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बिहार में अराजकता का प्रतीक बनीसोनिया की लालू सरकार….वरना यदि सोनिया चाहतीं कि बिहार में नरसंहार, अपहरण और डकैतियां न हों तो क्यों लालू को समर्थन देतींटी.वी.आर. शेनायसोनिया के बूते कुर्सी पर काबिज लालूदिल्ली में सगे, बिहार में सौतेले!5दिसम्बर, 2003 को भारतीय राजनीति के शब्दकोश में एक नया जुमला बड़ी मजबूती के साथ शामिल हुआ था- “बी.एस.पी. फैक्टर”। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अपने उम्मीदवारों की अनपेक्षित जीत के बाद भाजपा ने दावा किया कि कांग्रेस की सरकारें इसलिए धराशायी हुईं क्योंकि वे “बिजली-सड़क-पानी” उपलब्ध कराने में नाकाम रहीं। (मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह सरकार की हार लगभग तय थी, जबकि जयपुर और रायपुर में भाजपा की स्पष्ट जीत आश्चर्य की तरह आई थी।) लेकिन क्या यह सच है कि भारतीय मतदाता “विकास” को “विचारधारा” से ज्यादा तरजीह देता है?सन् 2004 के आम चुनावों के नतीजे देखिए तो आपको एक अलग तस्वीर नजर आएगी। चंद्रबाबू नायडू, जयललिता और एस.एम. कृष्णा नि:संदेह भारत के बेहतर प्रशासित राज्यों के मुख्यमंत्री थे। चुनावों में तीनों का ही हाल खराब रहा। (हालांकि कांग्रेस अब भी बंगलौर में मुख्यमंत्री बनाए हुए है, पर वह बौखलाए गठबंधन का नेतृत्व कर रही है जबकि भाजपा आज विधान सौध में सबसे बड़े दल के रूप में है।) दूसरी तरफ, बिहार- जो आज भारतभर में भ्रष्टाचार और हिंसा का पर्याय बन चुका है- चुनाव दर चुनाव लालू यादव का ही समर्थन करता आ रहा है। राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष ने कभी “बी.एस.पी. फैक्टर” की परवाह तक नहीं की। उनकी सत्ता तो जात-पात के होशियारी से बैठाये गए घालमेल पर आधारित है।दस साल पहले बिहार का दौरा करने गए पत्रकार लौटने पर इस बात पर एकमत थे कि बिहार में सबसे खराब प्रशासन है। आज वे वहां से लौटकर कहते हैं, राज्य में अच्छा, बुरा या बदसूरत- कैसा भी प्रशासन नहीं है। हालात इतने खराब हैं कि अपने अपहृत साथी छात्र की पीड़ा की ओर ध्यान खींचने के लिए पटना में छात्र क्रमिक भूख हड़ताल पर हैं। अगर खाने की मेज पर बैठकर आप इसे पढ़ रहे हैं तो ध्यान रखें कि वहां बच्चे भूखे रह रहे हैं, क्योंकि बिहार में आज केवल अपराध उद्योग ही फल-फूल रहा है।दिल्ली में सत्ता सम्भाले नेताओं को भी इसकी परवाह नहीं है। लालू प्रसाद यादव ने दुहाई देते बच्चों से मिलने तक से मना कर दिया। (उनका अपना बेटा बड़े गर्व से दिल्ली के स्कूल में दाखिल कराया गया है।) कुछ मीडिया चैनलों ने नीतिश कुमार पर मुद्दे का “राजनीतिकरण” करने का उस समय आरोप मढ़ा जब उन्होंने एक चुनावी सभा में यह घटना सुनाई। (आखिर उन्हें क्या करना चाहिए था, चुपचाप इस मुद्दे को कहीं दबा देते?) लेकिन केवल टी.वी. पत्रकार ही लालू यादव को सत्ता में नहीं जमाए हुए हैं, उसका श्रेय तो कांग्रेस को जाता है।हम लालू यादव को पटना में अण्णे मार्ग के मुख्यमंत्री निवास में देखने के इतने आदी हो चुके हैं कि यह तक भूल जाते हैं कि उनका राजद 5 साल पहले विधानसभा में बहुमत जीतने में असफल रहा था। लेकिन कांग्रेस की बदौलत लालू और उनकी पत्नी राबड़ी देवी सत्ता के ऐशो-आराम भोग रहे हैं। साथ ही, कुछ साल पहले जब लोकसभा ने बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाने की मंजूरी दी थी, तब राज्यसभा में कांग्रेस ने राजद को बचा लिया था। (सोनिया गांधी, जो उस वक्त बिहार के दौरे से लौटी ही थीं, जहां उन्होंने लालू यादव की सत्ता को फटकारा था, पलटकर दिल्ली में उन्हें बचाने में जुट गईं थीं।)एक बार फिर वही कहानी दोहराई जा रही है। कांग्रेस ने केन्द्रीय मंत्रिमंडल में राजद को कई स्थान दिए हैं। लेकिन वह विधानसभा चुनाव में बिहार को उनके विरुद्ध मत देने को कह रही है। देखिए, आंकड़े खुद ही अपनी कहानी कह देते हैं।बिहार विधानसभा में 243 सीटें हैं। रामविलास पासवान की लोजपा 162 सीटों पर लड़ रही है, 80 सीटों पर कांग्रेस ने अपने उम्मीदवार खड़े किए हैं और इन दोनों दलों ने एक सीट पर निर्दलीय को समर्थन दिया है। दूसरे शब्दों में, दिल्ली में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के सहयोगी उन 229 सीटों पर एक-दूसरे पर गोबर उछाल रहे हैं जहां राजद, लोजपा-कांग्रेस गठजोड़ से लड़ रही है।सोनिया गांधी जानती हैं कि उनकी पार्टी के अपने बूते बिहार में सत्ता में लौटने की कोई उम्मीद नहीं है, इसलिए वह एक-तिहाई से कुछ कम सीटों पर लड़ रही हैं। वह सोचती हैं कि आम चुनाव से एक साल से भी कम समय के भीतर भाजपा-जनता दल (यू) गठजोड़ भी बिहार की कुर्सी की उम्मीद नहीं लगा सकता। अत: लालू प्रसाद यादव का विरोध करना जोखिम भरा नहीं है। यह विरोध भी दो बातों के कारण। एक, बिहार में खोई जमीन हासिल करने की कोशिश की शुरुआत करने के लिए और दो, राजद अध्यक्ष को यह जता देने के लिए कि बजाय उनके लालू यादव को ही उनकी जरूरत ज्यादा है। (भूलना नहीं चाहिए कि सोनिया के ही मंत्री सी.बी.आई. और प्रवर्तन निदेशालय देखते हैं।) कांग्रेस नहीं चाहती कि लालू यादव सत्ता गंवाएं, वह तो केवल उन्हें कमजोर करना चाहती है ताकि उन्हें यह जताया जाए कि उनको (लालू को) अब भी बाहरी समर्थन की जरूरत है।नीतिगत दृष्टि से शायद यह करना सही ही है। लेकिन अगर आज आगे के बारे में सोचें तो कंपकंपी सी उठती है कि जब तक लालू यादव को सत्ता से बाहर करने का समय आएगा, उस समय बिहार के नाम पर बचेगा ही क्या। सेकुलरवाद के नाम पर और कितने अपराध किए जाएंगे? (27.01.05)NEWS
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