|
अमिताभ त्रिपाठीनेताजी के जन्म दिवस (23 जनवरी) पर विशेषनेताजी सुभाषचंद्र बोसगजब का साहस, प्रखर देशभक्तिहमारा प्रयास रहता है कि “संस्कृति सत्य” स्तम्भ के पाठकों को निर्बाध रूप से इस स्तम्भ का आस्वादन प्राप्त होता रहे, परन्तु कभी-कभी हमें सांस्कृतिक और सामाजिक विभूतियों तथा घटनाक्रमों अथवा रोचक विषयों पर अन्य लेखकों के लेख भी प्राप्त होते हैं। स्थानाभाव के कारण जिन्हें कई बार हमें मन-मसोस कर लौटाना पड़ जाता है। ऐसे ही कई लेख हम पाठकों से क्षमा-याचना करते हुए “संस्कृति सत्य” के स्थान पर ही “संस्कार” नामक स्तम्भ के अन्तर्गत देते हैं। सं.स्वामी रामकृष्ण परमहंस व उनके शिष्य स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा से कितने ही युवकों ने परकीय चेतना के प्रभाव से मूल स्वदेशी चेतना को आप्लावित होने से बचाया। ऐसे युवकों की श्रेणी में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का नाम अग्रणी है। स्वयं सुभाषचन्द्र बोस के जीवनीकार शिशिर कुमार बोस ने स्वीकार किया है कि नेताजी ने बंगाल से आरम्भ हुए पुनर्जागरण को उच्चतम शिखर तक पहुंचा दिया था।नेताजी बाल्यकाल से ही उत्कट देशभक्त थे। उनमें दीन-दु:खियों व वंचितों की सेवा को ईश्वर की सेवा मानने का संस्कार था। नेताजी अपने जीवन के आरम्भिक दिनों में स्वामी विवेकानंद से अत्यंत प्रभावित थे और आध्यात्मिकता तो संतोष प्राप्त करने की इच्छा से हिमालय की पहाड़ियों तक गए थे। 18 वर्ष की अवस्था तक नेताजी के व्यक्तित्व में आध्यात्मिकता का इतना अधिक समावेश हो चुका था कि उन्होंने सम्पूर्ण विश्व को अपने विचारों और आत्मविश्वास से झकझोर दिया था।1916 में कोलकाता प्रेसीडेंसी कालेज में अध्ययन के समय भारतवासियों के प्रति अंग्रेजों की भेदभावपूर्ण नीति ने उनके दृष्टिकोण को पूरी तरह परिवर्तित कर दिया और आध्यात्मिकता की ओर झुके सुभाष को संगठन की शक्ति और राजनीति का महत्व समझ में आने लगा था। नेताजी की अंतर्दृष्टि और इच्छाशक्ति अत्यंत तीक्ष्ण थी। 24 वर्ष की अवस्था में आई.सी.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद प्रशासनिक सेवा के आकर्षण से वे तनिक भी विचलित न हुए और आई.सी.एस. छोड़ने का निर्णय ले लिया।प्रशासनिक सेवा छोड़ने के उपरांत नेताजी देशबन्धु दास के साथ स्वाधीनता आन्दोलन में सक्रिय हो गए। उन्होंने पूर्ण स्वराज्य के आधार पर भारत के लिए एक संविधान निर्मित करने की आवश्यकता जताई। नेताजी स्वाधीनता संग्राम के संदर्भ में एक स्पष्ट राय के पक्षधर थे। इसी कारण महात्मा गांधी की एक कदम पीछे खींचने की नीति से वे कभी सहमत नहीं हो सके।1921 से सक्रिय राजनीति में आने के पश्चात् 1939 में त्रिपुरी अधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्याग पत्र देने की विवशता के बीच का काल नेताजी के समाजवादी ढांचे की कल्पना को स्पष्ट करता है।1939 में त्रिपुरी अधिवेशन में जिस अपमानजनक तरीके से उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्याग-पत्र देना पड़ा था। उसके बाद जो मर्मस्पर्शी बातें नेताजी ने कहीं वैसी बातें एक आध्यात्मिक दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति ही कह सकता है। उन्होंने माना कि त्रिपुरी का वातावरण उनके पिछले 19 वर्षों के राजनीतिक जीवन का सबसे दुखद क्षण था। 1939 में अभूतपूर्व साहस का प्रदर्शन कर अंग्रेजों की नजरबंदी से भारत से निकलना उनकी उत्कट देशभक्ति का परिचायक था।अन्तरराष्ट्रीय सम्बंधों और कूटनीति की अच्छी समझ रखने वाले नेताजी ने साम्राज्यवाद विरोधी धुरी पर ऐसा वैश्विक गठबंधन और सैन्यशक्ति खड़ी कर दी जो आने वाली शताब्दियों में भी दन्त कथा की तरह कही जाएगी। मौलाना अबुल कलाम आजाद ने अपनी पुस्तक “इंडिया विन्स फ्रीडम” में उल्लेख किया है कि गांधी जी का “करो या मरो” के नारे वाला “भारत छोड़ो आन्दोलन” नेताजी की प्रेरणा से ही शुरू हुआ था।23 अगस्त, 1945 को विमान दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु हुई या नहीं यह अब भी रहस्य बना हुआ है। कुछ भी हो, नेताजी जैसे व्यक्तित्व से जुड़ा सम्पूर्ण सच देशवासियों के समक्ष आना चाहिए।”NEWS
टिप्पणियाँ