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हो.वे. शेषाद्रिअ.भा.प्रचारक प्रमुख, रा.स्व.संघये नन्हे-नन्हे आशादीपकुछ वर्ष पहले उत्तरकाशी के आसपास जबरदस्त भूकम्प आया था। सैकड़ों मकान ध्वस्त हुए, जानें गईं। आपदा की उस घड़ी में रा.स्व.संघ के स्वयंसेवक तुरन्त राहत कार्य में जुट गए। देशभर में कार्यकर्ता- स्वयंसेवक धन संग्रह में जुट गए। कर्नाटक की एक शाखा के मुख्य शिक्षक ने भी अपनी शाखा के बाल, तरुण सभी स्वयंसेवकों को अपने-अपने घर से पांच-पांच रुपए लाने के लिए कहा। दूसरे दिन एक बाल स्वयंसेवक बीस रुपए लाया। मुख्य शिक्षक ने इसके बारे में पूछा तो उसने बताया कि “मैंने जब पिताजी को कारण बताकर पांच रुपए मांगे, तो पिताजी ने कहा, अरे, उत्तरकाशी कहां पर है? वहां क्या हुआ, तुम जानते हो क्या? इतनी दूर रहने वाले लोगों के लिए हम क्यों चिन्ता करें?” तब मैंने पिताजी को कहा, “मैं ये सारी बातें नहीं जानता। किन्तु मैं इतना तो जानता हूं कि वहां के लोग भी अपने देश के हैं। वे वहां संकट में पड़े हुए हैं इसलिए उनकी मदद हेतु कुछ करना हमारा कर्तव्य है।” उत्तर सुनते ही पिताजी ने मुझे बीस रुपए दिए। एक-दो दिन बाद उस बालक के पिताजी शाखा के मुख्य शिक्षक से मिले और कहने लगे, “उत्तरकाशी में भूकम्प के कारण लोग काफी त्रस्त हैं, ये सारी बातें मैंने अखबार में पढ़ी हैं, किन्तु वहां के लोग भी हमारे भाई-बहन हैं, यह भावना मेरे अन्दर नहीं थी। मेरे लड़के ने यह पाठ मुझे सिखाया। आप शाखा में कितने अच्छे संस्कार बालकों में जगा रहे हैं। मैं बड़ा प्रसन्न हूं और इसलिए पांच रुपए के बदले मैंने बीस रुपए अपने बेटे को दे दिए।”एक अन्य प्रसंग है गुजरात में सन् 2001 में आए भूकम्प के समय का। दिल्ली के विद्या भारती के छात्रों को सूचना दी गई कि लोगों से धन संग्रह करना है। विद्यार्थियों की टोलियां दिल्ली के विभिन्न चौराहों पर खड़ी हो गईं। लालबत्ती के कारण गाड़ियां जब रुकती थीं, तो वे बच्चे कारण बताकर गाड़ी के मालिक से धन मांगते थे। धन मिलने पर तुरन्त रसीद भी दे देते थे। किन्तु एक गाड़ी के मालिक ने पैसा देने से साफ इनकार कर दिया। यह देखकर विद्यार्थी “देश हमें देता है सब कुछ, हम भी तो कुछ देना सीखें” गीत गाने लगे। (यह गीत विद्या भारती के विद्यालयों में सिखाया जाता है।) यह सुनते ही उसने अपनी जेब से पांच सौ रुपए निकालकर उनको दे दिए। विद्या भारती के विद्यार्थियों की दूसरी टोली से जुड़ा एक और दिलचस्प अनुभव है। इन विद्यार्थियों ने एक आटोरिक्शा चालक से जब राहत राशि मांगी तो उसने पांच सौ रुपए दे दिए। (यह कितनी बड़ी बात है)। वहीं खड़े एक गाड़ी मालिक ने भी जब 500 रुपए दिए तो यह देखकर आटोरिक्शा चालक ने हंसते हुए कहा, “मैं भी गाड़ी के मालिक के समान हो गया।” उसके ये शब्द सुनते ही गाड़ी के मालिक ने और पांच सौ रुपए निकालकर विद्यार्थियों को दे दिए।माधवराव (श्री गुरुजी का विद्यार्थी जीवन में यही नाम प्रचलित था।) एक ईसाई मिशनरी द्वारा संचालित विद्यालय में पढ़ते थे। वहां के प्राध्यापक श्री गार्डनर छात्रों को बाइबिल पढ़ाते थे। एक दिन पाठ के बीच में माधवराव ने खड़े होकर कहा, “सर, इस वाक्य का आप जो संदर्भ बता रहे हैं- वह गलत है। ठीक संदर्भ तो यह है।” यह कहकर उन्होंने सही सन्दर्भ भी तुरन्त बताया। कक्षा के सारे विद्यार्थी माधवराव की यह टिप्पणी सुनकर सन्न रह गए। उनमें से कुछ छात्रों को जरूर लग रहा होगा कि यह कैसा विद्यार्थी है, गार्डनर जैसे बाइबिल के प्रकांड विद्वान को भी पाठ पढ़ा रहा है! किन्तु गार्डनर ने संबंधित ग्रंथ लाकर जब देखा तो माधवराव का कहा सही निकला। कक्षा समाप्त होने के बाद गार्डनर ने माधवराव को बुलाकर उनकी प्रशंसा की।गणित के एक बड़े प्राध्यापक थे। उनकी पत्नी रोज भगवान की मूर्ति के सामने बैठकर श्रद्धापूर्वक पूजा-अर्चना करती थीं। प्राध्यापक महोदय को मूर्ति पूजा पर बिल्कुल विश्वास नहीं था। कभी-कभी पत्नी का मजाक भी उड़ाते थे कि “इस मूर्ति का “अखंड कोटि ब्राह्माण्ड नायक” आदि के रूप में वर्णन करती हो, यह कितनी बेकार की बात है।” एक दिन प्राध्यापक महोदय ने अपने लड़के को गणित पढ़ाते समय “अनन्त” के लिए “00” चिन्ह लगाने के लिए कहा। लड़के ने पूछा, “इतने छोटे चिन्ह में “अनंत” कैसे समाहित हो सकता है?” प्राध्यापक पिता ने उत्तर दिया, “इस प्रकार कोई न कोई चिन्ह रखने पर आगे गणित की कई जटिल समस्याओं को सुलझाने में सहायता होती है।” तब लड़के ने कहा, “इसी प्रकार मूर्ति को “अखंड कोटि ब्राह्माण्ड नायक” का प्रतीक मानने में क्या आपत्ति है?” यह सुनते ही प्राध्यापक महोदय स्तब्ध रह गए। उस दिन से उन्होंने मूर्तिपूजा के बारे में मजाक करना छोड़ दिया।ऐसे कई प्रसंग आते हैं, जब छोटों से बड़ों को भी पाठ सीखने का अवसर मिलता है, इसलिए हमारे यहां कहा गया है- “बालादपि सुभाषितं ग्राह्रम्”।NEWS
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