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गवाक्ष

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Jun 3, 2005, 12:00 am IST
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दिंनाक: 03 Jun 2005 00:00:00

शिव ओम अम्बरडा. रामकुमार वर्मा- पंडित सोहनलाल द्विवेदी- महादेवी वर्मासाहित्यिक प्रभविष्णुता की शताब्दी-संज्ञाएंडा. रामकुमार वर्मापं. सोहनलाल द्विवेदीमहादेवी वर्माअभिव्यक्ति मुद्राएंदिल को बहला ले, इजाजत है, मगर इतना न उड़,रोज सपने देख, लेकिन इस कदर प्यारे न देख-दुष्यन्त कुमारदेर से पहचान पाया वो मुझे अच्छा हुआमैं बहुत खुश हूं कि उसने देर तक देखा मुझे- डा. कुंअर बेचैनजैसे गलत पते पे चला आए कोई शख्ससुख ऐसे मेरे दर पे रूका और गुजर गया-राजेश रेड्डीबहुत बेबाक आंखों में तअल्लुक टिक नहीं पातामुहब्बत में कशिश रखने को शरमाना जरूरी है-वसीम बरेलवीअजीब शख्स है नाराज हो के हंसता हैमैं चाहता हूं खफा हो तो वो खफा ही लगे-बशीर बद्रहिन्दी एकांकी क्षेत्र के युगपुरुष डा. रामकुमार वर्मा की जन्म-शताब्दी हम मना रहे हैं, इसी वर्ष गांधीवादी विचारधारा को काव्य-काया देने वाले पंडित सोहनलाल द्विवेदी का शताब्दी वर्ष प्रारंभ हो रहा है और अगले वर्ष महीयसी महादेवी वर्मा का जन्म-शती वर्ष प्रारंभ होगा। हिन्दी में रचनाकार को उसके जीवन-काल में तो महत्ता प्राय: नहीं ही मिलती है, अब मरणोपरान्त भी- यहां तक कि शताब्दी-वर्ष में भी उसके अवदान पर चर्चा करने का वक्त समय और समाज के पुरोधा-पुरुषों के पास नहीं है। अपने-अपने काल-खण्ड में एक महनीय भूमिका निर्वाह करने वाली इन तीनों ही संज्ञाओं के व्यक्तित्व और कृतित्व की आलोक-रश्मियों से स्नात होने का और उन पर चिन्तन-अनुचिन्तन करने का यह सम्यक् समय है। सबसे पहले एक टिप्पणी डा. रामकुमार वर्मा के विषय में। एकांकीकार डा. रामकुमार वर्मा के विषय में तो पाठ पुस्तकों में पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है किन्तु उनके इसी विसद के कारण उनका कवि रूप उपेक्षित हो गया। छायावादी कवि-चतुष्ट्य प्रसाद, पन्त, निराला और महादेवी के अतिरिक्त जिन प्रतिभा रचनाकारों की कविताओं में छायावादी प्रवृत्तियां अपनी पर्याप्त शक्तिमत्ता के साथ उपस्थित हैं, उनमें डा. रामकुमार वर्मा प्रथम पंक्ति में हैं। एक उदाहरण द्रष्टव्य है। जहां प्रकृति के सुकुमार कवि पन्त को चांदनी रात में नौका-विहार प्रिय है और शुभ्र ज्योत्सना में जब उन्हें किसी अज्ञात सत्ता के द्वारा नक्षत्रों की चमक के रूप में मौन निमंत्रण प्राप्त होता है, डा. रामकुमार वर्मा को मावस की तारोंभरी रात आकृष्ट करती है और उन्हें ऐसा लगता है कि यह रात एक मालिन है जो अपने तारों वाले गजरे बेचने के लिए निकली है-इस सोते संसार बीच जगकरसजकर रजनी वाले!कहां बेचने ले जाती होये गजरे तारों वाले?मोल करेगा कौन सो रही हैंउत्सुक आंखें सारी,मत कुम्हलाने दो सूनेपन में अपनीनिधियां न्यारी।इस कविता की अन्तिम पंक्तियों में कवि उदास और निराश रजनी- बाला को यह संदेश देता है कि वह अपने तारों वाले गजरे ओस की लड़ियों के रूप में इस संसार पर न्योछावर कर दे, उसकी उपेक्षा से आहत न हो अपने संचित कोष को मुक्त-हस्त से लुटाये। कवि का यह शाश्वत संदेश हर युग को दिशा-बोध देता रहेगा। आज उनकी स्मृति को प्रणाम करते हुए उनके स्वर में स्वर मिलाकर कहना चाहता हूं-सभी की खैर मांगोअपने सरसबकी बला ले लो-बचाकर भी स्वयं कोअन्तत: टूटोगे-बिखरोगे,लुटाओबेवजह खुद कोलुटाने का मजा ले लो।पंडित सोहनलाल द्विवेदी का स्मरण आते ही चित्त में “चल पड़े जिधर दो डगमग में चल पड़े कोटि पग उसी ओर” वाली गांधी- वन्दना की पंक्ति कौंध जाती है। आज जब हमारे स्वनामधन्य राजनीतिज्ञों के आचरण ने खादी को कलुषित और गांधी को तिथिबाह्र कर दिया है, द्विवेदी जी की दृष्टि से एक बार पुन: गांधी तत्व को देखने की, समझने की जरूरत है। पंडित सोहनलाल द्विवेदी के लिए गांधी केवल चुनाव के पोस्टर और औपचारिक भाषणों की आलंकारिक विषय-वस्तु नहीं, एक समग्र जीवन-दर्शन हैं-गांधी मिट्टी का नहीं न प्रस्तर का तन है,गांधी अशरीरी है दृढ़ संकल्पी मन है।गांधी विचार है नवजीवन का दर्शन है,गांधी निर्बल का बल है निर्धन का धन है।गांधी है अविरल कर्म धर्म का संस्थापन,गांधी जीवन का मर्म दलित का उत्थापन।गांधी बल है बलि है बलिपंथी का जीवन,गांधी भव में नव मानवता का सफल सृजन।द्विवेदी जी का जन्मशती वर्ष हमें निर्मल दृष्टि से उन्हें और उनके गांधी को देख पाने की सामथ्र्य दे। यही आकांक्षा है।महादेवी जी के विषय में आज बहुत-कुछ न कहकर केवल डा. रामकुमार वर्मा के द्वारा प्रस्तुत उनके व्यक्तित्व का एक शब्द-चित्र उद्दृत करना चाहता हूं जो डा. वर्मा की बिम्बाविधायिनी शैली और महीयसी महादेवी की प्रकाशवर्षिणी छवि, दोनों को ही प्रतिच्छवित करता है- उन्हें देखते ही मेरे मन में समस्त छन्दशास्त्र साकार हो उठता था। साहित्य की परम्परा में वे “वंशस्थ” थीं तो चिन्तन में “चन्द्राकान्ता”। अपने गीतों के पद-विन्यास में उन्होंने “वसन्त तिलका” की शोभा प्राप्त की तो करुणा की अभिव्यक्ति में “मालिनी” की करुणा स्पष्ट की। वे मिलने में “द्रुतविलम्बित” थीं और हंसने में “अनुष्टुप”। भारतीय गीत-साहित्य में तो वे “शिववारिणी” ही थीं।इन्हीं महादेवी के लिए महाप्राण निराला ने कहा था और बहुत सही कहा था-हिन्दीे के विशाल मन्दिर वीणापाणीस्फूर्ति चेतना प्रतिमा कल्याणी।पंडित विद्यानिवास जी का अन्तिम सम्पादकीय”साहित्य-अमृत” का अंक प्राप्त होते ही मैं सर्वप्रथम सम्पादकीय पढ़ने बैठ जाता था। पंडित जी की सहज संवेदना, अप्रतिम प्रतिभा और तलस्पर्शी दृष्टि हर वण्र्य विषय को एक अविस्मरणीय अनुभूति विषय बना देने में सक्षम थी। उनका हर सम्पादकीय प्राय: जीवन के उल्लास का अभिनन्दन और उनके अनुरागापूरित अन्तस् के उच्छ्वास का अभिव्यंजन हुआ करता था। किन्तु फरवरी मास के साहित्य-अमृत का सम्पादकीय एक गहन नि:श्वास की तरह प्रतीत हुआ। एक गहन वैयक्तिक दु:ख के तीक्ष्ण शर से बिंधे धीरोदात्त व्यक्तित्व के द्वारा दर्द को भी दर्शन बना लेने की क्षमता का विदर्शन कराता हुआ। फिर भी, श्रीमद्भागवत के उद्धव-उपदेश में जैसे आदि कवि के वक्ष में पल रहा क्रौञ्च- क्रन्दन घुल गया हो- कुछ ऐसा हो गया था वह सम्पादकीय। अपनी सहचरी के अवसान से अवसन्न पंडित जी लिख रहे थे- गति अस्त को प्राप्त हुई, धृति खिसक गई, गीत के स्वर मौन हो गये, ऋतु निरुत्सव हो गई… इस ढलती अवस्था में गृहिणी, सहचर, प्रबन्धक और संक्षेप में समूचा घर देखते-देखते आंखों से ओझल हो गया। साठ वसन्तों की सहचरी, सहभागिनी विदा हो गई। एक तरह से जीवन की पूरी सचेतावस्था की असंख्य स्मृतियों की बाढ़ चली गई, एक जीवन पर छाने वाला साहचर्य का परम आश्वासन भाव चला गया।… एक संस्कार ऐसा भी हो सकता है जो वस्तुओं को भी, प्रकृति को भी अपनापन दे सकता है। इसकी वे साक्षात् विग्रह थीं और मुझे ऐसा लगता है कि ऐसा घरु भाव, जो घर को भरता था, एकाएक विदा हो गया है।…पंडित जी इस वियोग से भीतर ही भीतर बहुत विचलित थे। नियति उनके इस विचलन से स्वयं डगमगा गई और एक स्रदयद्रावक दुर्घटना घटित हुई। पंडित जी हम सबके स्रदय में एक गहन पीड़ा की तरंग देकर सदा के लिए मौन हो गए। किन्तु उनके शब्द साहित्य के अमृत तत्व के रूप में हमें आपूरित करने के लिए सदैव रहेंगे।NEWS

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