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दिख रहा है बदलावभागीरथ चौधरीनानाजी देशमुख1978 में वरिष्ठ समाजसेवी व सांसद नानाजी देशमुख ने सक्रिय राजनीति से संन्यास लेकर स्वयं को ग्राम विकास के लिए समर्पित किया, उत्तर प्रदेश के गोण्डा जिले में रचनात्मक प्रयोग प्रारम्भ किए। प्रकल्प का नाम रखा- गोण्डा ग्रामोदय प्रकल्प। ग्रामोत्थान के प्रयोग फलीभूत होने लगे। कृषि में चमत्कारिक काम देशभर में चर्चा का विषय बना। दस-बारह वर्ष में ही गोण्डा जैसे पिछड़े जिले का जैसे कायाकल्प हो गया। इसके बाद नानाजी ने चित्रकूट को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। वर्तमान में चित्रकूट के चारों ओर चित्रित होती नवरचना “दीनदयाल शोध संस्थान अपने लिए नहीं अपनों के लिए है, अपने वे हैं जो पीड़ित और उपेक्षित हैं”, इस उद्देश्य को साकार कर रही है। 26 वर्ष की सतत साधना के बाद वास्तव में जिन क्षेत्रों में नानाजी की प्रेरणा से काम शुरू हुआ, केवल उनमें ही नहीं, उनसे जुड़े सैकड़ों लोगों के जीवन में बदलाव दिख रहा है।चित्रकूट जिले के अर्जुनपुर गांव का विद्यालय। गांववालों द्वारा संचालितइस विद्यालय ने आसपास के 15-20 गांवों में पढ़ाई का वातावरण बनाया हैमर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम की शरणस्थली, लोकनायक तुलसी की प्रेरणास्थली चित्रकूट, भारतीय संस्कृति एवं आध्यात्मिक जगत का आदिस्थल है। तीर्थस्थली चित्रकूट का अधिकांश भाग जिला सतना के अंतर्गत आता है। दीनदयाल शोध संस्थान ने चित्रकूट के आस-पास के 500 गांवों का सामाजिक पुनर्रचना एवं समय के अनुरूप नवरचना के लिए चयन किया। यहां अधिकांश गांव बहुत पिछड़े हुए हैं। सड़क, बिजली तो दूर, शिक्षा और चिकित्सा जैसी मूलभूत आवश्यकताओं का भी अभाव है। दीनदयाल शोध संस्थान ने सन् 2009 तक सभी 500 गांवों को स्वावलम्बी बनाने का पांच सूत्रीय लक्ष्य रखा है- (1) कोई बेकार न रहे (2) कोई गरीब न रहे (3) कोई बीमार न रहे (4) कोई अशिक्षित न रहे (5) हरा-भरा और विवादमुक्त गांव हो। ग्राम विकास की इस नवरचना का आधार है समाजशिल्पी दम्पत्ति, जो पांच वर्ष तक गांव में रहकर इस पांच सूत्रीय लक्ष्य की प्राप्ति के लिए काम करते हैं।स्थानीय कारीगरों द्वारा बनाया मझगंवा कृषि विज्ञान केन्द्र का अतिथिगृहग्रामोदय से राष्ट्रोदय के अभिनव प्रयोग के लिए नानाजी ने 1996 में स्नातक युवा दम्पत्तियों से पांच वर्ष का समय देने का आह्वान किया। पति-पत्नी दोनों कम से कम स्नातक हों, आयु 35 वर्ष से कम हो तथा दो से अधिक बच्चे न हों। इस आह्वान पर दूर-दूर के प्रदेशों से प्रतिवर्ष ऐसे दम्पत्ति चित्रकूट पहुंचने लगे। चयनित दम्पत्तियों को 15-20 दिन का प्रशिक्षण दिया जाता है। प्रशिक्षण के दौरान नानाजी का मार्गदर्शन मिलता है। नानाजी उनसे कहते हैं- “राजा की बेटी सीता उस समय की परिस्थितियों में इस क्षेत्र में 11 वर्ष तक रह सकती है, तो आज इतने प्रकार के संसाधनों के सहारे तुम पांच वर्ष क्यों नहीं रह सकतीं?” ये शब्द सुनकर नवदाम्पत्य में बंधी युवतियों में सेवा भाव और गहरा होता है तो कदम अपने सुनहरे शहर एवं घर की तरफ नहीं, सीता की तरह अपने पति के साथ जंगलों- पहाड़ों बीच बसे गांवों की ओर बढ़ते हैं। तब इनको नाम दिया जाता है- समाजशिल्पी दम्पत्ति।प्रारम्भ में गांव वालों को समझ नहीं आया था कि ये पढ़े-लिखे युवक-युवतियां हमारे गांव की खाक क्यों छान रहे थे? किन्तु कुछ ही महीनों बाद उनके व्यवहार और कार्यों को देखकर गांव वाले अभिभूत हो गए। अनजानापन पारिवारिक निकटता में बदल गया। और यहीं से शुरू हुई उस गांव के विकास की यात्रा। जातिवाद व पार्टीवाद में बंटे लोगों को रचनात्मक कार्यों की ओर मोड़ना बड़ा दुष्कर काम था। मेरे मन में भी प्रश्न उठा कि चुनाव के समय क्या करते होंगे? लेकिन इन समाजशिल्पी दपत्तियों के लिए कुछ भी दुष्कर नहीं। वर्तमान में 40 समाजशिल्पी दम्पत्ति यहां कार्यरत हैं।लुप्तप्राय “केयुकंद” औषधीय पौधे की खेती चमत्कार से कम नहींअगस्त, 2001 में आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय (इंग्लैण्ड) की शोध छात्रा, मूलत: जापान निवासी एरी कुकेता सतना जिले के वनवासी गांव पटना कलां पहुंचीं। भाषा, खान-पान, रहन- सहन सभी प्रकार की कठिनाइयों के बावजूद वह अपने “मिशन” के लिए तीन दिन तक रात-दिन गांव वालों में रमी रहीं। दीनदयाल शोध संस्थान के कार्यों का भी अध्ययन किया और चित्रकूट से लौटते वक्त उसने नानाजी के काम को विश्व के लिए अनुकरणीय बताया। इसी गांव में कुछ समय बाद भारतीय प्रशासनिक सेवा के प्रशिक्षणार्थी आये, जिन्होंने दस दिन तक यहां रहकर वनवासी जीवन का अध्ययन किया।पटना कलां गांव में समाज शिल्पी दम्पत्ति महेन्द्र नामदेव व शशिकिरण को पांच वर्ष हो गए हैं। एक बार एक वनवासी महिला को खून की आवश्यकता पड़ी। परिवार व गांव में रक्तदान करने को कोई तैयार नहीं हुआ तो संस्थान में सेवारत शशिकिरण ने अपना खून देकर उसकी जान बचाई। यहां मानवीय रिश्तों ने खून के रिश्तों को भी पीछे छोड़ दिया है। यह संस्थान चित्रकूट क्षेत्र में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् के दो कृषि विज्ञान केन्द्रों का भी संचालन कर रहा है। देश के अधिकांश जिलों में कृषि विज्ञान केन्द्र हैं, प्रत्येक जिले में एक केन्द्र का प्रावधान है।सभी छायाचित्र: भागीरथ चौधरीभरगंवा क्षेत्र में चावल की लहलहाती फसलदेश में 15 से 35 वर्ष के युवाओं की संख्या 40 करोड़ के लगभग है। लेकिन सर्वाधिक दुर्दशा बेरोजगार ग्रामीण युवकों की है। देश की इस सबसे प्रमुख समस्या को हल करने का मार्ग दिखाया दीनदयाल शोध संस्थान के चित्रकूट में स्थापित “उद्यमिता विद्यापीठ” ने। स्वरोजगार अभियान के तहत गांव-गांव जाकर उद्यमिता की प्रमुख नंदिता पाठक ने बेरोजगारों से सम्पर्क किया। दीनदयाल शोध संस्थान का काम और नानाजी देशमुख का नाम मीडिया में नहीं, लोगों के दिलों में है। इनके पीछे कर्मशीलता की असाधारण तपस्या दिखाई देती है। दस-बारह वर्षों में नानाजी के नाम और दीनदयाल शोध संस्थान के काम को जो ख्याति मिली है, उसे शब्दों में नहीं बांधा जा सकता।लाहौर दिनांक की अंतिम किस्त अगले अंक में पढ़ेंवर्ष 59, अंक 23 कार्तिक शुक्ल 5, 2062 वि. (युगाब्द 5107) 6 नवम्बर, 2005अपनी बात उस लौ की नियति से जुड़े लोगश्रद्धांजलि – मालू ताई श्रद्धांजलि – निर्मल वर्मान कुछ मांगा देश से सिर्फ देना सीखा भारतीय प्रज्ञा के ज्योति-पुरुषआलेख सभ्यता के गहराते अंधेरे को चीरती अन्तज्र्योति – देवेन्द्र स्वरूपलक्ष्मी पूजक देश गरीब क्यों? – डा. भरत झुनझुनवालादीपज्योति नमोऽस्तुते – शिव ओम अम्बरसाक्षात्कार “मुलुक” (भारत) छूट गया पर न छूटा हिन्दू धर्म न हिन्दी से प्रेम – रंजीत रामनारायण से विशेष बातचीतविशेष रपट उनकी दीवाली के बिना अधूरा है भारत!! – अरुण कुमार सिंहसर्वेक्षण युवा वर्ग के लिए आधुनिकता सिर्फ नशा और कामुकता?केरल – “माया” ने भरमाया – प्रदीप कुमारपंजाब – समृद्धि की चकाचौंध में भूल गए पहचान – राकेश सैनउत्तरांचल – विकृति से लड़ने का संकल्प – रामप्रताप मिश्रछत्तीसगढ़ – युवाओं का आह्वान – “लड़ाई बाजारवाद से” – हेमन्त उपासनेमेरी नजर में आत्म-दीप विधवाओं की सहायता का महायज्ञ – विजय चोपड़ाझुग्गी-झोपड़ी में स्वावलम्बन अभियान के अग्रदूत – कुंदन व्यास87 साल की उम्र वाली शिक्षामूर्ति – सईद नकवीहशू आडवाणी द्वारा ज्योतित दीपों की मालिका – पुरुषोत्तम हीरानंदानीआत्म-दीप डा. शरद रेणुआशीष गौतम “भैयाजी”डा. एम. लक्ष्मी कुमारीडा. सी.आई. इसाक्विजय जरधारीवसंतराव देशपांडेश्रीमाली और श्रेष्ठाई. सिद्धम्माअद्वैत गणनायकबसंतअजय सावमयीलम्माअनुराधा बक्षीकविताये सम्मोहन दीप का, आखिर तोड़े कौन? – दिनेश शुक्लहमको मजबूर समझते हो, यह नादानी हैमन से जाती नहीं द्वेष की गन्दगी, रोज गंगा नहाने से क्या फायदा – रमेश चन्द्र श्रीवास्तव दीपकों को सूरज वे दिखाते हैं – गोपीनाथ कालभोरचेतना का दीप – डा. तारादत्त “निर्विरोध”राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अ.भा. कार्यकारी मंडल ने कहा – सरकार सुरक्षा के प्रति लापरवाहतार-तार जया और तुष्टीकरण सर्वोच्च न्यायालय ने कांची कामकोटि पीठ के पूज्य शंकराचार्य जी से सम्बन्धित मुकदमे को पांडिचेरी न्यायालय में स्थानांतरित किया और कहा – “तमिलनाडु में न्याय की उम्मीद नहीं”कर्म करो, धन मिलेगा – केवल कृष्ण कुमारसमृद्धि के लिए मेहनत और भाग्य जरूरी – जयनारायण खण्डेलवालसंस्कार भारती के राष्ट्रीय अध्यक्ष डा. शैलेन्द्रनाथ श्रीवास्तव की पीड़ा – कला की कीमत दस पैसे?संकल्प लें, भारत पुन: अखण्ड होगा – जनरल शंकर राय चौधरीदुनिया में गूंजे हिन्दुत्व का गौरव18 नवम्बर को स्वदेशी जागरण मंच हुंकार भर कर कहेगा – हांगकांग में विश्व व्यापार संगठन की बैठक में न झुके भारत सरकारराष्ट्र सेविका समिति के इतिहास का सबसे अनूठा शिविरNEWSप्रिय बन्धुओ,सप्रेम जय श्रीराम।दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं देते हुए यह जरूरी है कि हम अपने आसपास के अंधेरों पर भी एक नजर दौड़ा लें। हम अक्सर अपने-अपने वर्गों या एक डिब्बे में बंद तीज-त्योहार और व्यक्तिगत कार्यक्रम मनाने के आदी हो गए हैं। शायद कभी यह ध्यान देने की फुर्सत नहीं निकाल पाते कि वे लोग जिनके साथ हम समरसता की बात करते हैं और जो आज भारत में सबसे अधिक विदेशी गिद्ध दृष्टि और हमलों के शिकार बने हुए हैं उनकी दीपावली भी हम न सिर्फ देखें बल्कि उसमें शामिल हों और अपने मोहल्लों में उनको बुलाएं। हम जानना चाहेंगे कि कितने पंडित इस बार दीपावली पूजन करवाने के लिए दलित बस्तियों में गए या उनके परिवारों में जाकर सुरुचिपूर्ण पूजन संपन्न करवाया। पिछली बार उर्वा अध्वर्यु को हमने अमदाबाद के एक वंचित परिवार के साथ दो दिन बिताने के लिए भेजा था और उनकी रपट हमारे पाठकों ने बहुत सराही। (पाञ्चजन्य अंक- 14 नवम्बर, 2004)। इस बार अरुण कुमार सिंह एक वंचित परिवार में दीपावली का माहौल देखने गए और उनकी रपट इस अंक में पृष्ठ 45 पर विशेष दृष्टव्य है।पिछली बार गोहाना पर जो हमने लिखा उस पर पूरे देश से काफी व्यापक प्रतिक्रियाएं मिलीं। उनमें से त्रिलोकपुरी से श्री बी.के. धानुष्का एवं फतेहपुर सीकरी से श्री खुशाल सिंह जी ने अपने मन की भावनाएं सुविस्तृत पत्रों में व्यक्त की हैं। खुशाल सिंह जी का एक ही प्रश्न था- आखिर अत्याचार के समाचार सिर्फ हमारे बारे में ही विशेष रूप से क्यों होते हैं? हमको बताया जाए कि भगवान ने जिन लोगों को ऊंची जाति वाला बनाया है उनमें क्या सुरखाब के पर लगे हैं और कितने जन्मों तक हमें यह उत्पीड़न सहन करते ही रहना पड़ेगा? धानुष्का जी का कहना है कि वे बचपन से ही राष्ट्रवादी विचारधारा से जुड़े रहे, बाल स्वयंसेवक रहे। वे लिखते हैं कि, मैं मूलत: मैनपुरी (मयनऋषि की तपोभूमि) का रहने वाला हूं। वहां का सामाजिक संतुलन इस प्रकार बिगड़ा है कि अब मेरी जन्मभूमि होते हुए भी वहां जाने से डर लगता है। डरता इसलिए नहीं हूं कि मैं मारा जाऊंगा, परंतु डर इसका है कि मेरे बाद उन हिन्दुओं का क्या होगा जो हिन्दुओं के द्वारा ही नित्यप्रति सताए व उत्पीड़ित किये जाते हैं। तरुण जी (भैया जी) क्या दलितों के हिस्से में मात्र उत्पीड़न- अनादर ही शेष है? मैं स्वयं सोचता हूं कि मैं उन्हीं दलितों में से उठकर इन्द्रप्रस्थ में आ गया हूं परंतु मेरी आत्मा तो अब भी गांव में रह रहे दलितों में भटकती है। जब तक जीवन है उन दबे- कुचलों की सेवार्थ में ही लगा रहूं। इसमें अगर आपका सहयोग मिलता है तो मैं धन्य हो जाऊंगा।”सच बात तो यह है कि अगर हम वस्तुत: भारत के बारे में चिंतित हैं और सोचते हैं कि भारत भी बचे और हम भी, तो अपने रास्ते को उस धारा की ओर मोड़ना होगा जिस धारा का संकेत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकारी मंडल ने चित्रकूट बैठक में किया। संभवत: इतने कड़े और प्रहारक शब्दों में जाति वैमनस्यता दूर करने की बात दुर्लभ है, जिसका हमारे समाज पर निश्चित रूप से असर होना चाहिए। और वह असर हो तो दीपावली की जगमगाहट कुछ और बढ़े।शेष अगली बार।आपका अपना,त.वि.NEWS
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