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अथ

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Jun 11, 2005, 12:00 am IST
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दिंनाक: 11 Jun 2005 00:00:00

उस लौ की नियति से जुड़े लोगतरुण विजयइन दिनों अनेक घटनाएं हुई हैं, जो आशा की किरणें जगाती हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती जी के मामले को पाण्डिचेरी स्थानान्तरित करने का फैसला दिया। विभाजन के बाद भारतीय न्यायपालिका ने शायद ही ऐसे निर्णय दिए हों, जिनसे भारत की भौगोलिक और सांस्कृतिक एकता मजबूत होती हों। दूसरी आशा की किरण है न्याय में आस्था दृढ़तर होते हुए भारत के धर्मप्राण समाज की मुख्यधारा में उन युवाओं का अधिक से अधिक संख्या में सहभाग, जो अपने सामान्य जीवन में परमाणु वैज्ञानिक होंगे, कम्प्यूटर की किसी विधि के आविष्कारक अथवा लोकप्रिय डाक्टर। इस वर्ग के श्रेष्ठतम मस्तिष्क न केवल गीता और गायत्री के माध्यम से देश की अन्त:सलिला गंगा में अवगाहन कर रहे हैं, बल्कि उसे पुनर्परिभाषित भी कर रहे हैं। जब मैं जगदेवराम उरांव और कृपा प्रसाद सिंह को देखता हूं तो मन में सहज ही प्रश्न उठता है कि इनके मन में यह तो स्पष्ट है कि वे एक साधारण सामान्य कार्यकर्ता के नाते ही समाज प्रबोधन एवं संगठन के काम में जुटे हैं, उनके काम से सारा देश बदल जाएगा या क्रांति आ जाएगी, ऐसा अहंकार तो उनके काम या स्वभाव में हमने कभी देखा नहीं। और यह बात सैकड़ों कार्यकर्ताओं में देखने को मिलती है, जिन्होंने भारत की इस अन्त:सलिला गंगा में अवगाहन किया है। फिर भी वह कौन-सी लौ है जो उन्हें सब छोड़ सिर्फ ध्येय से जोड़े रखती है? अपने कृष्ण गोपाल जी (डाक्टर साहब कहते हैं तो वे बड़ा सकुचा जाते हैं) और अशोक वाष्र्णेय किसी भी विश्व समाज के दीपस्तम्भ हैं। श्रीश देवपुजारी भी एक ऐसे ही कार्यकर्ता हैं। विज्ञान में परास्नातक, शारीरिक सौष्ठव और फुर्ती में बेहद दिलचस्पी। पहले रज्जू भैया के सहायक थे। फिर बिहार और झारखंड में संगठन कार्य के लिए गए, अब स्वदेशी का काम मिला तो उसमें लगे। पिताजी बसन्त देवपुजारी सहकार भारती के काम में हैं तो पूरा परिवार संघ प्रेरित किसी न किसी काम में जुटा। भारत के इतिहास में संभवत: यह पहली बार घटित हो रहा है कि उत्साही और भावनात्मक जुड़ाव वाले युवा संघ कार्य से जुड़े हैं बल्कि उनका पूरा का पूरा परिवार, माता-पिता, भाई-बहन, दादा-दादी, चाचा-चाची, मामा-मामी अपने-अपने तरीके से किसी न किसी उस काम से जुड़े हैं जिससे भारतीयता मजबूत होती है और भारत का गौरव बढ़ता है। अब कलकत्ते की एक ऐसी ही टोली को देखें, आनन्द होता है। उनमें से कोई प्रचारक नहीं है, सब व्यापारी हैं। मूल राजस्थान से, लेकिन अपने व्यापार और घर-गृहस्थी को संभालते हुए भी बैठे-बैठे कितने ही काम कर डाले। सेवा, संघ विचार, साहित्य के क्षेत्र में कई पुरस्कार देते हैं। वार्षिक गोष्ठियां और चिन्तन बैठकें करते हैं। कलकत्ते से लेकर डीडवाना तक उनके कार्यों, पुस्तकालयों, सेवा प्रकल्पों तथा उद्बोधक आयोजनों की श्रृंखला बिछी रहती है।चेन्नै में राधा-राजन तो त्रिवेन्द्रम में प्रदीप और चन्द्रशेखर की अनूठी जोड़ी और दिल्ली से ह्रूस्टन तक और ह्रूस्टन से बीजिंग, म्यांमार होते हुए कोलम्बो, काठमाण्डू की अन्तरध्वनियों को स्पर्श करते चमनलाल जी और भिड़े जी के आलोक पथ को पकड़ पाने की कोशिश में लगे श्याम परांडे जैसे हजारों सेवाव्रती हैं, जो प्रयासपूर्वक यह सुनिश्चित भी करते रहते हैं कि उनके नाम और काम का यश भी कभी किसी के ध्यान में न आए। ध्यान में रहे तो बस एक नाम हेडगेवार का और एक काम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का।भारत के भविष्य में आशा जगती देखनी है तो सबसे पहले दिल्ली, अखबारों एवं चैनलों से नजरें घूमानी होंगी। दिल्ली में जो गुजरता है वह न पढ़ें तो भी हमारा दिन अच्छा गुजर सकता है और चैनलों का शोर तो सिवाय धुएं का कुछ और देता नहीं। इतना भर करने के बाद दिखेंगे वे लोग जो अपना सब कुछ बिना किसी वापसी की आशा में समाज के लिए दे रहे हैं और यह जानते हुए भी कि कभी किसी इतिहास के आखिरी पन्ने की संदर्भ सूची में भी उनका नाम नहीं होगा। इनमें वैदिक हैं, मुसलमान हैं, सिख और सनातन धर्मी हैं, ईसाई हैं तो पारसी भी हैं। भारत माता का आंचल हर उस पंथी के लिए है जो स्वयं को सन्तान के रूप में देश को समर्पित करता है। ऐसे कितने लोग होंगे, जिन्होंने ठाकुर राम सिंह और सोहन सिंह जी का नाम सुना होगा? या वे जिन्होंने लेह या पोर्ट ब्लेयर में या नीलगिरी की पहाड़ियों में सुबह-शाम भगवा ध्वज के सामने शाखा लगाने का काम किया, प्रार्थना की, चने खाए और साइकिल या हद से हद मोटर साइकिल पर जिन्दगी गुजारते हुए समाज की धमनियों में यूं समा गए मानो उनका अलग अस्तित्व कभी था ही नहीं।और ऐसे लोग हर क्षेत्र में विभिन्न संगठनों और धाराओं के अनुगामी हैं। आखिर माता अमृतानन्दमयी मछुआरा समाज से हैं। कोई डिग्री नहीं और कोई अंग्रेजियत का लबादा नहीं और उन्होंने देश में सेवा और धर्म का ऐसा प्रेरक वातावरण सृजित किया है जिसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। प्रौद्योगिकी, चिकित्सा, अभियांत्रिकी जैसे अनेक क्षेत्र उनके ममतामय स्पर्श से जीवंत हो उठे हैं।ऐसे ही एक प्रज्ञा पुरुष थे श्रीकान्त जिचकार। कांग्रेस के नेता और असाधारण मेधा के धनी। कारखानों एवं फैक्ट्रियों की तरह खुले स्कूलों की भीड़ में जब तय नहीं कर पाए कि वे अपने बेटे को कहां प्रवेश दिलाएं तो स्वयं विद्यालय खोला सांदीपनी। आज यह नागपुर और आसपास भारतीय मूल्यों और आधुनिक प्रगतिशील मानकों के प्रेरक समन्वय का उदाहरण बना है। और वे भी जो प्रतिबद्ध रूप से उन कुछ मूल बातों को नकारते हैं, जिनके हम अनुगामी हैं, अपने दृष्टिपथ के अनुरूप देश और समाज के जागरण के लिए संघर्ष का ताना-बाना बुनते दिखते हैं, तो यह भारत के भविष्य में आशा जगाने का ही काम लगता है, हताशा का नहीं। अभी मुम्बई में रजनी बख्शी और दिलीप डिसूजा से भेंट हुई तो अच्छा लगा। रजनी ने विवेकानन्द को ताजगी भरे स्वरूप में पुनव्र्याख्यायित किया है और उनकी पुस्तक “बापू कुटी” तो अवश्य पढ़नी चाहिए।केवल सात डाक्टरों से शुरू हुआ संभाजीनगर (औरंगाबाद) का डा. हेडगेवार रुग्णालय देश में कीर्तिमान स्थापित कर रहा है। रुग्णालय यानी केवल रोगियों की ही सेवा नहीं बल्कि क्षेत्र की दलित बस्तियों में सेवा कार्य, विद्या दान, संस्कार प्रदान और उन्हें राष्ट्र के सबल, समर्थ सहयात्री नागरिक बनाने का विनम्र प्रयास। उसके माध्यम से आज ग्रामीण आरोग्य प्रकल्प, दत्ताजी भाले रक्त बैंक, लाहूजी साल्वे, सन्त रोहिदास और सन्त गाडगे बाबा जैसे समरसता के मंत्रद्रष्टा समाजसेवियों के नाम पर गरीब झोपड़पट्टी बस्तियों में अत्याधुनिक स्वास्थ्य केन्द्र चलाए जा रहे हैं। 156 शैया वाले चिकित्सालय को चिकित्सकीय प्रौद्योगिकी की दृष्टि से एशिया में श्रेष्ठ माना गया है। इस चिकित्सालय का संचालन बाबा साहब अम्बेडकर वैद्यकीय प्रतिष्ठान की ओर से किया जाता है तो इसकी सामाजिक गतिविधियों का निर्देशन सावित्री बाई फुले महिला एकात्म समाज मंडल की ओर से होता है। ऐसा कोई भी चिकित्सकीय विभाग नहीं है जो यहां अत्याधुनिक रूप में संचालित न हो रहा हो। शहर में किसी भी बड़े चिकित्सालय की तुलना में 50 प्रतिशत से कम मूल्य पर लाखों रोगियों को चिकित्सा प्रदान करने वाले इस संस्थान को रा.स्व.संघ की विचारधारा एवं स्थानीय प्रचारक दत्तात्रेय भाले जी के नाम समर्पित किया गया है। ऐसा ही ज्योतिपुंज है गुवाहाटी में दीपक दा (बड़ठाकुर) के निर्देशन में चल रहा शंकर नेत्रालय तो चेन्नै में इसी नाम को नेत्र चिकित्सालय पूज्य जयेन्द्र सरस्वती के समाजसेवी स्वरूप का दर्शन कराता है। पांडिचेरी में डा. वेंकटस्वामी के दैवी स्पर्श से विश्व विख्यात हुआ श्री अरविन्द नेत्र चिकित्सालय श्रेष्ठतम देवस्थान से भी श्रेष्ठतर है।सेवा भारती का तो विश्व के विशालतम ही नहीं, सर्वाधिक प्रभावी और ममत्व भरे सेवा संगठनों में उज्ज्वल स्थान है। जिन बस्तियों में सामान्य शहरी और तथाकथित कुलीन वर्ग के लोग प्रवेश तक करने में कठिनाई महसूस करें, वहां सेवा भारती के विष्णु जी, राकेश जी जैसे सैकड़ों कार्यकर्ता हेडगेवार और गांधी का प्रतिरूप बनकर अहर्निश सेवा कार्यों में जुड़े हैं। इनके रहते क्या देश कमजोर हो सकता है? संस्कृत भारती के चमूकृष्ण शास्त्री तो स्वयं में चलते-फिरते एक संस्थान हैं, जिन्होंने भारतीयता की मूल आत्मा को जगाना ही अपना जीवन ध्येय बना लिया है। राम सिंह उत्तराञ्चल के एक गांव सेलाकुई से भौतिक शास्त्र में एम.एस.सी. करने के बाद पूर्वांचल गए तो फिर कभी लौटने का नाम नहीं लिया। और अपना सुब्रात-दीवानगी का आलम यह कि भूख, प्यास और परिचय-अपरिचय की सीमाएं लांघते हुए आदी, मिशिमी – इदु-मिशिमी वगैरह-वगैरह सैकड़ों जनजातियों के गांव बूढ़ों, पुजारियों, परम्परागत वैद्यों और नई तकनीक में हुनरमंद जींस-शर्ट वाले युवाओं में देश और माटी की अगन धधकाने में जुटा है। आप मिलेंगे तो कहेंगे पगला है, पर बिना पागल हुए तो नरेन्द्र को भी रामकृष्ण परमहंस न मिले थे।इस शताब्दी में हिन्दू एकता और धर्मजागरण की दृष्टि से स्वामिनारायण पंथ के प्रमुख स्वामी जी का स्थान अप्रतिम और अग्रणी है। स्वाध्याय परिवार के दादा ने तो भारतीय माटी के प्राण बचाने का काम किया। हम तो जिधर भी देखते हैं भारत और भारतीयता की रक्षा में जुटी करोड़ों भुजाओं और कण्ठों से नि:सृत अपूर्व वन्देमातरम् निनाद सुनाई देता है। यह निनाद निरन्तर प्रबल तथा प्रभावी होता जाएगा। आप भी यह निनाद सुनें और ज्योति पर्व सार्थक करें।NEWS

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