300प्रकाशक- मेधा बुक्सएक्स-11, नवीनशाहदरा,दिल्ली-110032पुस्तक का नाम- तोड़ो कारा तोड़ो-4लेखक- नरेन्द्र कोहलीमूल्य- 300 रु.पृष्ठ- 458प्रकाशक- किताब घर प्रकाशन4855-56/24,अंसारी रोड, दरियागंज,नई दिल्ली-110002पुस्तक का नाम- पुष्पांजलिलेखक- ब. नौबत सिंहपृष्ठ- 109प्रकाशक- स्टार पब्लिकेशंस प्रा.लि.4/5-बी, आसफअली रोड, नई दिल्ली- समीक्षकNEWS

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